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जाति आधारित गणना : 33 वर्ष कम होते हैं क्या?

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बिहार में जाति आधारित गणना का मामला उलझ गया-सा दिखता है. उससे संबंधित किस्तवार आलेख की यह छठी कड़ी है :


महेन्द्र दयाल श्रीवास्तव
10 मई 2023

PATNA : जाति आधारित गणना के संदर्भ में गौर करने वाली बात यह है कि 1931 के बाद जनगणना (Census) के जातीय आंकड़े सार्वजनिक नहीं किये गये. 1941 की जनगणना द्वितीय विश्व युद्ध की भेंट चढ़ गयी. स्वतंत्र भारत (India) में 1952 में हुई प्रथम जनगणना में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति को छोड़ अन्य जातियों की गणना की जरूरत नहीं समझी गयी. बाद में वह परंपरा बन गयी. तकरीबन 50 साल बाद ‘सामाजिक न्याय’ के चटकदार आवरण में समाजवादी परछाई वाली जातिवादी राजनीति (Politics) को मजबूती मिली तब जातीय जनगणना (Cast Census) का मुद्दा उठा. 1996 में केन्द्र की तब की एचडी देवगौड़ा (H. D. Deve Gowda) की सरकार ने बी पी मंडल आयोग (B P Mandal Ayog) की सिफारिशों के आलोक में जाति की राजनीति करने वाले सहयोगी नेताओं के दबाव पर 2001 की जनगणना में जाति के आंकड़े संग्रहित करने का निर्णय किया. पर, 2001 से पहले सत्ता में आ गयी अटल बिहारी वाजपेयी (Atat Bihari Vajpayee) की राजग सरकार ने उस फैसले को पलट दिया.

तब घिग्घी क्यों बंध गयी?
हैरानी यह जानकर होगी कि जातीय जनगणना के लिए वर्तमान में आसमान सिर पर उठा रखे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) भी उस सरकार का हिस्सा थे. यानी जातीय जनगणना नहीं कराने का निर्णय करने वाले केन्द्रीय मंत्रिमंडल (Union Cabinet) में शामिल थे. सिर्फ वही नहीं, दिवंगत लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान (Rambilash Paswan) और पूर्व केन्द्रीय मंत्री शरद यादव (Sharad Yadav) भी. लोग जानना अवश्य चाहेंगे कि उस निर्णय के वक्त इन सबकी घिग्घी क्यों बंधी रह गयी थी? आगे देखिये, 10 साल बाद यह मुद्दा फिर उठा. 2011 की जनगणना से पहले 2010 में लोकसभा (Lok Sabha) में जातीय जनगणना पर बड़ी बहस हुई. कांग्रेस (Congress) और भाजपा (BJP) समेत सभी दलों की इस पर सहमति कायम हो गयी. लेकिन, तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) की सरकार ने उस सहमति को नकार 2011 की जनगणना में जातीय आंकड़ों को शामिल नहीं करने का निर्णय किया. इस रूप में जातीय जनगणना का एक और अवसर खत्म हो गया.

राहुल गांधी के समक्ष नीतीश कुमार.

कांग्रेस की दोरंगी नीति
मनमोहन सिंह की कांग्रेसनीत सरकार संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की थी. लालू प्रसाद (Lalu Prasad) की पार्टी राजद (RJD) उस गठबंधन का हिस्सा था. मनमोहन सिंह की सरकार ने इतना अवश्य किया कि उस समय गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों (बीपीएल) की संख्या जानने के लिए हो रहे सर्वे में जाति को शामिल कर दिया. पर, 04 हजार 800 करोड़ खर्च होने के बाद भी सामाजिक आर्थिक जातीय जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक करने से परहेज किया. यह राजनीति का बेहयापन नहीं, तो क्या है कि आज उसी कांग्रेस के अघोषित सुप्रीमो राहुल गांधी (Rahul Gandhi) जाति आधारित राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दलों का चरित्र अपना जातीय जनगणना कराने की मांग तो उठा ही रहे हैं, 2011-12 के सामाजिक आर्थिक जातीय जनगणना के आंकड़े जारी करने पर भी जोर देे रहे हैं. इतना ही नहीं, 50 प्रतिशत की सीमा हटा आबादी के अनुपात में आरक्षण देने की बात करने लगे हैं. इसे लोग कांग्रेस की दोरंगी नीति नहीं, तो और क्या समझेंगे? 2015 में कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया (Siddaramaiah) ने कर्नाटक (Karnataka) में जातीय जनगणना करायी, पर उसके आंकड़े आमलोगों के बीच परोसने का साहस नहीं जुटा पाये. आखिर, ऐसा क्यों? करोड़ों खर्च कर जातीय आंकड़े जुटाये गये तो फिर उन्हें सार्वजनिक क्यों नहीं किया गया?

जोखिम भरा है यह काम
निश्चय ही देश और समाज को नुकसान पहुंचाने वाला कोई बड़ा कारण रहा होगा. विश्लेषकों-चिंतकों की समझ में जातीय जनगणना राजनीतिक (Political) रूप से जोखिम भरा काम है. क्षेत्रीय दलों के लिए यह जनाधार आधारित जरूरत हो सकती है, भाजपा और कांग्रेस के लिए नहीं. इन दोनों राजनीतिक दलों ने वर्षों से अपने लिए एक सामाजिक समीकरण और संतुलन बना रखा है. जातीय जनगणना के आंकड़ों से पता चल गया कि कुछ जातियों की आर्थिक संपन्नता और शिक्षा सरीखे अन्य संसाधनों में हिस्सेदारी बहुत ज्यादा है और कुछ जातियां पूरी तरह से वंचित-उपेक्षित हैं, तो इस पर सामाजिक प्रतिक्रिया से राजनीति प्रभावित हो सकती है. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि जातीय जनगणना के आंकड़े आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग को मुखरता प्रदान कर दे सकते हैं. साथ ही कुछ जातियों की आरक्षण की दावेदारी को पुख्ता बना दे सकते हैं. सरकार के लिए इन मांगों से जूझना व समाधान निकालना आसान नहीं होगा.


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गिन देने से कल्याण हो जायेगा?
नीतीश कुमार को जाति आधारित गणना कराने से पहले पूर्व की जातीय जनगणना के आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं किये जाने के कारणों की तह में जा यह जान और समझ लेना चाहिये था कि ऐसा क्यों नहीं हुआ? शायद उन्होंने इसकी जरूरत नहीं समझी. उनका कहना रहा कि पूर्व में जो हुआ सो हुआ, वह जाति आधारित गणना के आंकड़े सार्वजनिक करेंगे. तमाम राजनीतिक दलों को भी उपलब्ध करायेंगे. उनका मकसद वंचित-उपेक्षित लोगों को आगे बढ़ाना है. जो पिछड़ गये हैं, उन्हें बराबर का अवसर उपलब्ध कराना है. जातीय आंकड़े सार्वजनिक करने पर संवैधानिक मनाही है. ऐसे में वैसा शायद ही कर पायेंगे वह. जहां तक पिछड़ गये लोगों को अवसर उपलब्ध कराने की बात है, तो चिंतन, मनन और मंथन इस पर भी होना चाहिये कि जिन्हें अवसर उपलब्ध कराने की बात की जा रही है, उनकी चिंता आजादी के 75 साल बीत जाने के बाद क्यों हो रही है? पहले क्यों नहीं हुई?

क्या कुछ किया?
विचारणीय मुद्दा यह भी है कि 18 वर्षों से नीतीश कुमार खुद सत्ता में हैं. खैरात बांटने के अलावा ऐसे तबकों के उत्थान के लिए उन्होंने क्या कुछ विशेष किया? बड़ा सवाल (Question) यह भी है कि संख्या गिन देने भर से विकास हो जायेगा क्या? बिहार (Bihar) में 33 वर्षों से ‘पिछड़ों की सरकार’ है. 15 वर्षों तक लालू-राबड़ी (Lalu-Rabri) का शासन रहा. 18 वर्षों से सत्ता की कमान नीतीश कुमार के हाथ में है. साथ में सरकारी खजाना भी है. हालात बदलने के लिए 33 वर्ष कम होते हैं क्या? इन वर्षों में बदहाली मिटाने के लिए नियोजित व समन्वित विकास हुए होते तो सर्वाधिक लाभ किन सामाजिक समूहों को मिलता? दरअसल, इन नेताओं के लिए जाति राजनीति चमकाने-जमाने का जरिया मात्र है. जाति के लोगों के विकास से कोई खास मतलब नहीं रहता है.

घुल जाती है जातीय भावनाओं में
राज्य में पिछड़ों की आबादी 52 प्रतिशत अनुमानित है. गैर सवर्ण जातियों की लगभग 80 प्रतिशत. जाहिर है कि विकास का ज्यादा लाभ इन्हीं जातियों को मिलता. परन्तु, सड़कों की सूरत संवारने और सरकारी भवनों के निर्माण एवं पुनर्निर्माण के अलावा और कुछ हुआ क्या? लालू-राबड़ी शासनकाल में तो यह सब भी नहीं हुआ था. इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि पिछड़ा-अतिपिछड़ा वर्ग के लोगों की ओर से इस पर कभी कोई सवाल नहीं उठाया जाता. बल्कि प्रतिसवाल ही खड़ा कर दिया जाता है कि इन 33 वर्षों से पहले क्या हुआ था? प्रतिसवाल इसलिए कि इन वर्गों का हित-अहित सवर्ण विरोधी मानसिकता में घुल गया है. यूं कहें कि घोल दिया गया है. यही मुख्य वजह है कि ‘पिछड़ों की सरकार’ की तमाम नाकामियां जातीय भावनाओं में घुल जाती हैं.

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