बिहार: ऐसे ही निहारती है निर्बल सत्ता!
अविनाश चन्द्र मिश्र
28 अप्रैल, 2023
PATNA : मौत का टापू ही तो है वह. पटना (Patna) से ज्यादा दूर नहीं है. बस, 20-25 किलोमीटर के फासले पर है. राजग (NDA) में ‘कानून का राज’ का दंभ भरने के बाद महागठबंधन (Mahagathbandhan) में ‘जनता राज’ का राग अलाप रहे ‘सरकार’ की नाक के सामने पश्चिम में है यह टापू! पटना के मनेर (Maner) एवं बिहटा (Bihta) और भोजपुर (Bhojpur ) के कोईलवर थाना क्षेत्रों की सीमा पर सोन (Sone) और गंगा (Ganga) के तकरीबन 50 किलोमीटर के लंबे-चौड़े दायरे में फैला है दुर्गम-दुरुह त्रिकोणाकार दियारा (Triangular Diyara) . सामान्य समझ में वहां ‘कानून का राज’ नहीं चलता. चलता है सिर्फ ‘जंगल राज’ के साये में ‘माफिया राज’. माफिया (Mafia) तत्वों में जिसकी बंदूक अधिक मजबूत होती है, ज्यादा आग उगलती है, आतंक का सिक्का उसी का चलता है.
कई कोण हैं माफियागिरी के
माफियागिरी के कई कोण हैं. यह सोन के सोना समान पीले बालू (Sand) के उत्खनन में ही नहीं, शराब की चुलाई और अत्याधुनिक हथियारों की तस्करी में भी है. अवैध तरीकों से बेहिसाब कमाई होती है. करोड़ों की इस कमाई की चमक के समक्ष प्रायः सभी नतमस्तक हैं! ऐसा नहीं, तो अनगिनत गैर कानूनी हथियारों से नये स्वरूप के ‘सुशासन’ (Sushasan) के सीने में एक साथ असंख्य गोलियां उतार सत्ता को खुली चुनौती देनेवाले दुर्दांत अपराधियों के गिरेबां तक पुलिस के हाथ पहुंचने में वक्त ज्यादा क्यों लग जाते हैं? तहकीकात में गये पुलिसकर्मियों पर गोलियां झोंकने वाले शातिरों के खिलाफ त्वरित कार्रवाई क्यों नहीं होती. ‘सुशासन’ के पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं है.
सत्ता का संरक्षण
दियारे के माफिया-पुलिस-राजनीतिज्ञ गठजोड़ की गहन जानकारी रखनेवालों का मानना है कि ये तमाम अराजक-अवांछित लोग सत्ता के एक मजबूत खंड के संरक्षण में खुलेआम फहर रहे हैं. पुलिस उन्हें देख मुंह फेर ले रही है. क्या इससे यह प्रमाणित नहीं होता है कि बालू उत्खनन में माफियागिरी की
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जड़ें इतनी गहराई तक जम गयी हैं कि उसे उखाड़ पाना इस सरकार के वश की बात नहीं रह गयी है? इस गोरखधंधे को किसी एक दल की नहीं, लगभग सभी दलों की सरपरस्ती हासिल है. बेशुमार अवैध कमाई में हैसियत के हिसाब से हिस्सेदारी मिलती है.
दिखावे की कार्रवाई
पुलिस एवं खनन विभाग के इलाकाई अधिकारियों की मिलीभगत का संदेह तो गहराया हुआ है ही. राज्य सरकार के स्तर से माफिया तत्वों की कमर तोड़ने की कोशिशें होती रहती हैं, पर कार्रवाई आमतौर पर निचले स्तर के पुलिस एवं खनन विभाग के अधिकारियों तक ही सिमट कर रह जाती है. इससे माफियागिरी में कोई खौफ पैदा नहीं हो पाता है. वैध के समानांतर अवैध खनन की रफ्तार बनी रहती है. ऐसे में उसे दिखावे की कार्रवाई ही मानी जाती है. लगभग साल भर पूर्व अपवाद स्वरूप पहली बार ऐसी बड़ी कार्रवाई हुई कि लोग अचंभित रह गये.
बड़ा भ्रम साबित हुआ
बालू आच्छादित जिलों में पुलिस और खनन विभाग के अधिकारियों के साथ-साथ परिवहन एवं राजस्व विभागों के 41 अधिकारियों पर एकमुश्त गाज गिरायी गयी. लगा कि सुशासन की सुप्त चेतना जागृत हो गयी है! इससे बालू उत्खनन के ‘माफिया-चंगुल’ से मुक्त हो जाने की संभावना जग गयी. पर, बड़ी कार्रवाई की तरह वह भी बड़ा भ्रम साबित हुआ. परिणाम ढाक के तीन पात जैसा ही निकला. बहुत जल्द माफियागिरी पुराने ढर्रे पर आ गयी. कुछ दिनों पूर्व माफिया तत्वों द्वारा महिला खनन पदाधिकारियों की दौड़ा-दौड़ाकर की गयी पिटाई से इसकी पुष्टि होती है.
‘प्रभाव’ के मूल में है धन
ऐसा संभवतः इस वजह से भी हुआ कि अवैध खनन रोकने के जिम्मेवार प्रशासनिक एवं पुलिस अधिकारियों को कार्रवाई के दायरे में तो लाया गया, परन्तु अवैध खनन करने-कराने वाले सफेदपोशों की नकेल नहीं कसी गयी. ऐसे सफेदपोशों में सत्ता और सियासत में ‘प्रभाव’ रखने वाले कई वैसे लोग भी हैं, जिनके आर्थिक साम्राज्य की बुनियाद बालू की इसी अवैध कमाई पर टिकी है. कुछ ‘प्रभाव’ के मूल में यही धन है.
मजबूत सिंडीकेट है
दिलचस्प बात यह कि इन सफेदपोशों का एक मजबूत सिंडिकेट (Syndicate) है. उस सिंडिकेट के सदस्य सत्तारूढ़ दलों से भी जुड़े हैं और विपक्ष के प्रमुख दलों से भी. ‘उपकृत’ प्रायः सभी होते हैं. राज्य के एक बड़े राजनीतिक दल का संचालन इसी के पैसे से होने की बात कही जाती है. यही सब वजह है कि इस आर्थिक अपराध को लेकर राजनीति आमतौर पर कभी मुखर नहीं होती. राजनीतिज्ञों के मुंह में दही जमा रहता है. हालात ऐसे ही रहे, तो माफियागिरी (Mafiagiri) को मजबूती मिलती रहेगी, कानून (Kanoon) लहूलुहान होता रहेगा और निर्बल सत्ता निर्लज्ज आंखों से उसे निहारती और कुढ़ती रहेगी. इसके अलावा और कुछ कर नहीं पायेगी.
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