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उड़ाते हैं खूब नीला धुआं : नासिक में खिचड़िया नागा, महाकालेश्वर में…!

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सचमुच रहस्यमयी जिंदगी होती है नागा संन्यासियों की. इनको लेकर सबसे बड़े आम जिज्ञासा यह होती है कि कुंभ के दौरान बड़ी संख्या में अवतरित होने वाले नागा साधु सामान्य दिनों में कहां और कैसे रहते हैं. तापमान लाइव ने इस पर शोध किया है. प्रस्तुत है किस्तवार संबंधित आलेख की दूसरी कड़ी :

महर्षि अनिल शास्त्री
9 जनवरी 2025

नागा साधु (Naga Sadhu) शैव और वैष्णव दोनों सम्प्रदायों में होते हैं. शैव सम्प्रदाय में नागा साधुओं को आमतौर पर चार श्रेणियों में बांटा गया है. बर्फानी नागा (Barphani Naga), राजेश्वरी नागा (Rajeshwari Naga) , खूनी नागा (khooni Naga) और खिचड़िया नागा (Khicharia Naga). इसी आधार पर उनके रूप व पहचान होने की बात कही जाती है. हिमालय (Himalaya) की तराई या अन्य बर्फीली (Barphili) जगहों पर तप करने और दीक्षा लेने वाले साधुओं को बर्फानी नागा कहा जाता है. राजेश्वरी नागा उन्हें कहा जाता है जिनकी प्रकृति आम साधुओं से कुछ भिन्न होती है. मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) के उज्जैन (ujjain) स्थित महाकालेश्वर (Mahakaleshwar) ज्योतिर्लिंग में दीक्षा लेने वाले संन्यासियों को खूनी नागा और महाराष्ट्र (Maharashtra) के नासिक (Nashik) में दीक्षा लेने वालों को खिचड़िया नागा कहा जाता है. नागा साधु मांस-मदिरा से दूर रहते हैं, पर अधिकतर गांजे का नीला धुआं जरूर उड़ाते हैं. कहा जाता है कि ऐसा अपनी काम वासना पर नियंत्रण रखने के लिए करते हैं.

शास्त्र व शस्त्र दोनों की शिक्षा-दीक्षा
वैष्णव सम्प्रदाय में भी वैरागी परम्परा रही है. जानकारी के मुताबिक 18 अखाड़ों में सात मुख्य हैं. नौ निर्मोही अखाड़े के अंतर्गत सात निर्वाणी व दो दिगंबर अखाड़े हैं. ऐसी मान्यता है कि हिन्दू संस्कृति व सनातन धर्म (Sanatan Dharma) की रक्षा के लिए नागा पद्धति अपनायी गयी थी. उसी के तहत नागा साधुओं को शास्त्र व शस्त्र दोनों की शिक्षा-दीक्षा दी जाती है. आम समझ है कि नागा साधु बनना आसान है. पर, यह आसान नहीं, बहुत कठिन है. इसके लिए कठोर नियम- कायदों व अनुशासन का पालन करना पड़ता है. मुश्किल भरी इतनी परीक्षाओं व प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है कि सामान्य आदमी के लिए यह काफी दुरुह है. जानकार बताते हैं कि नागाओं को सेना के कमांडो से भी अधिक सख्त प्रशिक्षण देकर तैयार किया जाता है. उन्हें धर्मरक्षक और योद्धा कहा जाता है.


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हर अखाड़े के हैं अपने-अपने नियम
पौराणिक काल में मठ-मंदिरों व धार्मिक संस्थाओं की रक्षा के लिए उन्हें योद्धा की तरह तैयार किया जाता था. नागा साधुओं ने तब कई लड़ाइयां भी लड़ी थी. इससे स्पष्ट है कि उन्हें आम आदमी से अलग और विशेष बनना होता है. फलतः इस चुनौती भरी बेहद कठिन प्रक्रिया में सालों लग जाते हैं. इस दौरान उन्हें कई कर्मकांड करने पड़ते हैं. दीक्षा लेने से पूर्व खुद का पिंडदान और श्राद्ध-तर्पण करना पड़ता है. उनके लिंग को वैदिक मंत्रों के बीच झटके देकर निष्क्रिय कर दिया जाता है. नागा साधु बनने के इच्छुक व्यक्ति को कभी सीधे अखाड़े में शामिल नहीं किया जाता, अचानक दीक्षा नहीं दी जाती. वैसे तो आम आदमी को नागा साधु के रूप में दीक्षित करने के हर अखाड़े के अपने-अपने नियम व कायदे होते हैं, लेकिन कुछ कायदे ऐसे भी होते हैं जो सभी दसनामी अखाड़ों में समान रूप से लागू होते हैं.

ली जाती है ब्रह्मचर्य की परीक्षा
अखाड़ा सर्वप्रथम अपने स्तर से तहकीकात करता है कि दीक्षा के लिए दस्तक देनेवाला व्यक्ति साधु क्यों बनना चाहता है? उस व्यक्ति की तथा उसके परिवार की संपूर्ण पृष्ठभूमि क्या है? अखाड़े को उसकी पात्रता की बाबत संतुष्टि मिलने पर ही प्रवेश की अनुमति मिलती है. अखाड़े में प्रवेश के बाद उसके ब्रह्मचर्य की परीक्षा ली जाती है. स्वयं पर नियंत्रण की स्थिति को परखा जाता है. लम्बे समय तक ब्रह्मचर्य का पालन कराया जाता है. सिर्फ दैहिक ब्रह्मचर्य ही नहीं, मानसिक नियंत्रण को भी देखा जाता है. आमतौर पर इसमें 6 से 12 साल तक लग जाते हैं. अखाड़ा और गुरु द्वारा दीक्षा के लायक वासना और इच्छाओं से मुक्त होने का प्रमाण-पत्र देने के बाद ही उसे अगली प्रक्रिया में ले जाया जाता है.

(यह आस्था और विश्वास की बात है. मानना और न मानना आप पर निर्भर है.)

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