रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ : छात्र जीवन में ही बन गये थे लेखक
बिहार के जिन प्रतिष्ठित साहित्यकारों की सिद्धि और प्रसिद्धि को लोग भूल गये हैं उन्हें पुनर्प्रतिष्ठित करने का यह एक प्रयास है. विशेषकर उन साहित्यकारों, जिनके अवदान पर उपेक्षा की परतें जम गयी हैं. चिंता न सरकार को है, न समाज को और न उनके वंशजों को. इस बार नाटकों से नाट्य साहित्य को गौरवान्वित करने वाले रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ की स्मृति के साथ समाज और सरकार के स्तर से जो व्यवहार हो रहा है, उस पर दृष्टि डाली जा रही है. आलेख की यह दूसरी कड़ी है.
अश्विनी कुमार आलोक
10 अप्रैल 2025
रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ (Rameshwar Singh ‘Natwar’) ने अपने समय में अपने लिखे हुए नाटकों से नाट्य साहित्य को न सिर्फ गौरवान्वित किया था, बल्कि नाटकों को साहित्य से अलग समझनेवाले साहित्य-आलोचकों को भी अपनी मान्यताएं परिवर्तित करने पर मजबूर किया था. रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ की रचनाओं एवं प्रतिभा का लोहा राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’(Ramdhari Singh ‘Dinkar’) , आचार्य शिवपूजन सहाय (Acharya Shiv Pujan Sahay) , आरसी प्रसाद सिंह (RC Prasad Singh) , गोपीनाथ तिवारी (Gopinath Tiwari) , मोहनलाल महतो वियोगी (Mohanlal Mahato Viyogi) , राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह (Raja Radhikaraman Prasad Singh) आदि ने माना था. डा. हरिवंश राय बच्चन (Dr. Harivansh Rai Bachchan) से उनका मित्रवत संबंध था. हिन्दी साहित्य में नाटक (Drama) का लेखन प्रयोजनमूलक रहा है. अर्थात मंचीय अपेक्षाओं के अनुरूप नाटक लिखे गये.
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लोकमंचों से मिली प्रेरणा
देश के बड़े साहित्यकार यदि मंचीय अपेक्षाओं से अनभिज्ञ रहे, तो उनके नाटक साहित्य की विधा में पठनीय भले माने गये, उनमें मंचन के गुणों का अभाव रहा. भारतेन्दु हरिश्चंद्र (Bharatendu Harichandra) के नाटक पठनीय और मंचनीय दोनों रहे. परंतु, जयशंकर प्रसाद (Jaishankar Prasad) के नाटकों की भाषाई दुरुहता एवं संवाद के आकार की असहजता ने मंचीय प्रभावों के लिए अनुपयुक्तता की स्थिति पैदा की. उनके नाटकों को मंच की सहजता एवं सामाजिक संप्रेषणीयता देते-देते मोहन राकेश (Mohan Rakesh) जैसे लोग नाटककार बन गये. लोकमंचों की ऐसी ही प्रेरणा ने रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ को नाट्य-लेखक बनाया था. वह सामाजिक कार्यों एवं सांस्कृतिक आयोजनों की परंपरा से जुड़े हुए थे.
प्रेरक प्रस्तुतियां
गांव में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी (Shrikrshn Janmashtami) एवं रामनवमी (Ram Navami) के त्योहारों की परंपरा थी. इस अवसर पर आयोजन की प्रेरक प्रस्तुतियां होती थीं. रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ के लिखे हुए नाटकों का मंचन इन्हीं लोकमंचों की आवश्यकता थी. उन्हें गांव में लोग नाटकों के लेखक एवं प्रस्तुतकर्ता के रूप में जानने लगे थे. गांव में प्रभातफेरी, महावीर की पूजा, कीर्तन, शस्त्र प्रदर्शन, कुश्ती, लाठी के आश्चर्यकारी खेल, झांकी आदि से संबंधित जो कार्यक्रम होते थे, उनमें नाट्य-आयोजन आवश्यक अंग के रूप में जुड़ गया था.
अनेक सम्मान
रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ ने चिरैली नाट्य परिषद की स्थापना की थी. तत्कालीन प्रखंड विकास पदाधिकारी रामोदार चौधरी ने इस नाट्य परिषद को मंचन से जुड़े हुए अनेक सम्मान भेंट किये थे. इसी मंच से रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ का लिखा हुआ नाटक वर्ष 1958 के तीन मार्च को मंचित किया गया था. इस नाटक का नाम ‘विकास’ था. भारतीय रंगमंच के माध्यम से समाज के उत्थान का प्रयास करनेवाले इस नाटक ने अनेक प्रेरणाएं जगायी थी. रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ अपने विद्यालयी जीवन से ही लेखक बन गये थे. नवीं कक्षा में उन्होंने अनेक रचनाएं की थी. 21 दिसंबर 1951 को बिहार विभूति (Bihar Vibhuti) अनुग्रह नारायण सिंह (Anugrah Narayan Singh) की कुतुलपुर-सभा में रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ ने अभिनंदन पत्र पढ़ा था.
अध्यापन की सेवावृति
1950 में उन्होंने महज सोलह वर्ष की अवस्था में ‘गढ़ मंडला’नाटक लिखा था. कहते हैं, इस नाटक ने हिन्दी साहित्य एवं कला के क्षेत्र में सांस्कृतिक प्रतिष्ठापन के आधार मजबूत किये थे. उन्होंने 10 अक्तूबर 1955 में प्राथमिक विद्यालय, हसुआडीह से अध्यापन की सेवावृत्ति आरंभ की थी. सरकारी विद्यालय के शिक्षक के रूप में वह अनेक विद्यालयों से जुड़े. मध्य विद्यालय, पुरा (टिकारी, गया) (Tikari, Gaya) में वह शिक्षक थे. उन्हीं दिनों उनकी मृत्यु हो गयी थी. उनके एक पुत्र की हत्या हो गयी थी. उसके कुछ ही महीने बाद वह पेड़ पर से गिर पड़े थे और हफ्ते भर बाद 17 अप्रैल 1986 को उनकी मृत्यु हो गयी.
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