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करना होता है खुद का श्राद्ध : तब मिलते हैं भस्म, भगवा और रूद्राक्ष!

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सचमुच रहस्यमयी जिंदगी होती है नागा संन्यासियों की. इनको लेकर सबसे बड़े आम जिज्ञासा यह होती है कि कुंभ के दौरान बड़ी संख्या में अवतरित होने वाले नागा साधु सामान्य दिनों में कहां और कैसे रहते हैं. तापमान लाइव ने इस पर शोध किया है. प्रस्तुत है किस्तवार संबंधित आलेख की तीसरी कड़ी:

महर्षि अनिल शास्त्री
10 जनवरी 2025

ब्रह्मचर्य (Brahmachary) पालन की परीक्षा से सफलतापूर्वक गुजर जाने के बाद ब्रह्मचारी से महापुरुष बनाया जाता है. तब उसके पांच गुरु (Guru) बनाये जाते हैं. वे पांच गुरु पंचदेव या पंच परमेश्वर-शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश-होते हैं. उन्हें भस्म, भगवा, रूद्राक्ष आदि चीजें दी जाती हैं. ये नागाओं के प्रतीक और आभूषण होते हैं. महापुरुष के बाद नागाओं को अवधूत बनाया जाता है. इसमें पहले उसे अपने बाल कटवाने होते हैं. अवधूत के रूप में दीक्षा लेने वाले को खुद का श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान करना होता है. पिंडदान अखाड़े के पुरोहित करवाते हैं. इस कर्मकांड के बाद वे संसार व परिवार के लिए मृत हो जाते हैं. यानी माया-मोह से मुक्त हो जाते हैं. तब उन्हें गुरु द्वारा नया नाम और नयी पहचान दी जाती है. उनका एक ही उद्देश्य होता है सनातन (Sanatan) और वैदिक धर्म (Vaidik Dharm) की रक्षा.

सेवाभाव होना भी आवश्यक है
ब्रह्मचर्य के साथ ही दीक्षा लेने वाले के मन में सेवा भाव होना भी आवश्यक है. यह माना जाता है कि जो भी साधु बन रहा है, वह धर्म, राष्ट्र और मानव समाज की सेवा और रक्षा के लिए बन रहा है. ऐसे में कई बार दीक्षा (Diksha) लेने वाले साधु (Saint) को अपने गुरु और वरिष्ठ साधुओं की सेवा भी करनी पड़ती है. दीक्षा के समय ब्रह्मचारियों की अवस्था प्रायः 17-18 से कम की नहीं रहा करती और वे ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण के ही हुआ करते हैं. लिंग भंग, जिसे तंग-तोड़ विधि भी कहते हैं, की प्रक्रिया के लिए 24 घंटे नग्न रूप में अखाड़े के ध्वज के नीचे बिना कुछ खाये-पीये ठंडे पानी में गले तक डूबे रह खड़ा होना पड़ता है. उस दौरान कंधे पर दंड और हाथों में मिट्टी का बर्त्तन होता है. अखाड़े के पहरेदार उस पर सतर्क नजर रखते हैं.

निष्क्रिय कर दिया जाता है लिंग को
24 घंटे के बाद अखाड़े के साधु, जो उसके गुरु होते हैं, के द्वारा आंख से आंख मिलाकर उसकी शक्ति की परीक्षा ली जाती है और इसी बीच वैदिक मंत्रों के साथ झटके देकर उसके लिंग को निष्क्रिय कर दिया जाता है. यह काम भी अखाड़े के ध्वज के नीचे होता है. इस दौरान अखाड़े के महंत और उनके शिष्यों के अलावा वहां कोई और नहीं होता है. इस प्रक्रिया के बाद वह नागा साधु (Naga Sadhu) बन जाता है. उज्जैन (ujjain) में सिंहस्थ महाकुंभ (Mahakumbh) मेले में शैव संप्रदाय के नये नागा संन्यासियों को दीक्षा दत्त अखाड़ा घाट पर दी जाती है. नये संन्यासियों को हरिद्वार (Haridwar) , इलाहाबाद (Allahabad) कुंभ और उज्जैन सिंहस्थ मेले में ही दीक्षा देने की परंपरा है. अखाड़ों में संन्यास लेने की इच्छा व्यक्त करने वाले व्यक्तियों को विधि-विधान से दक्ष किया जाता है. इसके बाद वे संन्यास परंपरा में शामिल होते हैं.


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दिगम्बर अवस्था में रहते हैं नागा संन्यासी
नागा संन्यासी बनने की विधि गोपनीय होती है. प्रकट रूप में केवल नदी तट पर नये संन्यासियों को तर्पण, मार्जन और स्वयं का पिंडदान (Pindadan) करने की विधि से करायी जाती है. इसके बाद आचार्य महामंडलेश्वर (Acharya Mahamandaleshwar) उन्हें गुप्त रूप से दीक्षा देते हैं. दीक्षा के बाद वे दिगंबर अवस्था में रहते हैं तथा संन्यास परंपरा का पालन करते हैं. नागा साधुओं के कई पद होते हैं. एक बार नागा साधु बनने के बाद उसके पद और अधिकार भी बढ़ते जाते हैं. नागा साधु महंत, श्रीमहंत, जमातिया महंत, थानापति महंत, पीर महंत, दिगंबरश्री, महामंडलेश्वर और आचार्य महामंडलेश्वर जैसे पदों तक जा सकता है.

(यह आस्था और विश्वास की बात है. मानना और न मानना आप पर निर्भर है.)

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