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‘सृजन’ लूट-कथा : शातिर खोपड़ी की काली करतूतों का कोई ओर-छोर नहीं !

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भागलपुर दंगा में मानवीय संवेदनाओं को चिथड़े – चिथड़े रूप में देखने एवं उसके दंश व दर्द को शिद्दत से झेलने वाले चंदेरी गांव को पृष्ठभूमि में रख ‘सृजन’ अस्तित्व में आया. कितना पवित्र उद्देश्य और सामाजिक सोच थी! तभी तो भावनाओं के बहाव में सभी बह गये. राजनीति, नौकरशाही, सरकार…सभी! निस्संदेह इस पवित्रता के पीछे पल रहे पहाड़ सरीखे पाप की भनक इसे रचने वालों के सिवा अन्य किसी को नहीं रही होगी. वर्षोंकी अविरलता के बाद महापाप का घड़ा फूटा तब सब की आंखें फटी की फटी रह गयीं. महाघोटाला रूपी महापाप की सिरजनहार बहुत ही कम पढ़ी – लिखी अभावग्रस्त विधवा मनोरमा देवी थीं. मासूम चेहरा और शातिर दिमाग वाली मनोरमा देवी आखिर कौन थीं? यह जानने की जिज्ञासा हर किसी की होगी. यह भी कि कैसे इस महिला ने ‘सृजन’ की शुरुआत की? कैसे इस संस्था को बुलंदी दिलायी और फिर लूट-खसोट और अय्याशी की गिरफ्त में फंस यह कैसे अधोगति को प्राप्त हो गयी? इन तमाम सवालों का जवाब इस अंतर्कथा में है. संबद्ध आलेख की यह पहली कड़ी है:


शिवकुमार राय
14 अगस्त 2023

Bhagalpur : मनोरमा देवी… ‘सृजन’ की सिरजनहार! बेटी, बहू, पत्नी, मां और फिर ‘दीदी’ के रूप में संघर्ष की जो उनकी कहानी है वह वाकई सीखने और ग्रहण करने लायक है. पारिवारिक दायित्वों से इतर अन्य बातों व मुद्दों को छोड़ दें तो वह असहाय और दबी-कुचली महिलाओं में आत्मबल व आत्मसम्मान जगाने तथा जुबान देने वाली दीदी थीं. इस दीदी के समक्ष अन्य रिश्ते गौण पड़ गये थे. यही वजह थी कि ‘सृजन की दीदी’ अभावग्रस्त बेजुबान महिलाओं में अतिविश्वसनीय हो गयी थीं. उनकी लगनशीलता व कर्मठता का ही परिणाम था कि महिलाओं के सर्वांगीण विकास के मामले में स्वयं सहायता समूह (Self Help Group) और महिला सहकारिता के क्षेत्र में सृजन  (Srijan) ‘आदर्श संस्था’ के रूप में प्रतिष्ठापित हो गया था.

पहाड़ से भी बड़ा पाप!
भागलपुर जिले के अधिकारी और नेता इसे इस रूप में ही जानते-मानते और समझते थे. मनोरमा देवी की प्रशंसा में कभी अघाते नहीं थे, खूब सम्मानित भी करते थे. देश-प्रदेश स्तर पर कई पुरस्कारों से नवाजी गयीं मनोरमा देवी को महिला उत्थान के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए 2008 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी (Sushil Kumar Modi) ने भी सम्मानित किया था. तब गिरिराज सिंह (Giriraj Singh) राज्य के सहकारिता मंत्री थे. कहते हैं कि उन्हीं के सौजन्य से सम्मान समारोह आयोजित हुआ था. इतना ही नहीं, कुछ नेताओं ने पद्मश्री के लिए भी उनके नाम की अनुशंसा की थी. पर, मनोरमा देवी के इस चमकदार आभामंडल के पीछे पहाड़ सरीखा बड़ा पाप पल रहा था.

कौन थीं मनोरमा देवी
इस पाप का आभास किसी को नहीं था. ‘अमानत में ख्यानत’ की तरह सरकारी धन की लूट का लंबा शर्मनाक खेल हो रहा था. कुकर्मों का घड़ा फूटा तो मनोरमा दीदी का विकृत चेहरा सामने आ गया. शुरूआती संघर्ष की उनकी प्रेरणादायक कहानी शातिर खोपड़ी की काली करतूत में बदल गयी. शुक्र है कि अपनी इस फजीहत को देखने के लिए वह धरती पर नहीं रहीं. अब यह जानते हैं कि मनोरमा देवी (Manorama Devi) कौन थीं. वह मिथिलांचल के मधुबनी (Madhubani) जिले के दीप गांव की रहनेवाली थीं. पिता सदानंद दास (कर्ण कायस्थ) पंडौल सूत मिल में कार्यरत थे. होमियोपैथी के चिकित्सक भी थे. आस-पास के गांवों में अच्छी जान-पहचान थी. उनकी बड़ी संतान मनोरमा देवी की शादी 1963 में रांची स्थित लाह अनुसंधान संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डा.अवधेश कुमार (Dr. Awadhesh Kumar) से हुई . लाल साहब के पुत्र डा.अवधेश कुमार भागलपुर जिले के गोपालपुर (नवगछिया) थानान्तर्गत गोसाईं गांव के रहने वाले थे.

जब पति का निधन हो गया…
कृषि विभाग (Krishi Vibhag) के तहत संचालित लाह अनुसंधान संस्थान का नाम अब इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ नेचुरल रेजिन्स एंड गम्स  (Indian Institute of Natural Resins and Gums) हो गया है. लाल साहब कृषि महाविद्यालय, सबौर में प्राध्यापक थे. डा. अवधेश कुमार को लाह अनुसंधान संस्थान में नौकरी शादी के बाद मिली थी. मनोरमा देवी रांची (Ranchi) में उनके साथ रहती थीं. उन्हें तीन पुत्रियां और तीन पुत्र थे. किसी तरह परिवार पल रहा था. 14 नवम्बर 1992 को डा.अवधेश कुमार का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया. कम पढ़ी-लिखी विधवा मनोरमा देवी के लिए बच्चों का परवरिश काफी कठिन था. इसके बावजूद 1993 तक वह रांची में रहीं. फिर, मुसीबतों से उबरने के लिए ससुराल को कर्मस्थली बना लिया.

सिलाई-कढ़ाई व बुनाई
मनोरमा देवी के ससुर लाल साहब सबौर में रहते थे. बच्चों के साथ वह वहीं आ गयीं. बड़ी बेटी की शादी हो गयी थी. तीन पुत्र और दो पुत्रियां साथ थे. सबौर की दो महिलाओं- सुनीता और सरिता के साथ मिलकर किराये के छोटे से कमरे में एक सिलाई मशीन से सिलाई-कढ़ाई-बुनाई का काम शुरू हुआ. सिलाई-कढ़ाई-बुनाई के धंधे की चमक बिखरने लगी तब दायरा भी बढ़ने लगा. पापड़, दनौरी, तिलौड़ी, चरौरी, अचार और फिर सिन्दूर-टिकुली आदि बनाने और बेचने का काम भी होने लगा. ढेर सारी महिलाओं को स्वरोजगार  (Self Employment to Women) मिल गया. कारोबार की संभावनाएं असीमित देख मनोरमा देवी ने 1994 में सृजन महिला विकास सहयोग समिति लि. का गठन किया.


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फिर तो पर लग गये
दो साल बाद 1996 में यह संस्था निबंधक, सहयोग समितियां से निबंधित हो गयी और वह इसकी सचिव बन गयीं. उसके बाद संस्था को पर ऐसे लगे कि वह आकाश में उड़ने लग गयी. धीरे-धीरे संस्थान से छह हजार महिलाएं जुड़ गयीं, छह सौ स्वयं सहायता समूह बनाकर उन्हें स्वरोजगार से जोड़ दिया गया. फिर जलवा ऐसा कि घर-घर जाकर दनौरी-तिलौड़ी और सिन्दूर-टिकुली बेचने वाली मनोरमा देवी ‘सृजन दीदी’ के रूप में ख्यात हो गयीं और उनके दर पर बड़े-बड़े अधिकारी और नेता तक पहुंचने लग गये. ऐसे ही नेताओं और अधिकारियों ने सृजन महिला विकास सहयोग समिति लि. को ‘रोल मॉडल्स’ के रूप में प्रतिष्ठापित करा दिया.

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