कर दिया तू ने कमाल
वीरेन्द्र नारायण झा
2 जुलाई, 2021
किसी ने कुछ ऐसा जरूर किया होगा कि कहना पड़ रहा है, कर दिया तू ने कमाल! हालांकि, कमाल करने वालों की यहां कोई कमी नहीं है, लेकिन जिसका कमाल जल्दी जगजाहिर हो गया, समझो उसने कर दिया कमाल. अब किसी ने हथेली पर दूब जमा दिया या कि किसी मर्द ने किराए की कोख लेकर अपने शरीर से बच्चा पैदा कर लोगों को किलकारी सुना दी… इस तरह का अजब-गजब तो होता ही रहता है भाई साहब. मगर जो नहीं होना चाहिए और हो जाता है, वह हुआ असली कमाल. अब यह नहीं कह बैठियेगा कि प्यार किया नहीं जाता हो जाता है. तो यह भी कमाल हो गया? नहीं. वैसे, अगर नहीं हुआ तो कब तक इंतजार कीजियेगा, हारकर कहीं करना ही पड़ेगा. फिलवक्त प्यार-वार का मेरा कोई इरादा नहीं है. अगर आपका हो तो मौसम भी मेहरबान… और वो भी…! आप जानें और आपका प्यार.
अब हंसी-मजाक छोड़ें और सरकार-सेवक की बात करें. यानी काम की बात करें. कमाल यह नहीं है कि उन्होंने सरकारी सेवक रहते हुए दोनों हाथों से लूटा. सरकारी नौकरी में जो जमकर न लूटे, उसे नौकरी करने का कोई नैतिक अधिकार है ही नहीं साधो. अगर नहीं कर पाता है, तो कोई ऐसी-वैसी चाकरी कर ले बंदा, किसी ने मना तो नहीं कर रखा है और फिर ईमानदारी का तमगा गर्दन से लटकाए फिरे. अब कहने वाला तो यहां तक कह देता है कि कुत्ता जैसा वफादार-ईमानदार आदमी नहीं होता. इसलिए न पालतू कुत्ते के गले में हर वक्त चमड़े का खूबसूरत पट्टा लगा होता और उसके साथ ही एक चमकीली जंजीर लटकी होती है. उधर, गली-मोहल्ले के कुत्ते जो नौकरी नहीं करते, एकदम स्वतंत्र और मनमौजी होते हैं. दिन भर लूट-खसोट कर खाते और मस्त रहते. इन्हें ईमानदारी से क्या काम, किसी की नौकरी तो बजाते नहीं, जो मालिक के प्रति वफादार रहेंगे.
लेकिन यहां की कथा कुछ हटकर है. बंदे ने अपनी औकात भर लूटा या उससे भी बढ़कर, इस पर बाद में देखते हैं. उसने उसी स्टाइल में लूट को अंजाम दिया होगा, जैसे कोई भी सरकारी सेवक देता है और लूट का तय हिस्सा नीचे से ऊपर तक ईमानदारी से छोड़ आता है. यानी लूट का माल आपस में मिल-बांटकर खाने की परंपरा रही है. यह लोक-सम्मत और धर्म-सम्मत भी है, मिलजुलकर खाने से बरकत आती है सो अलग. शायद इसी में कहीं कोई त्रुटि हुई होगी, जिससे सेवक के द्वारा कमाई गई अकूत संपत्ति का पब्लिक के सामने खामखाह खुलासा हो गया. नतीजतन, बेचारे को नाहक एफआईआर के साथ निगरानी अन्वेषण ब्यूरो का सामना करना पड़ा है और अखबार वालों ने तो उन्हें काली कमाई के ‘धनकुबेर’ का खिताब देकर जहां उनका नाम रोशन किया है, वहीं सत्ताधारियों के लिए यह समस्या आन खड़ी हुई है कि इन्हें कौन-सा सरकारी तमगा भेंट किया जाये, क्योंकि सेवक की इस उपलब्धि को सरकार बहादुर से बेहतर और कौन समझ सकता है. तमगा जब मिलेगा तब, अभी हमें यह देखना है कि इसमें कमाल वाली बात क्या हो गयी.
मैंने कई अवकाश प्राप्त सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों से इस प्रश्न पर खुलकर चर्चा की. उनलोगों ने भी दिल खोलकर मेरी जिज्ञासा का स्वागत किया. सबने अपने-अपने अनुभव और ज्ञान से जवाब भी दिया. अगर इनकी बातों को एक साथ मथा जाये, तो सारांश यही निकलेगा कि धरे गए सेवक से कहीं न कहीं भयंकर भूल हुई है. और वह भी हिस्सा के बंटवारे में. एक सा’ब ने तो यहां तक कहा कि अगर शेयर के लेन-देन में किसी प्रकार की छेड़-छाड़ नहीं होती है, तो यूं ही किसी को निगरानी के हवाले कर के फिर उसका सम्मान नहीं किया जाता है. आखिर इस कमाई में जब सबका कुछ न कुछ प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष योगदान होता है और ऊपर वाले भी इससे ‘अनुगृहीत’ होते रहते हैं, तो किसी खास सेवक को बलि का बकरा क्यों बना दिया जाता है? मैंने पूछा था.
उन्होंने पीक की पिचकारी मारते हुए कहा, आप अभी भोले हैं. तैरना तो चाहते हैं पर पानी में उतरने से डरते हैं. देखिए, शाशनिक तेला-बेला के बारे में आपको कुछ भी नहीं पता. बीच-बीच में किसी की कुर्बानी इसलिए दी जाती है कि सरकार की स्वच्छ छवि बनी रहे और फिर उसको सम्मानित इसलिए किया जाता है कि सेवक समाज प्रसन्न रहे. और इन्हीं कार्रवाइयों से तो ‘कमाल’ होता है.
अब इसमें कमाल वाली बात यह है कि बंदा अपनी कुर्बानी को स्थगित कैसे नहीं करवा पाया. मतलब नौकरी की पूर्व ट्रेनिंग उसकी बहुत कमजोर रही होगी. अब तो उसे तमगा देखकर ही संतोष करना पडेगा!