सवाल हिन्दी के सम्मान का
अविनाश चन्द्र मिश्र
13 सितम्बर, 2021
Patna. सरसरी तौर पर बात सामान्य लगेगी, पर गौर से देखने और समझने पर ऐसा अवश्य महसूस होगा कि यह उचित नहीं है. बड़ी साजिश के तहत हिन्दी के सम्मान के साथ खिलवाड़ हुआ है. इस खिलवाड़ के पीछे संबद्ध शातिरदिमागी की मंशा कुछ और भी झलक रही है. मामला जयप्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा से जुड़ा है. इस विश्वविद्यालय ने हाल में स्नातकोत्तर राजनीति शास्त्र के पाठ्यक्रम से समाजवादी विचारक डा. राममनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश नारायण के विचारों वाले अध्याय को निकाल दिया. साथ में राजाराम मोहन राय, दयानन्द सरस्वती, बाल गंगाधर तिलक और क्रांतिकारी मनीन्द्रनाथ राय के विचारों को भी. उनकी जगह दीनदयाल उपाध्याय, सुभाष चन्द्र बोस और ज्योतिबा फूले के विचारों को शामिल किया गया. बदलाव का यह निर्णय अभी का नहीं है, लालजी टंडन जब राज्यपाल थे, तभी नये पाठ्यक्रम के लिए उन्होंने विशेषज्ञों की समिति बनायी थी. संभवतः उसी की सिफारिश के अनुरूप ऐसा हुआ. हाल में खबर सार्वजनिक हुई. राजनीति का पारा चढ़ गया. छात्रों की मुट्ठियां लहरा उठीं. यह सब स्वाभाविक था. बिहार की राजनीति को हांक रहे डाॉ राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के तथाकथित शिष्यों के लिए ये विचार भले बेमतलब के हो गये हैं, छात्रों को तो उन्हें आत्मसात करना ही चाहिए! पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे आचरहिं ते नर न घनेरे. डा. राममनोहर लोहिया का अपना महत्व है, सारण की जिस भूमि पर विश्वविद्यालय है वह जयप्रकाश नारायण की जन्मभूमि है. जन्मभूमि में ऐसे अवांछित व अशोभनीय व्यवहार पर राज्य सरकार का शिक्षा विभाग बिफर उठा. शिक्षा मंत्री विजय कुमार चौधरी ने बगैर उच्च माध्यमिक शिक्षा परिषद की सहमति से पाठ्यक्रम में फेरबदल पर कड़ी आपत्ति जतायी. कुलपति प्रोॉ फारुख अली और कुलसचिव डाॉ रविप्रकाश बबलू तलब किये गये. राजभवन, शिक्षा विभाग और विश्वविद्यालय सबने इसे बड़ी चूक मानी. इसके परिमार्जन पर सहमति बन गयी. डा. राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण आदि के विचार पूर्ववत स्नातकोत्तर राजनीति शास्त्र के पाठ्यक्रम में समाविष्ट हो जायेंगे. काश, ये विचार उनके राजनीतिक शिष्यों के दिल और दिमाग में भी जगह बना पाते! अब मूल विषय की बात. जयप्रकाश विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा की गयी हिन्दी की उपेक्षा की बात. डा. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के नाम उनके शिष्यों की राजनीति के मंत्र हैं. उनसे जुड़े मामले पर त्वरित क्रिया-प्रतिक्रिया हुई. हिन्दी से राजनीति को क्या मतलब! विश्वविद्यालय प्रशासन की यह ‘करतूत’ असंख्य आंखों के सामने से गुजरी. किसी का ध्यान नहीं गया. गया भी तो नजरंदाज कर दिया. सीवान जिले के महाराजगंज थाना क्षेत्र के जगदीशपुर निवासी राजन कुमार खुद को रोक नहीं पाये. हिन्दी के साथ हुए इस असम्मानजनक व्यवहार को उन्होंने पत्र के जरिये राज्यपाल-सह-कुलाधिपति के समक्ष रख दिया है. निर्णय राज्यपाल को करना है. पर, व्यवस्था के वर्तमान अराजक हालात में निर्णय की उम्मीद बेमानी है. का पर करूं सिंगार…! कुछ लोगों को यह बकवास दिख सकता है. अपनी-अपनी समझ है, सोच है. लेकिन, जिनमें हिन्दी के प्रति श्रद्धा और सम्मान है, उनकी भावना को इससे चोट जरूर पहुंची है. जयप्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा ने अपने मुख्य प्रवेश द्वार पर विश्वविद्यालय का नाम तीन भाषाओं में अंकित किया है. पहले यह नाम सिर्फ अंग्रेजी में अंकित था. वह भी अनुचित था. उसे हिन्दी में होना चाहिए था. देर से सुधार हुआ भी तो हिन्दी को किनारे कर दिया गया. मोटे अक्षरों में अंग्रेजी अपनी जगह प्रतिष्ठित रही. छोटे हरफों में ही सही आगे उर्दू विराजमान हो गयी और वैसे ही छोटे शब्दों में हिन्दी को पीछे डाल दिया गया. उर्दू बिहार की द्वितीय राजभाषा है. उस अनुरूप सम्मान मिलना चाहिए. पर, हिन्दी के सीने पर अंग्रेजी को बैठा देना किसी भी दृष्टि से मुनासिब नहीं है. अंग्रेजी की जगह मोटे अक्षरों में हिन्दी रहनी चाहिए. हिन्दी से कोई खास स्वार्थ जुड़ा नहीं है इसलिए इस मामले में सत्ता और सियासत स्पंदनहीन है. हिन्दी की बात करने पर खतरा भाषाई वोट बिगड़ जाने का भी है. ऐसे में जयप्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा में हिन्दी की प्रतिष्ठापना की जनाकांक्षा की पूर्ति के लिए पहल वोट की राजनीति से मतलब नहीं रखनेवाले राजभवन को करनी चाहिये. पर, अपनी अलग धुन में रमा राजभवन ऐसा शायद ही कर पायेगा. हिन्दी और हिन्दीभाषियों की यही त्रासदी है.