बिहार : बात तो मुख्यमंत्री की भी नहीं मान रहे अफसर!
विशेष संवाददाता
2 जुलाई, 2021
पटना. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. आमतौर पर हर साल जून और दिसम्बर में ‘सामूहिक तबादले’ के दौर में किसी न किसी मंत्री के बागी तेवर दिख ही जाते हैं. ऐसे में समाज कल्याण मंत्री मदन सहनी के इस्तीफे की घोषणा का कोई खास मायने-मतलब नहीं निकलता है.उनका ऐसा रुख समूहिक तबादले के पहले या बाद में दिखता तब उसका राजनीतिक निहितार्थ होता. तब भी उनके इस कदम से इस धारणा को मजबूती जरूर मिलती है कि सत्तारूढ़ जद(यू) की राजनीति में अंदरुनी उथल-पुथल बड़ा आकार ले रहा है. कमजोर किस्म के मंत्रियों को अधिकारियों द्वारा महत्व नहीं दिये जाने की परंपरा बहुत पुरानी है. इसकी शुरुआत कांग्रेस शासनकाल के अंतिम दौर में ही हो गयी थी. लालू-राबड़ी शासनकाल में इसे व्यापक विस्तार मिला. नीतीश कुमार के सुशासन में सत्ता पसंद कुछ नौकरशाहों की तो निरंकुशता ही कायम हो गयी है. मंत्रियों को ही जब तवज्जो नहीं मिल रही है तो फिर नौकरशाही में विधायकों की बिसात क्या है इसे आसानी से समझा जा सकता है. इस प्रकरण में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि नौकरशाह अब जाने-अनजाने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की बात को भी नजरंदाज करने लग गये हैं. मामला थोड़ा पुराना है. यह विशेष पुलिस विधेयक से जुड़ा हुआ है. उसको लेकर नौकरशाहों के बीच जो कुछ हुआ उसमें बात का बतंगड़ हो गया.
अप्रत्यक्ष रूप से मुख्यमंत्री ने स्वीकार कर लिया कि सरकार के बड़े अफसर अब उनकी बात नहीं मानते हैं. शायद इन अफसरों ने भी मान लिया है कि ये अधिक दिनों तक चलने नहीं जा रहे हैं. भाजपा ही किसी दिन गा-बजा के इनकी सरकार का अंत कर देगी. विपक्ष ने दुष्प्रचार कर ऐसा माहौल बनाया, मानों आज पुलिस विधेयक पास हुआ और कल से पुलिस किसी आदमी को बिना वारंट के पकड़ने का अधिकार हासिल कर लेगी. जबकि विशेष विधेयक में सामान्य पुलिस के अधिकार में किसी बढ़ोत्तरी का प्रावधान नहीं है. यह बीएमपी के नाम से मिलिट्री शब्द हटाने के लिए है. क्योंकि विशेष सशस्त्र पुलिस बल के काम का दायरा बढ़ाया जा रहा है, इसलिए उसके अधिकारों में बढ़ोत्तरी की गयी है. कुल मिलाकर केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल को जितने अधिकार पहले से हासिल हैं, वही सब अधिकार विशेष सशस्त्र पुलिस बल को दे दिये गये हैं. मुख्यमंत्री को अफसोस हुआ कि सरकार की ओर से सफाई क्यों नहीं दी गयी. उन्होंने डीजीपी और गृह विभाग के अपर मुख्य सचिव को कहा था कि प्रेस के जरिये लोगों को विधेयक के बारे में सही-सही जानकारी बता दें.
मुख्यमंत्री ने यह नहीं बताया कि दोनों शीर्ष अधिकारियों ने उनकी सलाह या आदेश पर अमल क्यों नहीं किया. सचमुच अगर सरकार का पक्ष मीडिया के जरिये पहले आ गया होता तो इतनी फजीहत और शर्मिंदगी नहीं उठानी पड़ती. खैर, जो होना था, वह हो गया. छवि का जिस स्तर पर नुकसान हुआ, उसकी भरपाई नहीं हो सकती है. लेकिन, यह आखिरी मामला नहीं है कि दो शीर्ष अधिकारियों ने मुख्यमंत्री की सलाह नहीं मानी. उनके लिए गंभीर संकट की स्थिति यह है कि सबसे भरोसेमंद अधिकारी कुमार साहब ने भी पूरे प्रकरण को निहायत हलके ढंग से लिया. कुमार साहब को किसी शुभचिंतक ने व्हाटसएप पर यह सलाह दी कि वह विधेयक पर फैले भ्रम को दूर करने का उपाय करें. जवाब आया कि मामला विधानसभा में है. इसलिए सरकार बाहर में जवाब नहीं दे सकती है. इतना कह कर कुमार साहब ने अपनी डयूटी पूरी कर ली. असल में कुमार साहब के साथ भी पहले वाली बात नहीं रह गयी है. मुख्यमंत्री ने जबसे उनकी बराबरी में दूसरे कुमार साहब को खड़ा किया है, पुराने कुमार साहब को डर होने लगा है. इसी डर के चलते वह चाहते हैं कि मुख्यमंत्री का जितना नुकसान हो, उतना ही अच्छा. कमजोर मुख्यमंत्री अपने दरबारियों की अधिक फिक्र करता है.