जाति जनगणना : सच में घूम गया सबका माथा!

हेमंत कुमार झा
01 मई 2025
जाति जनगणना पर कल से ही हो रही घनघोर परिचर्चाओं में विशेषज्ञों का एक वर्ग नरेन्द्र मोदी की इस घोषणा का क्रेडिट राहुल गांधी को दे रहा है. अब जब, अगला कोई चुनाव भाजपा जीतेगी, जो कि अधिक चांस है जीतेगी ही, तो उस जीत के पीछे जाति जनगणना की घोषणा की भूमिका को रेखांकित करते हुए कई विशेषज्ञ भाजपा की जीत का क्रेडिट राहुल गांधी को देंगे. जीत भाजपा को मिले और क्रेडिट राहुल गांधी को मिले, यह क्या कम है? जीत कर क्या करना है, असल चीज तो क्रेडिट है. इतिहास उसी को याद करता है जिसके पास क्रेडिट हो. राहुल गांधी भी कहां मानने वाले हैं. अभी और क्रेडिट लेना है. कल तेवर बदल-बदल कर एकदम जोश में बोल रहे थे, ‘हम आरक्षण की 50 प्रतिशत दीवार को तोड़ कर रहेंगे…’ अब जब, देश में लोकतंत्र है और वोट की राजनीति है तो देश की 85 प्रतिशत जनता जो चाहेगी वही होगा न. तो, देर सबेर आरक्षण भी 85 प्रतिशत हो ही सकता है.
राजनीति का मैदान है यह
जिस दिन 85 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा होगी, सत्ता में बैठा जो नेता यह घोषणा करेगा और जय-जयकार पाएगा, उसे क्रेडिट न देकर उस दिन की परिचर्चाओं में भी बहुत सारे विशेषज्ञ फिर से इसका क्रेडिट राहुल गांधी को देते नजर आयेंगे. आखिर, ये राहुल गांधी ही तो हैं जो चेहरे पर बलिदानी आभा ओढ़े आरक्षण की सीमा की ‘दीवार तोड़ देंगे’ का संकल्प जोर-जोर से दोहराते रहते हैं. जब-जब बलिदानी मुद्रा में राहुल गांधी इस तरह की कोई बात एकदम जोश में बोलते हैं तो अक्सर लास्ट में एक बात जरूर बोलते हैं, ‘आपको जो करना है कर लीजिए.’ अब, यह राजनीति का मैदान है तो जिसको जो करना है कर ही रहा है. भाजपा भी कर रही है. भाजपा को लगा कि ‘युद्ध युद्ध’ के इस घटाटोप कोलाहल में लोगों के माथा को थोड़ा घुमाने के लिए कुछ ऐसा करना चाहिए कि सच में सब का माथा घूमने ही लग जाये.
तब कोई कसर नहीं छोड़ते
लो जी, घूम गया सबका माथा. विमर्श के बिंदु ही बदल गये. जब जनगणना होगी तो जाति गणना भी देख लेंगे, फिलहाल तो सांस लेने का वक्त मिला थोड़ा. अब बिहार उत्तर प्रदेश के चुनावों में ठीक से सांस ले तो सकते हैं वरना यह राहुल, वह अखिलेश, उधर तेजस्वी आदि भाजपा को पिछड़ा-अति पिछड़ा विरोधी साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते. माकूल जवाब देना मुश्किल हो जाता. राहुल गांधी भी क्या करें. तमाम पैंतरे आजमा लिये. भाजपा की पिच पर भी खेल आये. कभी माथे पर त्रिपुंड लगाये मंदिर-मंदिर घूमे, कभी चंदन लगा कर पंडे-पुरोहितों के साथ फोटो खिंचा आये. कभी किसी मूर्ति के आगे आंखें मूंदे, हाथ जोड़े भक्तिभाव में डूबते-उतराते नजर आये. राम के बरक्स शिव को खड़ा करके अपने को बहुत बड़ा वाला शिवभक्त घोषित किया, यहां तक कि उजलत में आकर एक दिन घोषणा कर ही दी, ‘मै फलां गोत्र का ब्राह्मण हूं’.
मुकाबला नरेन्द्र मोदी से है
लेकिन, मुकाबला मोदी से है जो ऐसे नाटकों में पता नहीं कहां से पीजी डिप्लोमा करके आये हैं. कभी किसी गुफा में बाकायदा समाधिस्थ नजर आते हैं, कभी किसी मंदिर के आगे गहरे लाल चोगे में एकदम भारी वाले साधू बने दिखते हैं, मामला अगर बंगाल से जुड़ा हो तो बाकायदा रवीन्द्रनाथ टाइप लंबा चोंगा पहने, बहुत मोटी-मोटी किताबें थामें निहायत ही दार्शनिक मुद्रा में नजर आते है. नाटकों की इस प्रतियोगिता में जीत बड़े नटकिया की ही हो जाती है तो राहुल गांधी करें भी तो क्या करें. जिस दिन से हिन्दी पट्टी के पंडी जी लोगों ने कांग्रेस से मुंह मोड़ लिया उसी दिन से कांग्रेस के बुरे दिन शुरू हो गये. इधर, दलित मतदाता अपने-अपने कुनबों की राजनीति में सिमटते गये. उधर, भाजपा को बढ़ते और कांग्रेस को घटते देख मुसलमान लोग लालू, मुलायम जैसों के पीछे आते गये. ब्राह्मण, दलित, मुसलमान… हिन्दी पट्टी में यही लोग तो कांग्रेस के वोट बैंक के मूलाधार थे. ये तीनों अलग-अलग छिटक गये, कांग्रेस चारों खाने चित्त हो गयी. कभी नेहरू वंश हिन्दी पट्टी के ब्राह्मणों का कंठहार था. राजीव गांधी की हत्या और सोनिया गांधी के एकांतवास, बिहार यूपी में मंडल शक्तियों के उभार और नरसिंह राव की कांग्रेस द्वारा यूपी बिहार में उस दौर की बाजीगरी ने ब्राह्मणों को कांग्रेस से विमुख किया. इधर, ‘अबकी बारी अटल बिहारी’ का नारा लगाती भाजपा इन राज्यों में लालू-मुलायम के बरक्स खड़ी होती गयी, ब्राह्मण इधर आते गये.

ब्राह्मणों के कंठहार थे वाजपेयी
अटल बिहारी वाजपेयी अब ब्राह्मणों के कंठहार थे. हिन्दी पट्टी के जिन ब्राह्मणों ने इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की दुर्भाग्यपूर्ण मौत के बाद शोक मनाते हुए श्राद्धकर्म का आयोजन किया था, बड़ी संख्या में लोगों ने अपना माथा तक छिलाया था, उनके बेटे-भतीजे अब भाजपा का झंडा थामे नजर आने लगे थे. सीताराम केसरी जैसों के हाथों में कांग्रेस की कमान और लालू आदि से केसरी के ‘भर घुटना’ ने रही सही कसर पूरी कर दी. राजनीति में सोनिया गांधी के आगमन और 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी के पराभव में आंशिक रूप से ही सही, सवर्णों के एक हिस्से की भूमिका थी. दस वर्ष कांग्रेस ने राज भी किया. फिर, कार्पाेरेट का खेल शुरू हुआ, अन्ना हजारे प्रकट हुए, उन्हें जबर्दस्ती ‘नयी सदी का गांधी’ बना कर सुसज्जित मंच पर भूखा रहने को डाल दिया गया और आधुनिक भारत के इतिहास का सबसे बड़ा फ्रॉड रचा गया. राजनीति की एक से एक बिसात बिछायी गयी. बहरहाल, अन्ना हजारे अपने गांव सिधारे और रंगमंच पर नरेन्द्र मोदी प्रकट हुए और, क्या खूब प्रकट हुए. हिन्दी पट्टी का सवर्ण ‘फिर से’ देश को विश्व गुरु बनाने और हिंदू को जगाने के लिए नरेन्द्र मोदी के साथ ऐसा लगा कि फेविकोल भी शर्मा जाये.
मोदी-मोदी-मोदी
यूपीए सरकार के अच्छे कामों को भी अहंकारी और आत्मतुष्ट कांग्रेसियों ने पलीता लगा दिया अपने अगंभीर बयानों और मुद्राओं से. इधर, मोदी जी आये और उनकी सबसे बड़ी सफलता यह रही कि उन्होंने लोगों की सोचने-समझने की शक्ति का हरण कर लिया. तो, यह नया भारत था. मोदी का भारत. नौकरी नहीं, पढ़ाई महंगी, इलाज महंगा, लेकिन, व्हाट्सएप युनिवर्सिटी से सच्चा ज्ञान प्राप्त युवाओं का समूह मोदी की हर सभा में अगली पंक्ति में बैठ कर प्रायोजित तरीके से ‘मोदी…मोदी…मोदी’ की रट लगाने लगा. कांग्रेस के इतिहास के सबसे कमजोर दौर में राहुल गांधी के कंधों पर इसकी बागडोर आयी जिनके सलाहकारों की मंडली की सोंच का न आगा कभी समझ आया न पीछा. जब, कांग्रेसी थिंक टैंक हिन्दी पट्टी के पंडी जी लोगों से तमाम उम्मीदें हार बैठा तो उसने दूसरे दांव लगाने शुरू किये.
राहुल गांधी का ओबीसी राग
अब, कभी मंडल सिफारिशों पर कुंडली मार कर बैठे कांग्रेस ने मंडल पार्ट-2, मंडल पार्ट-3 पर काम करना शुरू कर दिया और राहुल गांधी का ओबीसी राग शुरू हो गया. यह गायन कभी-कभी तो राहुल गांधी के अति उत्साह में बेतुका और बेसुरा भी नजर आया, जब अपने क्षेत्र रायबरेली में जिला प्रशासन की एक मीटिंग से पहले राहुल गांधी ने प्रेस के सामने पूछा, ‘इस मीटिंग में कितने ओबीसी अफसर शामिल हैं?’ उनके सलाहकारों को उन्हें चुपचाप बताना चाहिए था कि सर जी, इतना भी क्रांतिकारी मत बनिये, यह यूपी-बिहार है, यहां ओबीसी अफसरों की कमी नहीं है. फिर, राहुल गांधी ने क्रांति की अगली मशाल थामी, ‘अगर आप सवर्ण नहीं हैं तो आप दोयम दर्जे के नागरिक हैं.’ साहित्य में इसे अतिशयोक्ति अलंकार कहते हैं. यह वक्तव्य राहुल गांधी उस बिहार में दे रहे थे जहां पैंतीस साल से ओबीसी सत्ता में है और दोयम नहीं, तेयम दर्जे के सवर्ण नेतागण नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के आगे-पीछे घूमते हैं. दोयम दर्जे का भी कोई सवर्ण नेता बिहार में नहीं बचा. आगे राहुल गांधी के जीवन काल तक भी कोई ऐसा उभरेगा, इसकी कोई संभावना नहीं है.
अपने दम पर खड़ा होने नहीं देगा
ऊंचे स्वरों में राहुल गांधी का ओबीसी राग यूपी-बिहार के चुनावों में उन्हें सपा, राजद की सहयोगी या पिछलग्गू पार्टी बनाने में जरूर मदद करेगा लेकिन उन्हें कभी अपने दम पर खड़ा होने नहीं देगा. ये पंडी जी लोग ही हैं जो देर सबेर भाजपा से मोहभंग होने के बाद उनकी ओर थोड़ा बहुत झुकना शुरू कर सकते थे. लोग देख रहे हैं कि भाजपा उनके नौजवान बेटों, भतीजों के हाथ में नियुक्ति पत्र की जगह भगवा झंडा, तलवार आदि थमा रही है, उनके मस्तिष्क को प्रदूषित कर रही है. आज थोड़ा बहुत सही, कल कुछ और अधिक लोगों की आत्मा झकझोरती कि आखिर यह देश, यह समाज किधर जा रहा है. वे आत्ममंथन की मुद्रा में देर सबेर आते कि कांग्रेस की विचारधारा ही राष्ट्रीय आंदोलन और नेहरू गांधी की विचारधारा के करीब है और इस देश को अंततः यह सोच बचा सकती है. लेकिन, राहुल गांधी का अति उत्साह इस वर्ग से यह विकल्प छीन रहा है. और, लोग चाहे जो कहें, यह एक सच्चाई है कि जब तक हिन्दी पट्टी के सवर्णों का बड़ा हिस्सा कांग्रेस की ओर नहीं झुकेगा, तब तक कांग्रेस उत्तर भारत में फिर से अपना ओज प्राप्त नहीं कर सकती. ओबीसी कभी कांग्रेस का मौलिक समर्थक नहीं रहा और दलित, मुसलमान तब तक इसके पीछे एकजुट हो कर नहीं आयेंगे, चाह कर भी नहीं आ सकते, जब तक कि कांग्रेस उन्हें शक्तिशाली बनने की संभावना के साथ खड़ा नजर न आये.
मामला इतना आसान नहीं
बाकी, आज मोदी जी ने जाति गणना की घोषणा की है. यह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की वैचारिकी को सिर के बल खड़ा करने वाली घोषणा है. इसलिए, मामला इतना आसान नहीं होगा. दलित पिछड़े अगर समझते हैं कि भाजपा और आरएसएस उनके कल्याण का मार्ग प्रशस्त करेगा तो उन्हें फिलहाल समझने देना चाहिए और खुश होकर मोदी-मोदी करने देना चाहिए. मोदी की राजनीति में इतने पेचोखम होते हैं कि कब कितना रायता फैला कर इस गणना को कहां लटपटा दिया जाएगा, कोई नहीं बता सकता.
(लेखक के फेसबुक वॉल से साभार)
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