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रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ : विस्मृत विभूतियों के प्रति गौरव बोध

बिहार के जिन प्रतिष्ठित साहित्यकारों की सिद्धि और प्रसिद्धि को लोग भूल गये हैं उन्हें पुनर्प्रतिष्ठित करने का यह एक प्रयास है. विशेषकर उन साहित्यकारों, जिनके अवदान पर उपेक्षा की परतें जम गयी हैं. चिंता न सरकार को है, न समाज को और न उनके वंशजों को. इस बार नाटकों से नाट्य साहित्य को गौरवान्वित करने वाले रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ की स्मृति के साथ समाज और सरकार के स्तर से जो व्यवहार हो रहा है, उस पर दृष्टि डाली जा रही है. आलेख की यह तीसरी कड़ी है.

अश्विनी कुमार आलोक
11 अप्रैल 2025
रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ (Rameshwar Singh ‘Natwar’) का जन्म 31दिसंबर1934 को गया (Gaya) जिले के खिजरसराय (Khijarsarai) प्रखंड अवस्थित चिरैली गांव में हुआ था. उनके पिता सुंदर सिंह किसान (Farmer) थे, मां बालो देवी गृहिणी थीं. पत्नी का नाम चंद्रकला देवी था. इनके छह पुत्र हुए. अनिल कुमार जयंत, विष्णुकांत प्रदीप, चंद्रकांत मणि, शशिकांत शिवेन्दु, मुरली मनोहर और कृष्णकांत दांगी. रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ ने विशारद और साहित्यभूषण की शैक्षिक उपाधियां प्राप्त की थीं. इनकी नाट्य-कृतियां ‘गढ़ मंडला’, ‘स्वर्ग किन्नरी’, ‘चिता, सुहागिन’ ‘कला’, ‘विकास’, ‘कलाकार’, ‘कर्नाटकी’, ‘ज्योतिकला’, ‘चित्तौड़ विजय मगध सुंदरी’ और ‘विराय की पद्मनी’ थीं. कविता संग्रह ‘एक फूल तीन खुशबू’ और ‘तरंग’ भी प्रकाशित हुए. उपन्यास ‘मानिनी एवं विविध विधाओं की पुस्तक ‘रमेश रश्मि’ भी प्रकाशित है.

अनेक विधाओं को समृद्ध किया
एकांकी ‘बालक का शौर्य’, ‘पैगाम, ‘राष्ट्रधर्म की ओर’ और ‘उदयन सब कुछ भूल गये’ ने भी एकांकी नाटकों के क्षेत्र में बिहार (Bihar) के साहित्य-लेखन में अपना उल्लेखनीय प्रतिनिधित्व किया. ‘याद की विभूति’ और ‘राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह (Raja Radhikaraman Prasad Singh) से भेंट उनके स्मरण आलेख हैं. विश्व भारती के गुरुदेव ‘प्रेमलीला में तुलसी’ उनके निबंध हैं. साहित्य में नाटक-लेखक के लिए जाने गये रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ अनेक विधाओं को समृद्ध किया. उनकी पहली कहानी ‘मधुर स्नेह’ 15 अक्तूबर 1951 को प्रकाशित हुई थी. ‘गढ़ मंडला’ उनका पहला नाटक था, लेकिन, प्रकाशित नाटक के रूप में पहला नाटक ‘स्वर्ग किन्नरी’ (1953) रहा.

स्वाभिमान को झुकने नहीं दिया
रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ की रचनाओं में इतिहास की विस्मृत हो रही विभूतियों के प्रति गौरव बोध मिलता है. उन्होंने भारतीय परंपरा, संस्कृति और समाजिक मर्यादा के उत्थान के लिए जो रचनाएं की, उनके पीछे तत्कालीन समाज के विकास, सुरक्षा और अभिव्यक्तियों का विस्तृत आधार प्रबल हो रहा था. ‘गढ़ मंडला’ (Garh Mandla) में भारत के स्वाभिमान का समर्थ यशगान है. जब भारत पर अकबर (Akbar) की कुटनीतिक जीत के आगे भारतीय शासक हाथ खड़े कर रहे थे, तब भी ‘गढ़ मंडला’ के स्वाभिमान ने स्वाभिमान को झुकने नहीं दिया. उन्होंने ‘गढ़ मंडला’ की मनस्वी वीरांगना और उसकी प्रसस्त देशभक्ति का अपने नाटक में आदर और उत्थान किया.


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कुशल रंगमंच निदेशक
रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ के नाटक ‘कर्नाटकी’ पर हरिवंश राय बच्चन (Harivanshrai Bachchan) का मत था कि भारत की ऐतिहासिक परिस्थितियों पर लिखे गये अनेक नाटकों में ‘कर्नाटकी’ लेखक की सफल कृति है. आचार्य शिवपूजन सहाय (Acharya Shiv Pujan Sahay) ने लिखा था- ऐसा अनुमान होता है कि परमात्मा ने ‘नटवर’ नाम को सार्थक की योग्यता-प्रतिभा भी उन्हें दी है. डा. दीनानाथ शरण (Dr. Dina Nath Sharan) का मत उल्लेखनीय है-‘नटवर’ हिन्दी के वर्तमान नाटक-साहित्य में एक साथ शक्तिशाली नाटककार और कुशल रंगमंच निदेशक का ऐसा पर्याय है, जिसे जॉन गेल्सवर्दी भी कह सकते हैं और जार्ज बर्नार्ड शॉ भी. नाटक रूप में इतिहास की युगानुकूल अभिव्यंजना सामर्थ्य नाटककार ‘नटवर’ की ऐसी गरिमा है, जो उसे वर्तमान हिन्दी नाटकों में निश्चय ही अक्षय महत्व प्रदान करती है.

स्वयं प्रकाशन करा लिया
रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ की रचना ‘कर्नाटकी’ एवं ‘पैगाम’ का प्रसारण आकाशवाणी (Akashavani) केन्द्रों से अनेक बार हुआ. उनकी रचनाएं बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से प्रकाशित हुईं. उन्हें राज्य के सभी सरकारी संस्थानों के पुस्तकालयों (libraries) एवं शिक्षा विभाग (Education department) के लिए अनुशंसित किया गया. उन्होंने अपने समय में प्रायः समस्त रचनाओं का स्वयं प्रकाशन करा लिया था. बिहार राष्ट्रभाषा परिषद (Rashtrabhaasha Parishad) के सहयोग के अतिरिक्त उनके निजी प्रयासों ने भी प्रकाशन को गति दी थी. परंतु, निरंतर लिखने वाले रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ की मृत्यु ऐसे समय में हो गयी, जब उन्होंने लिखना बंद नहीं किया था.

प्रकाशन की प्रतीक्षा में
ऐसे में यह स्वाभाविक है कि अनेक पांडुलिपियां (Pandulipiyan) अब भी प्रकाशन की प्रतीक्षा में पड़ी होंगी. जिस प्रकार उनके सबसे छोटे पुत्र कृष्णकांत दांगी (Krishnakant Dangi) ने मुझे उनकी कुछ पांडुलिपियां दिखायी थीं, राजभाषा विभाग (Rajabhasha Vibhag) के पास प्रकाशन निवेदन को लेकर आये थे, उससे मेरे मन में ऐसे अनेक सवाल संपुष्ट हुए. मैंने पटना (Patna) से ट्रेन पकड़ ली. गया जानेवाले रास्ते में बेला (Bella) स्टेशन मिला. कृष्णकांत दांगी के कहे अनुसार यहां उतरकर बस पकड़ ली. बस खिजरसराय लेकर आयी. बस से उतरने के बाद चार किलोमीटर ऑटो रिक्शा से तय करना था. यह चिरैली (Chirally) गांव था.

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