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रामेश्वर सिंह ‘नटवर ’: पुत्र के लिए प्रणम्य हैं थातियां

बिहार के जिन प्रतिष्ठित साहित्यकारों की सिद्धि और प्रसिद्धि को लोग भूल गये हैं उन्हें पुनर्प्रतिष्ठित करने का यह एक प्रयास है. विशेषकर उन साहित्यकारों, जिनके अवदान पर उपेक्षा की परतें जम गयी हैं. चिंता न सरकार को है, न समाज को और न उनके वंशजों को. इस बार नाटकों से नाट्य साहित्य को गौरवान्वित करने वाले रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ की स्मृति के साथ समाज और सरकार के स्तर से जो व्यवहार हो रहा है, उस पर दृष्टि डाली जा रही है. आलेख की यह प्रथम कड़ी है.

अश्विनी कुमार आलोक
09 अप्रैल 2025
ठ सालों से भी अधिक का वक्त बीता. दो ग्रामीण युवक बिहार सरकार के राजभाषा विभाग (Rajabhasha vibhag) कार्यालय में उपने पिता की अनरूपी कृतियों के प्रकाशन के विषय में पूछताछ कर रहे थे. कार्यालय के आधिकारिक लोगों के उत्तरों की मैंने व्याख्या की थी, उन्हें समझाया था. समझाया यह था कि बिहार सरकार की पांडुलिपि (Pandulipi) प्रकाशन योजना में किसी दिवंगत साहित्यकार की पांडुलिपि सम्मिलित नहीं की जाती, लेखक को स्वयं अपनी ओर से अपनी पांडुलिपि प्रस्तुत करते हुए आवेदन करना पड़ता है. मैं निजी काम से वहां बैठा था. दोनों युवक निकले, मैं भी निकल गया था. उनकी कुछ और जिज्ञासाएं स्वाभाविक रूप से मेरी ओर बढ़ी थी. मैंने उन्हें संतुष्ट करने की कोशिश की थी. मुझे पता चल गया था कि उन दोनो युवकों में से एक का नाम था कृष्णकांत दांगी (Krishnakant Dangi).

असमय धराधाम से उठ गये
कृष्णकांत दांगी प्रसिद्ध नाटककार, कवि और उपन्यासकार (Natakakar, Kavi Aur Upanyasakar) रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ (Rameshwar Singh ‘Natwar’) के सबसे छोटे पुत्र हैं. वह अपने पिता के फटे-पुराने पन्नों को बार-बार निकाल रहे थे. एक विस्तीर्ण सभ्यता को शोध एवं अपनत्व के आकार में समेटने की तरह. जैसे मेले में अपने माता-पिता से गुम हुए बच्चे अचानक उन्हें आ मिले हों और पांवों से लगकर रो पड़े हों. मैंने रुचि ली. कृष्णकांत दांगी ने अपने पिता की छपी हुई और दुर्लभ पुस्तकों  के चिथड़ों को खड़े-खड़े अपने हाथों पर बिखेर लिया. पुस्तकों पर उस जमाने के बड़े लेखकों ने टिप्पणियां लिखी थीं. नटवर जी बड़ी प्रतिभा थे. असमय धराघाम से गुम हो गये थे. कृष्णकांत दांगी ने मुझे उस दिन बताया था कि उनके साथ उनका मित्र है.


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पता बता दिया
दोनों मित्र मिलकर नटवर जी के गुमशुदा साहित्य की तलाश कर रहे हैं. उन्होंने बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से छपी हुई रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ की कोई किताब मुझे दिखलायी थी. आज मैं याद कर रहा हूं, तो गीतकार हंस कुमार तिवारी (Hans Kumar Tiwari) का नाम याद आ रहा है. हंस कुमार तिवारी उन दिनों बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के निदेशक थे. उस पुस्तक पर उनकी सम्मति भी छपी हुई थी. उस दिन वे दोनों मेरे साथ पटना (Patna) के बेली रोड से ऑटो रिक्शा पर बैठकर कुछ दूर तक आये भी थे. मैंने उनके पूछने पर उन्हें बिहार राष्ट्रभाषा परिषद का पता बता दिया था. कई वर्षों बाद की घटना आज फिर याद आ रही है. फेसबुक  पर मेरे किसी पोस्ट पर कृष्णकांत दांगी ने टिप्पणी की थी. उन्होंने उस टिप्पणी में अपने पिता रामेश्वर सिंह ‘नटवर’ का उल्लेख किया था. मैंने अपना मोबाइल नंबर देकर उनसे दूसरे दिन बातें करने को कहा था.

अभिभूत कर दिया
कृष्णकांत दांगी से फोन पर मेरी बातें हुईं. उन्होंने फोन किया था. इस बात की पुष्टि हो चुकी थी कि कुछ वर्ष पूर्व अपने पिता की थातियों को बचाने के संकल्प के साथ जो युवक इधर- उधर भटक रहा था. कृष्णकांत दांगी वही थे. मैं तो उनका नाम भी भूल गया था. मैंने कृष्णकांत दांगी से कहा था कि अपने पिता के लेखकीय जीवन पर वह मुझे कोई बड़ा-सा आलेख भेजें. लेकिन, कृष्णकांत दांगी स्वयं लेखक नहीं. लेखक न रहते हुए पिता को उनके साहित्य के माध्यम से दुबारा पा लेने की कोशिशों ने मुझे अभिभूत कर दिया था. एक छोटी-सी फोटो फ्रेमिंग की दुकान से अपने परिवार का भरण-पोषण करते हुए पिता के लेखकीय संघर्षों को अपने में समेट लेनेवाले कृष्णकांत दांगी जैसे बेटे साहित्यकारों को प्रायः अलभ्य रहे हैं.

महत्वहीन समझते हैं
साहित्यकार (Sahityakar) बहुधा आर्थिक सम्पन्नताओं के साधन अपने जीवन में महत्वहीन समझते हैं. कहा भी गया है कि सरस्वती (Saraswati) और लक्ष्मी (Laxmi) का वास एक साथ नहीं होता. कोई पूर्वज अपनी परवर्ती पीढ़ी के लिए आर्थिक संपन्नताओं के साधन नहीं छोड़े, तो आज की पीढ़ी के सामने यह एक प्रकार से अपराध की श्रेणी में आता है. परवर्ती पीढ़ियां अपने पूर्वजों की पृष्ठभूमि पर अपनी उम्मीदों की इबारतें गढ़ना चाहती हैं, उनके पास संघर्ष और निजी उद्यमों का बहुत काम्य प्रयास नहीं होता. कृष्णकांत दांगी ऐसे पुत्रों की श्रेणी के अपवाद हैं.

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