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अतीत का पन्ना : यही थीं नेहरूजी की आदिवासी पत्नी ?

राजकिशोर सिंह
01 मई 2025
Dhanbad : झारखंड (Jharkhand) राज्य के एक हिस्से को छोड़ बाहर के बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) की एक ‘आदिवासी पत्नी’ भी थी, जो झारखंड की थी. कमला नेहरू (Kamala Nehru) की तरह उनकी उससे विधिवत शादी नहीं हुई थी. आदिवासी समाज (tribal society) में उस कालखंड में काफी गहराई तक जड़ जमा रखे अंधविश्वास (Superstition) और रूढ़िवादिता ने उसे उनकी ‘पत्नी’ की पहचान दे दी. इस पहचान से उस महिला को आत्मिक सुख व संतुष्टि क्या और कितनी मिली यह नहीं कहा जा सकता. पर, निर्वासिता का दंश उसने शिद्दत से झेला. सामान्य लोगों ने भी इसे देखा और महसूस किया.

दकियानूसी परम्परा

उसके साथ ऐसा क्यों, कब और कैसे हुआ. निर्वासन की उसकी जिंदगी कहां और कैसे कटी. इन वर्षों के दौरान उसके साथ क्या सब हुआ. जवाहर लाल नेहरू और उनके वारिसों को इसकी जानकारी थी भी या नहीं. जानकारी थी तो उन सबने इसके हित के लिए क्या किया. उस आदिवासी महिला की अंतिम परिणति क्या हुई. इन और इनसे संबद्ध अन्य अनेक सवालों का जवाब ढूंढ़ने के क्रम में जो तथ्य सामने आये उनमें ताउम्र का दर्द है, तो रोचकता भी कम नहीं है. यह जवाहर लाल नेहरू और आदिवासी महिला के बीच की कोई प्रेम कहानी नहीं है. संताल आदिवासी (Santal tribal) समाज की दकियानूसी परंपरा से जुड़ा अचानक हुआ ऐसा वाकया है, जो सभ्य समाज को शर्म से सिर झुका लेने को बाध्य कर देता है.

इसलिए हुए प्रभावित

मीडिया में जो बातें आती रही हैं उसके मुताबिक इसकी पृष्ठभूमि1952 में बनी. हुआ यह कि धनबाद जिले में दामोदर घाटी निगम (DVC) की ओर से दामोदर नदी पर बनाये जा रहे पंचेत बांध के निर्माण के क्रम में उक्त महिला की खेती वाली पुश्तैनी जमीन डूब क्षेत्र में चली गयी. उसकी आय का एकमात्र स्रोत वही जमीन थी. इसके अलावा और कुछ नहीं था. रोटी के लाले पड़ गये तब मजबूरन बांध निर्माण में वह मजदूरी करने लगी. वैसे, इससे संबंधित एक और कहानी है. 1952 में पंचेत बांध (Panchet Bandh) का निर्माण शुरू हुआ तो कोई भी मजदूर काम करने के लिए तैयार नहीं हुआ. रावण मांझी (Ravana Manjhi) को साथ कर वह महिला निर्माण के काम से जुड़ गयी. फिर दूसरे मजदूर भी काम करने लग गये. निर्धारित समय पर बांध का निर्माण पूरा हो गया.

अतुलनीय योगदान

05 दिसम्बर 1959 को पंचेत बांध और वहां स्थापित दामोदर घाटी निगम के जल विद्युत संयंत्र (Hydro power plant) का उद्घाटन हुआ. इस शुभ कार्य के लिए तब के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पंचेत आये थे. डीवीसी प्रबंधन ने आदिवासी परंपरा के अनुरूप उनके स्वागत के लिए संताली आदिवासी रावण मांझी एवं अन्य कुछ के साथ इस महिला को भी चुना था. बांध निर्माण में इस महिला के अतुलनीय योगदान की जानकारी प्रधानमंत्री को भी थी. उनकी इच्छा हुई कि पंचेत बांध का उद्घाटन किसी मजदूर के हाथों हो. अवसर उस महिला को मिल गया. समस्त संताल समाज (Santal community) के लिए यह गौरव की बात थी.

अभिशाप बन गयी वह माला

पर, उस महिला की जिंदगी उसी दिन से बदरंग हो गयी. हुआ यह कि अपने स्वागत के दरम्यान जवाहर लाल नेहरू ने सम्मान में पहनायी गयी फूलों की माला खुद के गले से उतार उस महिला के गले में डाल दी और बांध का उद्घाटन भी उसी से करवा दिया. संभवतः वह भारत की पहली महिला मजदूर थी जिसके हाथों किसी परियोजना का उद्घाटन हुआ था. प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की इस महानता की खूब प्रशंसा हुई, प्रमुख अखबारों के मुख पृष्ठ की सुर्खियां मिलीं. परन्तु, यही माला उक्त आदिवासी महिला के लिए अभिशाप बन गयी, जिंदगी का अकल्पनीय असहनीय दर्द बन गयी.

सामाजिक बहिष्कार

वह महिला बुधनी मंझियाइन (Budhni Manjhiyain) थी जो संताल आदिवासी समाज से आती थी. धनबाद जिले के खोरबोना गांव की रहने वाली थी. वाकये के वक्त वह महज 16 साल की थी. संताल समाज में सदियों से परंपरा बनी हुई है कि कोई पुरुष इस समाज की किसी महिला या लड़की को माला पहना देता है तो शादी मान उसे उसकी पत्नी की मान्यता दे दी जाती है. लेकिन, समाज के बाहर के व्यक्ति के साथ ऐसा होता है तो महिला को जाति और गांव से निर्वासित कर दिया जाता है. यानी उसका सामाजिक बहिष्कार हो जाता है.

गुनाह किया नहीं और…

बुधनी मंझियाइन को जवाहर लाल नेहरू द्वारा माला पहनाये जाने को संताल आदिवासी समाज ने ‘शादी’ करार दिया. यहां तक तो झेल लेने वाली बात थी. पर, समाज से बाहर के गैर आदिवासी से शादी करने के सामाजिक जुर्म में उसेे समाज से बहिष्कृत कर दिये जाने के रूप में सामाजिक अन्याय किया गया. हद यह कि अपने ही गांव में प्रवेश भी प्रतिबंधित कर दिया गया. लानत है ऐसी सामाजिक व्यवस्था पर कि जो गुनाह उसने किया नहीं, समाज ने उसकी सजा उसे दे दी.

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