वक्फ कानून : किसकी होगी जीत अदालती जंग में ?
एक नजर में
- सर्वोच्च अदालत को है समीक्षा का अधिकार
- अदालत की शरण में गया विरोधी पक्ष
- धार्मिक मामला नहीं मानती सरकार
- ऐसा रुख हो सकता है अदालत का
अविनाश चन्द्र मिश्र
08 अप्रैल 2025
वक्फ बोर्ड कानून (Wakf Board Act) में संशोधन का बहुचर्चित व बहुविवादित मामला संसद (Parliament) में सलट गया. भारी शोर- शराबे के बीच तर्कों – वितर्कों और आरोपों -प्रत्यारोपों के गर्मागर्म ‘आदान-प्रदान’ के साथ वक्फ विधेयक दोनो सदनों -लोकसभा (Lok Sabha) और राज्यसभा (Rajya Sabha) में पारित हो गया. 05 अप्रैल 2025 को राष्ट्रपति (President) की मंजूरी मिल गयी. नया वक्फ कानून अस्तित्व में आ गया. कांग्रेस (Congress) समेत तमाम विपक्षी दलों ने विधेयक को कानून में बदलने से रोकने के लिए खूब दम लगाया. सरकार को संसद में मुंह की खानी पड़ जाये, विधेयक जमींदोज हो जाये, इसके लिए हर उपाय किया. धर्मनिरपेक्षता की दुहाई दे भाजपा (BJP) के सहयोगी नीतीश कुमार (Nitish Kumar) , चंद्रबाबू नायडू (Chandrababu naidu) , चिराग पासवान (Chirag paswan) और जयंत चौधरी (Jayant Chaudhary) को विधेयक के विरोध में खड़ा करने की भरपूर कोशिश की. मुस्लिम संगठनों से चुनाव में बुरे अंजाम भुगतने की धमकी तक दिलवायी गयी. कोई फर्क नहीं पड़ा. एनडीए (NDA) एकजुट रहा.
सड़क पर पछाड़ने की रणनीति
मुस्लिम संगठनों की राष्ट्रपति से लगायी गयी गुहार भी अप्रभावी रह गयी. राष्ट्रपति ने संसद से पारित विधेयक पर हस्ताक्षर कर दिये. लेकिन, नया वक्फ कानून अब भी गैर भाजपा विपक्षी दलों एवं मुस्लिम संगठनों को स्वीकार्य नहीं है. संसद में पछाड़ खाने के बाद वे अदालत की शरण में गये हैं. सरकार को सड़क पर पछाड़ने की रणनीति पर अमल कर रहे हैं. पहले अदालती लड़ाई की बात. विधेयक की वैधता को चुनौती देने वाली कई याचिकाएं सर्वाेच्च अदालत (Supreme Court) में दाखिल हुई हैं. उनमें विधेयक को पूरी तरह से असंवैधानिक बताया गया है. पहली याचिका किशनगंज (Kishanganj) के कांग्रेस सांसद डा. जावेद आजाद (Dr. Javed Azad) की और दूसरी एआईएमआईएम (AIMIM) सुप्रीमो सांसद असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) की है. इन याचिकाओं पर सर्वाेच्च अदालत का रूख क्या होगा, दावे के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता. इसलिए कि दोनों को संविधान प्रदत्त विशेष अधिकार प्राप्त हैं.
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दोनों है शक्तिमान
संविधान के अनुच्छेद 368 (1) के तहत संसद को कानून बनाने और संशोधन करने का अधिकार है तो संविधान के संरक्षक के तौर पर सर्वाेच्च अदालत को उसकी समीक्षा करने का. संविधान के मूल ढांचे के अनुरूप नहीं पाये जाने पर संबद्ध कानून को रद्द कर देने का भी. यह अधिकार उसे संविधान के अनुच्छेद 13 में प्राप्त है. उसमें स्पष्ट कहा गया है कि संविधान विरुद्ध कानून को सर्वाेच्च अदालत निरस्त कर सकती है. हालांकि, संसद द्वारा पारित कानून को रद्द किये जाने के उदाहरण बहुत कम हैं. प्रसंगवश सर्वाेच्च अदालत की उस टिप्पणी का उल्लेख समीचीन है जिसमें कहा गया है कि कानून बनाना संसद की संप्रभुता है. अदालत इसमें दखल नहीं देगी.
काफी मायने रखता है धार्मिक पक्ष
तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ , न्यायाधीश पीएस नरसिम्हा और न्यायाधीश जेबी पारदीवाला की तीन सदस्यीय खंडपीठ की यह टिप्पणी 2023 में एक उम्मीदवार के दो निर्वाचन क्षेत्रों से एक साथ चुनाव लड़ने से संबंधित मामले में आयी थी. मामले को संसद के अधिकार क्षेत्र का बता अदालत ने इस पर रोक लगाने से मना कर दिया था. कतिपय कानूनविदों का मानना है कि वक्फ बोर्ड कानून के मामले में भी सर्वाेच्च अदालत का ऐसा ही कुछ रूख हो सकता है. इसिलिए कि इस कानून में उन्हें संविधान के बुनियादी संरचना सिद्धांत का उल्लंघन होता नहीं दिख रहा है. वैसे, इसका धार्मिक पक्ष काफी मायने रखता है. नया वक्फ कानून धार्मिक मामले से जुड़ा है या नहीं, जुड़ा है तो उससे संविधान का उल्लंघन होता है या नहीं, सर्वाेच्च अदालत इस पर गौर फरमा सकती है.
त्वरित पहल की गुंजाइश नहीं
याचिकाकर्ता मुख्य रूप से संविधान के अनुच्छेद 25, 26, 29 और 30 को आधार बनाये होंगे. अनुच्छेद 25 धार्मिक स्वतंत्रता का, अनुच्छेद 26 धार्मिक संस्थाओं के प्रशासन का और अनुच्छेद 29 व 30 अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का अधिकार प्रदान करते हैं. विपक्ष के नेताओं और मुस्लिम संगठनों का मानना है कि नया कानून धार्मिक स्वतंत्रता को प्रभावित कर सकता है, अल्पसंख्यकों को कमजोर कर सकता है और उनकी संपत्तियों को सरकारी नियंत्रण में ले सकता है. दूसरी तरफ सरकार वक्फ बोर्ड को धार्मिक मामला नहीं मानती है. जो हो, याचिकाओं पर सर्वाेच्च अदालत का रूख क्या होता है, स्वीकार होती हैं या खारिज कर दी जाती हैं, यह जानने – समझने के लिए थोड़ा इंतजार करना होगा, इसलिए कि त्वरित पहल की कोई गुंजाइश नहीं दिखती है.
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