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बिहार में बदलाव चाहती है भाजपा

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विशेष प्रतिनिधि
27 अगस्त 2021

नयी दिल्ली. भाजपा नेतृत्व ने 2020 में जिस किसी भी दबाव या रणनीति के तहत बिहार में उपमुख्यमंत्री पद को लेकर हैरत भरा प्रयोग किया, आठ – सवा आठ माह में ही वह उसके गले की हड्डी बन गया है. राजनीतिक गलियारे में तब यह चर्चा खूब हुई थी कि नीतीश कुमार के असहनीय दीर्घकालिक नखरा पर अंकुश और सुशील कुमार मोदी के कद को छोटा करने के मकसद से ऐसा किया गया था. वजह जो रही हो, उसकी वह सियासी चाल सुशील कुमार मोदी के ‘बौना विकल्प’ के कारण असफल होती दिख रही है. इस असफलता की चर्चा छुटभैये नेताओं तक ही सिमटी नहीं है. ऐसा माना जाता है कि पार्टी के रणनीतिकारों की चिंता का यह गंभीर मुद्दा भी बना हुआ है. ऐसी कि इस चूक के परिमार्जन पर उच्च स्तरीय गहन चिंतन-मनन तक होने लग गया है. संगठन महामंत्री के पद से नागेन्द्र जी की रुखसती और उपमुख्यमंत्री तारकिशोर प्रसाद के खिलाफ जद(यू) के बड़बोले विधायक गोपाल मंडल की घोर आपत्तिजनक टिप्पणी पर भाजपा नेतृत्व के नरम रुख को इस नजरिये से ही देखा जा रहा है. पर, बिहार राजग में बड़ी मशक्कत से ‘बड़े भाई’ की हैसियत में आने के हर्षातिरेक में लिये गये इस निर्णय को पलटना-बदलना यहां के राजनीतिक-सामाजिक समीकरणों के मद्देनजर बहुत आसान नहीं है. दिक्कत यह भी है कि जो विकल्प बचे हैं, वे सब भी कमोबेश इसी तरह के नेतृत्व क्षमता विहीन लिजलिजे से हैं. अपवाद है भी तो सवर्ण समाज में, जो वर्तमान राजनीति को ग्राह्य नहीं है. भाजपा की यही वह बड़ी त्रासदी है जिसने बिहार में उसकी स्वतंत्र सत्ता के मार्ग को अवरुद्ध कर रखा है. इसको इस रूप में आसानी से समझा जा सकता है. यहां की जातिवाद आधारित राजनीति में कितना भी काबिल क्यों न हो, सत्ता शीर्ष पर सवर्ण की स्वीकार्यता फिलहाल सीमित है. सवर्ण विरोधी गोलबंदी ऐसी कि दूर-दूर तक इसके नेतृत्व पर सहमति कायम होने की कोई संभावना नहीं दिखती है. इस दृष्टि से सत्ता और सियासत का नेतृत्व किसी सवर्ण को सौंपने का जोखिम कोई भी राजनीतिक दल नहीं उठाना चाहता, भाजपा भी नहीं.

(शेष कल)

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