मामला बायसी का: धरा रह गया भाजपा का मंसूबा!
अशोक कुमार
2 जुलाई, 2021
पूर्णिया. महादलित उत्पीड़न के इस मामले में न धर्म से जुड़ा कोई मुद्दा है और न जाति से. स्पष्ट रूप से यह सामाजिक दबंगता से संबद्ध भूमि विवाद है. किसी मौरूसी भूमि का नहीं, सरकार की भूमि पर कब्जा जमाने का रगड़ा है. सीमांचल के लिए यह कोई पहला वाकया भी नहीं है. इस तरह के झगड़े अक्सर होते रहते हैं. विवाद गहराता है तो कभी-कभार भारी खून-खराबा भी हो जाता है. जैसा कि वहां हुआ. गौर करनेवाली बात यह कि हिंसा के ऐसे छोटे-बड़े मामलों में पीड़ित-उत्पीड़ित व प्रताड़ित आमतौर पर दलित-महादलित व आदिवासी या फिर अतिपिछड़ा समाज की छोटी-छोटी जातियों के असहाय-निरूपाय लोग ही होते हैं. गणित यह कि जिस किसी भी समुदाय के लोग जहां अधिक संख्या में हैं वहां दबंगता का दमन-चक्र प्रायः उनका ही चलता है. मुस्लिमों की आबादी बहुत बड़ी है इसलिए लफड़ा ज्यादातर उसी समुदाय के लोगों से फंसता है. हालांकि, ऐसे भी अनेक मामले सामने आये हैं, जिनमंें गैर मुस्लिमों ने उन पर कहर ढाये हैं. कहीं-कहीं मुस्लिम समुदाय के लोगों को भी लक्षित किया गया है. पर, ऐसे तमाम मामलों का आधार धार्मिक या जातीय नहीं, अर्थ से जुड़ा सामाजिक वर्चस्व होता है. परन्तु, राजनीति की क्रिया-प्रतिक्रिया में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मूल मुद्दे गौण पड़ जाते हैं, जाति व धर्म घुल जाते हैं. इस प्रकरण में साम्प्रदायिक या जातीय विद्वेष भले नहीं थी, पर यह महादलितों के खिलाफ संगठित हिंसा थी, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. इससे भी नहीं कि इस हिंसा में एक संप्रदाय विशेष के लोगों की सामूहिक संलिप्तता थी.
मामला पूर्णिया जिले के बायसी थाना क्षेत्र के मझवा गांव का है. परमान नदी के किनारे बसा मुस्लिम बहुल यह गांव खपड़ा पंचायत के तहत आता है. वहां अन्य समुदाय के लोग भी बसे हैं. गांव से सटी महादलितों की बस्ती है. मुख्यतः सूप-दौरा बनाने व बेचने वाली बंसखोर बिरादरी के तकरीबन सौ परिवारों की बस्ती. 19 मई 2021 की रात ढलने से पहले तक यह बस्ती आबाद थी. दिन में गहराये भूमि विवाद को लेकर अनहोनी की आशंका जरूर थी, पर रात के अंधेरे में इस कदर कहर टूटने की नहीं. अचानक से उस रात बस्ती पर कथित रूप से संप्रदाय विशेष के उत्पातियों ने बिजलियां गिरा दी. हरवे-हथियारों से लैस ढ़ाई-तीन सौ लोगों ने पूरी बस्ती को तीन तरफ से घेरकर उसे आग के हवाले कर दिया. महादलितों के 13 घर राख के ढेर में तब्दील हो गये. क्षति अनेक घरों को भी हुई. दरिंदगी ऐसी कि जो जहां और जिस हाल में मिला बड़ी बेरहमी से उसे कूच दिया. हैवानियत के इस नंगा नाच में एक दर्जन से अधिक स्त्री-पुरुष घायल हो गये. सेवानिवृत्त चैकीदार नेवालाल राय की मृत्यु हो गयी. अशोक राय की पत्नी लक्ष्मी देवी गंभीर रूप से घायल हो गयी. जख्मी अन्य कई लोग भी हुए. आशा कार्यकत्र्ता उर्मिला देवी भी. महादलित बस्ती के दुलाय राय की मानें, तो हमला सुनियोजित था. मझवा के अलावा डेंगाटोली, सोती टोला, मधुरापुर आदि गांवों के उपद्रवियों ने इसे अंजाम दिया. बताया गया कि नजमूल हाजी, इलियास रिजवी और मोहम्मद साकिब की खतरनाक भूमिका रही. अप्रत्यक्ष रूप से इन सब को बायसी पुलिस का साथ मिला.
यह पूरी तरह स्पष्ट है कि हमला भूमि विवाद को लेकर हुआ. स्थानीय लोगों के मुताबिक परमान नदी की धारा जब कभी मुड़ती है, तो क्षेत्र का भूगोल बदल जाता है. वैसी स्थिति में बासिंदों का ठिकाना भी बदल जाया करता है.1987 से पहले मझवा के अधिकतर लोग कहीं और रहते थे. परमान नदी की बदल गयी धारा ने उन्हें यहां उठा लाया. यहां लोग जैसे-तैसे बस गये थे. कुछ परिवारों को बासगीत की जमीन और कुछ को इन्दिरा आवास मिले हुए थे. परमान नदी के तटबंध और इन लोगों के वास के बीच प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत सड़क बन गयी तब कई महादलित परिवार पीछे की आवंटित जमीन और घरों को छोड़ सड़क के किनारे बस गये. धीरे-धीरे उनकी संख्या बढ़ने लगी और उन सबने सड़क के दोनों किनारे अपना बसेरा बना लिया. जमीन पथ निर्माण विभाग की है, यानी सरकार की. उसी के पीछे मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों की जमीनें हैं. कुछ जमीनें साव परिवारों की भी थी. उन सब ने उसे बेच दिया. बिहार के गांवों में यह प्रचलित मान्यता है कि जिस किसी की जमीन के आगे-पीछे या अगल-बगल सरकारी या गैरमजरुआ जमीन होती है, कब्जा प्रायः उसी का रहता है. इसी प्रचलन के अनुरूप पीछे की जमीन वाले दावा जता रहे हैं.
स्थानीय लोगों के एक तबके का कहना है कि विवाद एक-दो मुस्लिम परिवारों और एक-दो महादलित परिवारों के बीच का है. इसे समुदायों या गांवों से जोड़कर देखना गैरमुनासिब होगा. महादलितों की बस्ती के पीछे जिन मुस्लिमों की जमीन है वे उसकी घेराबंदी कराना चाहते हैं. संभवतः सड़क से जमीन पर बस्ती से होकर जाने का रास्ता भी चाहते हैं. जमीन सरकार की है इसलिए ऐसा अपना हक मानते हैं. महादलित इसका विरोध करते हैं. उन्हें ऐसा करने से रोकते हैं. विवाद व टकराव इसी को लेकर है. 19 मई 2011 को जमीन की घेराबंदी की कोशिश के क्रम में झड़प हुई थी. तनातनी की ऐसी ही स्थिति 2015 में भी पैदा हुई थी. तब राजद के अब्दुस सुबहान इस क्षेत्र के विधायक थे. उनकी भूमिका पर सवाल उठे थे. उस झगड़े के बाद से यह मामला राख के नीचे दबा था. कभी-कभी धुआं उठ जाता था. इधर, 24 अप्रैल 2021 को यह नये सिरे से सुलग उठा. उस दिन भी कुछ महादलित घरों में आग लगा दी गयी थी. आरोपों के मुताबिक बायसी पुलिस ने हमलावरों को अभयदान दे पीड़ितों के खिलाफ ही मुकदमा दर्ज कर दिया था. इससे उन सब का मन बढ़ गया. अमन-चैन पसंद लोगों की समझ है कि 24 अप्रैल के मामले में पुलिस ने निष्पक्षता दिखायी होती, तो 19 मई की रात में महादलित बस्ती में बर्बरता का नंगा नाच नहीं होता. ऐसा कहा जाता है कि पुलिस को प्रभाव में ले एक झटके में पूरी बस्ती को उजाड़ देने की योजना थी. महादलितों के कड़े प्रतिकार के कारण सफल नहीं हो सकी. बस्ती वालों के आरोपों की जद में बायसी के अनुमंडल पुलिस पदाधिकारी मनोज कुमार राम और तत्कालीन थानाध्यक्ष अमित कुमार आये. ऐसा बताया गया कि 19 मई को अमित कुमार अवकाश पर थे. आश्चर्यजनक ढंग से घटना से कुछ ही घंटा पूर्व छुट्टी रद्द कर काम पर आ गये. यह भी उनकी भूमिका को संदिग्ध बनाता है. पूर्णिया के पुलिस अधीक्षक दया शंकर ने उनके इस आचरण को गंभीरता से ले तत्काल प्रभाव से उन्हें निलंबित कर दिया. पर, अनुमंडल पुलिस पदाधिकारी मनोज कुमार राम के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई. बल्कि उन्हीं को जांच का जिम्मा सौंप दिया गया. इस पर सवाल उठे. बस्ती वालों के मुताबिक उस दिन सूचना देने के बावजूद अनुमंडल पुलिस पदाधिकारी ने कोई कार्रवाई नहीं की. ऐसे में उनसे जांच में निष्पक्षता की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
महत्वपूर्ण बात महादलित परिवारों पर संगठित हिंसा के इस मामले में उन सब की रहस्यमयी चुप्पी रही जो अमूमन ऐसे मामलों में आसमान सिर पर उठा सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से इस्तीफा मांग बैठते हैं. लोकतंत्र को खतरे में मानने वाले विपक्षी नेताओं, वामपंथियों, भीम-मीम एकता के झंडाबरदारों, मानवतावादी पत्रकारों- सब ने खामोशी ओढ़ ली. वैसे, यह हैरान करनेवाली कोई बात नहीं है. इसलिए कि यह उनकी रणनीति का हिस्सा है. आमतौर पर इन सब की आवाज धर्म और जाति देखकर उठती है. ताजा मामला उन्नाव का है. पुलिस की कथित पिटाई से एक सब्जी बिक्रेता की मौत के मामले में ईंट से ईंट बजा देने की बात करनेवाले भीम आर्मी चीफ और आजाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चन्द्रशेखर आजाद की बायसी के मझवा महादलित उत्पीड़न पर घिग्घी बंधी रह गयी. सच यह है कि ऐसे मामलों को यह तबका रणनीति के तहत दबाता है, चुप्पी साध लेता है. हमलावरों के दूसरे सम्प्रदाय, खासकर सवर्ण समाज से रहने पर उनका सुर उलट जाता है. घटनास्थल तीर्थस्थल में तब्दील हो जाता है. आंखों में आंसुओं का समंदर उमड़ पड़ता है. राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की ग्राउंड रिपोर्टिंग शुरू हो जाती है. मझवा के मामले में वैसा कुछ नहीं हुआ. क्यों, यह बताने की शायद जरूरत नहीं. इस बीच राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष विजय सांपला ने मामले को गंभीरता से लिया. राज्य सरकार से रिपोर्ट तलब की. राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के उपाध्यक्ष और बनमनखी के भाजपा विधायक कृष्ण कुमार ऋषि ने घटनास्थल का मुआयना किया. महादलित परिवारों पर हमले को अमानवीय बताया.
प्रशासन की विफलता पर बिहार के विपक्ष के नेता बिफरे जरूर, पर उसमें तल्खी कम औपचारिकता का भाव अधिक था. दलित-महादलित की सुरक्षा का सवाल उठा सत्तारूढ़ भाजपा ने भी अपनी रणनीति के अनुरूप राज्य सरकार पर आंखें तरेरी. गौर करने वाली बात यह कि कुछ को छोड़ भाजपा समेत दमखम वाले सभी राजनीतिक दलों ने सर्व साधारण के मन-मिजाज में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष यह स्थापित करने की कोशिश की कि कथित कट्टरपंथी आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के इस इलाके में पांव जमने के कारण भी हालात बदलने लगे हैं. सम्प्रदाय विशेष के एक तबके में कथित रूप से बढ़ी उग्रता से अन्य क्षेत्रों के लिए मिसाल मानी जाने वाली इस क्षेत्र की धर्मनिरपेक्षता और आपसी भाईचारे के खंडित होने का खतरा मंडराने लगा है. हालांकि, तटस्थ समझ में, भविष्य में जो हो, फिलहाल ऐसी कोई बात या शंका-आशंका नहीं है. जमीन के लिए आपसी विवाद में हिंसा के अलावा मझवा महादलित प्रकरण में और कोई गंभीर मुद्दा नहीं है. राजनीतिक दलों द्वारा अपने छितराये कमजोर जनाधार को मजबूत बनाने की कोशिश के तौर पर एआईएमआईएम पर निशाना साधा जा रहा है. महादलित उत्पीड़न का यह मामला बायसी विधानसभा क्षेत्र का है. सीमांचल के जिन पांच विधानसभा क्षेत्रों पर एआईएमआईएम काबिज है उनमें बायसी भी है. रूकनुद्दीन अहमद उसके विधायक हैं. एआईएमआईएम के बिहार प्रदेश अध्यक्ष अख्तरुल ईमान पड़ोस के अमौर विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं. घनी मुस्लिम आबादी (लगभग 75 प्रतिशत) वाले ये दोनों विधानसभा क्षेत्र पूर्णिया जिले में हैं. वैसे, दोनों किशनगंज संसदीय क्षेत्र के तहत आते हैं. कुछ अपवादों को छोड़ इन दोनों क्षेत्रों में कांग्रेेस और राजद की जीत होती रही है. 2015 में बायसी से अब्दुस सुबहान राजद के और अमौर से अब्दुल जलील मस्तान कांग्रेस के विधायक निर्वाचित हुए थे .2020 में भी इन्हीं दोनों को उम्मीदवारी मिली. पर, इन क्षेत्रों में पूरी मजबूती के साथ मैदान में उतरे एआईएमआईएम का मुकाबला नहीं कर पाये. दोनों के दोनों तीसरे स्थान पर अटक गये. मुख्य मुकाबले में राजग के उम्मीदवार रहे. अमौर में जद(यू) के सबा जफर और बायसी में भाजपा के विनोद यादव. सबा जफर एक बार अमौर से विधायक रह चुके हैं. 2010 में भाजपा उम्मीदवार के तौर पर उनकी जीत हुई थी. 2015 में अब्दुल जलील मस्तान से मात खा गये थे. 2020 में राजग में यह सीट जद(यू) के कोटे में गयी. विकल्पहीनता की स्थिति में उसकी उम्मीदवारी सबा जफर को मिल गयी.
बायसी प्रकरण में मुस्लिम समाज के लोगों की संलिप्तता ने भाजपा को अपनी राजनीति चमकाने का अवसर उपलब्ध करा दिया. पार्टी के रणनीतिकारों ने मामले को इस रूप में पेश किया कि आमलोगों को लगा कि साम्प्रदायिक विद्वेष के तहत वहां दलितों पर जुल्म ढाया गया है. प्रदेश भाजपा के कोषाध्यक्ष विधान पार्षद डाॉ दिलीप जायसवाल समेत पूर्णिया और किशनगंज जिलों के कई भाजपा नेता राहत की आड़ में राजनीति जमाने मझवा पहुंच गये. समस्तीपुर जिले के रोसड़ा के भाजपा विधायक वीरेन्द्र कुमार पासवान भी आये. भाजपा के हिन्दूवादी सहयोगी संगठनों ने तिल को तार बनाने का भरदम प्रयास किया. पर, मकसद पूरा नहीं हुआ. विश्लेषकों का मानना है कि मुसलमानों के गढ़ समझे जाने वाले बायसी और अमौर भाजपा के लिए मरूभूमि के समान हैं. वहां उसकी अपनी कोई चमकदार चुनावी संभावना नहीं है. सहयोगी दल जद(यू) की जड़ को मजबूत बनाने और समर्थक सामाजिक समूहों में साख जमाये रखने के लिए उसने कथित रूप से इस पर साम्प्रदायिक रंग चढ़ाने का प्रयास किया. हालांकि, उसकी यह ‘सियासी सदाशयता’ गुड़ खाने और गुलगुला से परहेज करने वाले जद(यू) नेतृत्व को रास नहीं आयी. मुस्लिमों में फिर से साख जमाने की अघोषित राजनीतिक मुहिम में जुटे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस मामले को गंभीरता से लिया. हमलावरों के खिलाफ सख्त कार्रवाई से यह तूल नहीं पकड़ पाया, विधि-व्यवस्था का मामला बनकर रह गया. क्षेत्रीय कांग्रेस सांसद डाॉ जावेद आजाद, एआईएमआईएम के प्रदेश अध्यक्ष विधायक अख्तरुल ईमान तथा क्षेत्रीय विधायक रूकनुद्दीन अहमद ने उत्पीड़ित व प्रताड़ित महादलित परिवारों के आंसू पोंछ कर भाजपा के मंसूबों पर पानी फेर दिया.