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देवघर : धर्मशालाओं की कब्र पर उग रहे आश्रम!

विजय कुमार राय
28 अप्रैल 2025

Deoghar : भारतीय समाज में धर्मशालाओं (Dharamshalas) का कभी काफी महत्व था. पुण्यकामी दानी-ज्ञानी संपन्न व्यक्ति यात्रियों के रात्रि विश्राम व सामाजिक आयोजनों के लिए इसका निर्माण कराते थे. कहीं-कहीं जाति व उपजाति विशेष के लोग भी सामूहिक सहभागिता से धर्मशाला बनवाते थे. शादी-विवाह, सामाजिक व राजनीतिक बैठक-बैठकी आदि आमतौर पर इन्हीं धर्मशालाओं में हुआ करती थी. तीर्थस्थलों (Tirthasthalon) पर यात्रियों की सुविधाओं को दृष्टिगत रख धर्मशालाएं बनवायी जाती थीं. पर, अब दान-पुण्य और ज्ञान पर व्यावसायिकता के हावी हो जाने के कारण ये सब इतिहास की बातें हो गयी हैं. आज की तारीख में नये निर्माण की बात तो दूर, पहले से बनी धर्मशालाएं भी व्यावसायिकता की चपेट में आ अस्तित्व खो रही हैं. खासकर, बड़े शहरों और तीर्थस्थलों की धर्मशालाएं.

हड़प रहे भू-माफिया
बड़े शहरों में भू-माफिया (Land Mafia) की नजरों पर चढ़ीं धर्मशालाओं को जमींदोज कर अपार्टमेंट या फिर कामर्शियल काम्पलेक्स खड़े किये जा रहे हैं. महादेव (Mahadev) की नगरी देवघर में भी वही सब हो रहा है. वैसे तो अन्य तीर्थस्थलों की तुलना में यहां धर्मशालाओं की संख्या कम थी. श्रद्धालुओं को उनके पुरोहित-पंडों के आवासों में आश्रय मिल जाया करता था. वह व्यवस्था अब भी है, पर उसका स्वरूप बहुत कुछ बदल गया है. बताया जाता है कि अधिकतर पंडों ने अपने आवासों को ‘आश्रम’ (Ashram) का रूप दे रखा है. पंडा आवास के समीप बड़े-बड़े होटल व सामुदायिक भवन भी अस्तित्व में आ गये हैं. धार्मिक सोच के व्यावसायिक हो जाने के कारण धर्मशाला- संस्कृति विलुप्त-सी हो गयी है. इसके उलट होटल-संस्कृति और आश्रम-संस्कृति निरंतर विस्तार पा रही है.

वजूद पर संकट
बाबाधाम (Babadham) में अच्छे से अच्छे होटल खुल रहे हैं, आधुनिक सुविधाओं से सज्जित आश्रम बन रहे हैं. पर, विगत 50 वर्षों के दौरान अपवाद स्वरूप ही यहां कोई धर्मशाला बनी होगी. नयी की बात छोड़िये, वर्षों पूर्व से संचालित धर्मशालाओं के वजूद पर भी संकट गहराया हुआ है. कई का अस्तित्व मिट चुका है. आश्चर्य कि खुद सरकार भी धर्मशालाओं का वजूद मिटा रही है. झारखंड (Jharkhand) राज्य हिन्दू धर्म न्यास परिषद यहां 11 धर्मशालाओं के अस्तित्व को स्वीकार करती है. पर, इसके संरक्षण-संवर्द्धन की उसकी या फिर झारखंड सरकार की ही कोई योजना नहीं है. गाहे-बगाहे दिखावे के तौर पर कार्रवाई जरूर होती है. परंतु उसका कोई फलाफल नहीं निकल पाता है.

बंगाली धर्मशाला
सन् 1855 में निर्मित बंगाली धर्मशाला (Bengali Dharamshala) को देवघर का सबसे पुराना धर्मशाला माना जाता है. इसका निर्माण कोलकाता (Kolkata) के किसी धर्मनिष्ठ बंगाली ने कराया था. बाद के वर्षों में समुचित रखरखाव के उद्देश्य से उस निर्माणकर्त्ता ने इसे देवघर नगरपालिका, जो अब देवघर नगर निगम है, को सौंप दिया था. नगरपालिका ने कुछ वर्षों तक इसकी अच्छी देखरेख की. पर, बाद में यहां भी बदहाली छाने लगी. वर्तमान में देवघर नगर निगम ने इसे अपना अघोषित गोदाम बना रखा है. फलतः 13 हजार 500 वर्ग फीट क्षेत्रफल में फैली यह धर्मशाला तीर्थयात्रियों के लिए किसी काम की नहीं रह गयी है. शुरुआती दौर में दिगंबर राउत बंगाली धर्मशाला के प्रबंधक थे. 1985 में उनका निधन हो गया. तब बबलू राउत ने प्रबंधक का पदभार संभाल लिया. फिलहाल बबलू राउत का पुत्र छोटू इसकी देखरेख कर रहा है.

कबूतर धर्मशाला
शहरवासियों को सुकून इस बात से है कि धर्मशाला भले बदतर स्थिति में है, पर देवघर नगर निगम के अधीन रहने के कारण भू-माफिया के चंगुल में नहीं फंसी है. वैसे, उसकी गिद्ध दृष्टि इस पर भी जमी हुई है. हड़पने की उसकी कोशिश होती ही रहती है. इसी क्रम में 2008 में संबद्ध बंगाली परिवार की अनिमा राय को 09 लाख रुपया देकर कागज पर उनके हस्ताक्षर ले लिये थे. ‘मालिकाना’ का विवाद अदालत में है. बंगाली धर्मशाला के निर्माण के बाद कई और छोटी-छोटी धर्मशालाएं अस्तित्व में आयीं. पर, 1865 में बनी कबूतर धर्मशाला (Kabootar Dharmashala) की कुछ अलग ही अहमियत रही. वर्तमान में यह धर्मशाला जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है. इसके 75 प्रतिशत भू-भाग पर भू-माफिया ने बाजार बना दिया है. शेष पर भी उसकी नजर है. प्रशासन मूकदर्शक बना हुआ है.

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