चिराग पासवान : बर्बादी की ओर जाता है यह रास्ता !

महेश कुमार सिन्हा
4 जून 2025
Patna : नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के नेतृत्व में 2025 का चुनाव लड़ने की सार्वजनिक घोषणा के बावजूद लोजपा-रामविलास (LJP-Ram Vilas) सुप्रीमो चिराग पासवान (Chirag Paswan) की अबूझ राजनीति इन दिनों महत्वाकांक्षाओं के भंवरजाल में उलझी दिख रही है. अबूझ इसलिए कि अपनी राजनीति बिहार पर केन्द्रित रखने की बात करते हुए चिराग पासवान कभी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बड़े हिमायती के रूप में नजर आ जाते हैं तो कभी एनडीए (NDA) में ही उनकी छवि उनके प्रतिद्वंद्वी के तौर पर उभर आती है. खास कर ‘बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट’ के नारे के तहत जब वह ‘बिहार मुझे बुला रहा है… केंद्र की राजनीति में नहीं रहूंगा’ का हुंकार भरते हैं तो एनडीए की राजनीति हिलती महसूस होने लगती है.
साधने लगे हैं जनसुराज के सुर
चिराग पासवान विधानसभा का 2025 का चुनाव लड़ने की बात कहते हैं, तो एनडीए के रणनीतिकारों को सांप सूंघने लग जाता है. यही नहीं चिराग पासवान अब जन सुराज (Jan Suraj) के सुर साधने के साथ-साथ तेजस्वी प्रसाद यादव (Tejashwi Prasad Yadav) से पारिवारिक रिश्ते को भी याद करने लग गये हैं. रहस्य भरे उनके इस राजनीतिक आचरण का निहितार्थ क्या है, यह नहीं कहा जा सकता. पर, सामान्य समझ है कि राजनीति उनकी ‘परिस्थितियों का मुख्यमंत्री’ बनने के ख्वाब के इर्द-गिर्द घूम रही है.
बनना चाहते हैं चौथी शक्ति
ऐसा माना जाता है कि अपने हित में वह वैसी ही स्वर्णिम परिस्थितियों के लिए ब्याकुल हैं जिससे नीतीश कुमार की बीस वर्षीय सत्ता निकली थी. पर, विश्लेषकों का मानना है कि वैसी परिस्थितियां तो शायद नहीं बन पायेंगी, त्रिशंकु विधानसभा से कोई संभावना निकल जाये तो वह अलग बात होगी. इसी आस में चिराग पासवान नपी तुली बात कर रहे हैं. करीब के लोगों की मानें तो बिहार (Bihar) की राजनीति में वह भाजपा (BJP) , राजद (RJD) और जदयू (JDU) के बाद चौथी शक्ति के रूप में स्थापित होना चाहते हैं. ठीक वैसे ही जैसे फरवरी 2005 के चुनाव में तब की लोजपा (LJP) उभर आयी थी.
व्यग्रता की है यह वजह
सत्ता की चाबी रामविलास पासवान (ram vilas paswan) के हाथ में आ गयी थी. बाद के वर्षों में वह चाबी नीतीश कुमार के हाथ लग गयी. संख्या बल में कमजोर रहने के बाद भी बिहार की सत्ता उनकी मर्जी पर टंग गयी. कभी भाजपा तो कभी राजद को सत्ता का स्वाद चखा खुद शीर्ष पर जमे हुए हैं. बिहार की सत्ता राजनीति में चिराग पासवान वैसी ही हैसियत पाने के लिए व्यग्र हैं. संयोगवश सत्ता मिल गयी तो फिर नीतीश कुमार की तरह धर्मनिरपेक्षता की दुहाई दे महागठबंधन (Grand Alliance) और जंगलराज को ढाल बना एनडीए की तरफ सत्ता पलटते रह सकते हैं. सामाजिक समीकरण आधारित समझ यह भी कि नीतीश कुमार जब चार प्रतिशत आधार मत के साथ लम्बे समय तक मुख्यमंत्री (Chief Minister) रह सकते हैं तो फिर तकरीबन सात प्रतिशत मत के समर्थन पर चिराग पासवान मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन सकते हैं.

निराशाजनक हैं आंकड़े
लेकिन, दिक्कत यह है कि लोजपा को फरवरी 2005 के बाद की अपनी चुनावी उपलब्धियों पर नजर डालने पर निराशा ही निराशा दिखती है. फरवरी 2005 में लोजपा के 29 विधायक निर्वाचित हुए थे. तब कांग्रेस (Congress) के साथ उसका गठबंधन था. अक्तूबर 2005 में यह संख्या 10 पर ठहर गयी. 2010 में राजद से चुनावी तालमेल था. विधायकों की संख्या 10 से गिर कर 03 पर आ गयी. 2015 में भाजपा के साथ रहते हुए 02 ही विधायक निर्वाचित हो पाये. 2020 में लोजपा अपने बूते मैदान में उतरी. बड़ी मुश्किल से खाता खुला. दुर्भाग्य यह कि उस इकलौते विधायक को भी जदयू ने अपने पाले में खींच लिया.
‘परिवार फर्स्ट, परिवारी फर्स्ट’
विश्लेषकों की मानें तो इस तथ्य को नजरंदाज कर चिराग पासवान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जैसी हैसियत पाने की मृगतृष्णा में फंस अधिक निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़ने पर अड़ते हैं तो उसे बर्बादी की ही राह बढ़ना माना जायेगा. हालांकि, लोजपा-रामविलास के प्रदेश अध्यक्ष राजू तिवारी (Raju Tiwari) स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि ऐसी कहीं कोई बात नहीं है. वास्तव में ऐसी बात नहीं है तो फिर बिहार विधानसभा का चुनाव लड़ने के पीछे उनका मकसद क्या है? बिहार की जनता के समक्ष उन्हें इसका खुलासा करना चाहिए. सिद्धांत तो वह ‘बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट’ का बघारते हैं, पर आचरण ‘परिवार फर्स्ट, परिवारी फर्स्ट’ जैसा होता है.
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