नीतीश कुमार: क्या हासिल होगा तब?
अविनाश चन्द्र मिश्र
13 जनवरी 2025
बढ़ी उम्र का असर हो या किसी गंभीर बीमारी का, नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की याददाश्त कमजोर हो गयी है. उनकी कथित मानसिक दुर्बलता से जो दो-चार अत्यंत करीबी लोग आपादमस्तक लाभान्वित हो रहे हैं वे इससे इत्तेफाक नहीं रखते हैं. फिजूल की बात बताते हैं. दुनिया की यही रीति है. पर, हकीकत यह है कि शासन-प्रशासन की बात अपनी जगह है, नीतीश कुमार का खुद पर भी नियंत्रण नहीं रह गया है. उनकी इस बेचारगी पर शिष्टाचार का आवरण भले डाल दिया जाता हो, जिस ढंग से वह कभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) तो कभी मातहत अधिकारी और छुटभैये नेता तक के चरण स्पर्श को झुक जाते हैं उससे यह खुद-ब-खुद प्रमाणित हो जाता है कि शारीरिक स्थिति उनकी दुरुस्त नहीं हैं. इसके बाद भी वह बिहार की सत्ता की राजनीति के लिए अपरिहार्य ही नहीं हैं, उसकी धुरी बने हुए हैं तो इसकी खास वजह है.
असंभव है गठबंधन
राजद (RJD) अध्यक्ष लालू प्रसाद (Lalu Prasad) की सामाजिक न्याय की राजनीति के ‘अवसान’ के बाद बिहार में जो सामाजिक-राजनीतिक बदलाव आया उसमें तकरीबन बीस वर्षों से सत्ता नीतीश कुमार की मर्जी से घूम रही है. यह स्थापित सच है कि राज्य में भाजपा (BJP), राजद और जदयू (JDU) के रूप में तीन बड़ी राजनीतिक ताकतें हैं. इनमें से दो के मिलन पर ही सत्ता की मीनार खड़ी हो सकती है. भाजपा और जदयू तथा राजद और जदयू के मिलन पर अलग-अलग सत्ता की मीनार खड़ी हुई भी है. भाजपा और जदयू वर्तमान में सरकार चला रहे हैं. भाजपा और राजद की राजनीति (Poltics) की धारा एक दूसरे के सर्वथा विपरीत है. ऐसे में इनमें गठबंधन असंभव है.
सुस्पष्ट नीति-रणनीति नहीं
जदयू के सर्वेसर्वा नीतीश कुमार की राजनीति की कोई सुविचारित धारा ही नहीं है. ‘जिधर देखे खीर उधर गये फिर !’ इस लोकोक्ति को व्याख्यायित करने की शायद जरूरत नहीं है. इसे बेसिर पैर की बात नहीं कहा जा सकता है. इसलिए कि अपनी राजनीति की इस विद्रूपता को उन्होंने कई बार चरित्रार्थ किया है. उनके रणनीतिकार और सलाहकार दावा जो करें, डींगें जो हांकें, यह सामान्य समझ की बात है कि नीतीश कुमार की अपनी कोई सुस्पष्ट नीति-रणनीति और विचारधारा होती, तो ‘सुशासन बाबू’ (Sushasan Babu) की पहचान अविश्वसनीय राजनीतिक चरित्र वाले ‘पलटू राम’ (Palturam) में परिवर्तित नहीं हो जाती. इस आधार पर यह कहा जाये कि राजनीति में उनकी एकमात्र नीति-रणनीति येन केन प्रकारेण सत्ता में बने रहना है, तो यह कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. गठबंधन से अलगाव और फिर जुड़ाव उनकी फितरत है. यही वह बड़ा कारण है जिससे उनके एनडीए (NDA) छोड़ने की नयी कयासबाजी को हवा मिलती रहती है.
संभावनाओं का खेल
पर, बड़ा सवाल यहां यह है कि अभी के राजनीतिक हालात में एनडीए छोड़ देने से उन्हें हासिल क्या होगा? वर्तमान दौर में अनिश्चितताओं का पर्याय मानी जाने वाली राजनीति के संदर्भ में एक ‘जुमला’ खूब प्रचलित है. यह संभावनाओं का खेल है. हां और ना के बीच अक्सर अप्रत्याशित खेल हो जाता है. नीतीश कुमार की राजनीति को लेकर ऐसा ही कुछ होता दिख रहा है. याद कीजिये, 2024 के संसदीय चुनाव में एनडीए के अभियान की शुरुआत नीतीश कुमार की स्वतःस्फूर्त ‘क्षमा याचना’ से हुई थी. पूरी दुनिया ने देखा कि नीतीश कुमार ने कैसे एक सभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चरणों में झुक कर पश्चाताप किया था- ‘भाजपा से संबंध नब्बे के दशक से है. बिहार में जितने भी अच्छे कार्य हुए हैं, वे हमारे किये हुए हैं. हमसे पहले जो सत्ता में थे, उन्होंने कुछ नहीं किया. दो बार उनके साथ जाना मेरी गलती थी. लेकिन, अब मैं वैसी गलती नहीं दोहराना चाहता. मैं यहीं रहूंगा. ताउम्र भाजपा के साथ रहूंगा.’
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हर सभा में दुहराया
इस आत्मग्लानि का इजहार उन्होंने सिर्फ उसी सभा में नहीं किया, पूरे चुनाव अभियान के दौरान प्रायः हर सभा में इसे दुहराया. चुनाव के बाद भी क्रम बना ही हुआ है. बिहार में कहीं कोई राजनीतिक कार्यक्रम हो या सरकारी आयोजन, एचएमवी रिकार्ड की तरह यह राग बजता है. इधर, एनडीए छोड़ने के फिर से उठे सियासी शोर के बीच 26 दिसम्बर 2024 को मां जानकी (Maa Janaki) की पावन भूमि सीतामढ़ी (Sitamarhi) में उन्होंने यह राग अलापा. इसके बाद भी पलटी मारने की आशंका गहराई हुई है तो उसकी पृष्ठभूमि में उनका वह बयान है जिसमें उन्होंने ‘मिट्टी में मिल जायेंगे, पर भाजपा के साथ कभी नहीं जायेंगे’ वाले राग में गाया था. उस राग का क्या हुआ, दुहराने की जरूरत नहीं.
तेजस्वी की संभावनाएं
यह सब तो है, परन्तु अभी यह कहना जल्दीबाजी होगी कि नीतीश कुमार एनडीए छोड़ कर महागठबंधन का हिस्सा बनने जा रहे हैं. वैसे, महागठबंधन में उन्हें मिलेगा क्या? तेजस्वी प्रसाद यादव (Tejashwi Prasad Yadav) अपनी संभावनाएं उनके चरणों में समर्पित कर देंगे? ऐसी अपरिपक्वता वह शायद ही दिखायेंगे. फिर नीतीश कुमार महागठबंधन की ओर रूख क्यों करेंगे? ‘नीतीश हैं सबके फेवरेट, मतलब एनडीए के भी और महागठबंधन के भी फेवरेट. जिधर नीतीश उधर बिहार’ का जुमला जदयू 2025 के विधानसभा चुनाव (Assembly Elections) में बड़े भाई की हैसियत पाने के ख्याल से उछाल रहा है. इसके अलावा इसका कोई मतलब नहीं है. तब भी इस तथ्य को स्मरण में रखना होगा कि राजनीति संभावनाओं का खेल है!
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