सवाल तो उठता ही है इस बेपरवाही पर
अविनाश चन्द्र मिश्र
01 मई 2023
PATNA : निर्वाचन आयोग के संदर्भ में सर्वोच्च अदालत (Supreme Court) के पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ का निर्वाचन आयोग से संबंधित एक फैसला आया. फैसलेे का निहितार्थ जो हो, लोकनीति में आस्था व विश्वास रखने वाले संवेदनशील लोगों के लिए यह गंभीर विचारणीय विषय (Subject) है. संविधान पीठ ने व्यवस्था दी कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त (Chief Election Commissioner) एवं निर्वाचन आयुक्तों का चयन अब केन्द्रीय मंत्रिपरिषद की सलाह से नहीं, प्रधानमंत्री, लोकसभा (Lok Sabha) में मुख्य विरोधी दल या विपक्ष के सबसे बड़े दल के नेता और सर्वोच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीश की समिति की सिफारिश पर होगा. यह व्यवस्था, इस संबंध में संसद द्वारा कानून (Law) बनाये जाने तक बनी रहेगी. एक तरह से इसे कानून बनाने का ‘आदेश’ समझा जा सकता है.
सराहा जा सकता है, पर…
संविधान पीठ (Constitution Bench) का फैसला निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति के लिए स्वतंत्र-तंत्र की मांग वाली उन याचिकाओं पर आया जिनमें तर्क रखा गया था कि लोकतंत्र (Democracy) को बचाये रखने के लिए ऐसा जरूरी है. नियुक्तियां सरकार (Government) करती है. इस कारण निर्वाचन आयोग निष्पक्ष ढंग से काम नहीं कर पाता है. ऐसे में कार्यपालिका यानी सरकार के हस्तक्षेप से इसका मुक्त रहना आवश्यक है. निर्वाचन आयोग (Election Commission) की निष्पक्षता एवं विश्वसनीयता पर खड़े हो रहे सवालों के आलोक में फैसले को सराहा जा सकता है. चुनाव-प्रक्रिया में और अधिक पारदर्शिता की उम्मीद की जा सकती है. पर, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के स्वतंत्र-स्वायत्त अस्तित्व वाली लोकतांत्रिक प्रणाली में इसे दूसरे के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप के रूप में भी देखा जा सकता है.
संपूर्ण विश्व के लिए आदर्श
स्वतंत्र भारत में अब तक के चुनावों, उनके परिणामों और प्रतिक्रयाओं पर गहन दृष्टि डाली जाती, तो शायद कार्यपालिका के कार्यक्षेत्र में अतिक्रमण (Encroachment) की ऐसी कोई जरूरत नहीं पड़ती. न कहीं कोई हिंसा, न उग्र आंदोलन-प्रदर्शन और न निर्वाचितों के कार्य-संपादन में व्यवधान. तात्कालिक तौर पर पराजितों की हार की हताशा भरे पक्षपात के आरोप ही उछलते हैं. फिर सब शांत हो जाते हैं. चुनावों के बाद पक्षधरता की बातें और कमजोरियों की चर्चाएं होती हैं. परन्तु, सत्ता पक्ष या विपक्ष, किसी की ओर से कभी निर्वाचन आयुक्तों के चयन की प्रक्रिया बदलनेे और न्यायपालिका (Judiciary) को उससे जोड़ने की जोरदार आवाज नहीं उठायी जाती है. दरअसल, चुनाव (Election) की प्रक्रिया इतना जटिल है कि बड़े पैमाने पर पक्षपात की गुंजाइश रहती ही नहीं है. यही मुख्य वजह है कि भारत (India) के निर्वाचन आयोग की कार्य पद्धित पूरे विश्व के लिए आदर्श है.
बाध्यता या आवश्यकता नहीं
स्वतंत्रता के बाद से ही निर्वाचन आयुक्तों का चयन संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत हो रहा है. केन्द्रीय मंत्रिपरिषद की सलाह से राष्ट्रपति (President) द्वारा नियुक्त किये जाने का प्रावधान है. इसमें वर्णित है कि संसद (Parliament) अगर चयन की प्रक्रिया, सेवा शर्तों और कार्यकाल से संबंधित कानून बनाती है, तो चयन उस कानून के अनुरूप होगा. कानून बनने तक नियुक्ति की वर्तमान प्रक्रिया मान्य रहेगी. यहां ‘अगर’ का मतलब यह है कि संसद चाहे तो कानून बना सकती है. वैसे, ऐसी कोई बाध्यता या आवश्यकता नहीं है. 77 वर्षों के स्वतंत्र शासनकाल में संसद ने इसकी जरूरत महसूस नहीं की. इसे सरकार की बेपरवाही कह सकते हैं, इसके बावजूद कानून बनाने पर जोर देना, लोकतंत्र के मूल सिद्धांत के अनुरूप नहीं माना जा सकता है.
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कानून बनाने का अधिकार नहीं
सर्वोच्च अदालत ने अपने आदेश में अनुच्छेद 324 का जिक्र किया है. कहा है कि कई दशक बीत जाने के बाद भी निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति से संबंधित कानून नहीं बनना आश्चर्य की बात है. अदालत (Court) की इस भावना में लोकहित तो सन्निहित है, पर लोकतांत्रिक व्यवस्था में संविधान (Constitution) सर्वोच्च अदालत को कानून बनाने का अधिकार नहीं देता है. यह भी नहीं कि इसके लिए वह कोई आदेश पारित करे. कानून बनाने का काम संसद का है. अदालत उस कानून के दायरे में समीक्षोपरांत आदेश पारित कर सकती है. मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों के चयन (Selection) की नयी व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम-प्रणाली भी नये सिरे से विमर्श के दायरे में आ गयी है. बदलाव की मांग होने लगी है.
जरूरत और अधिकार देने की
सर्वोच्च अदालत और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों (judges) की नियुक्ति का अधिकार पहले राष्ट्रपति को प्राप्त था.1993 में न्यायाधीशों ने अपने हाथ में ले लिया. ध्यान देने वाली बात है कि निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति (Appointment) के लिए नयी प्रणाली की बात तो की जाती है, पर न्यायाधीशों की नियुक्ति में सरकार और संसद की भूमिका स्वीकार्य नहीं है. बहरहाल, इन तमाम बातों से अलग जरूरत स्वच्छ, स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव के लिए निर्वाचन आयोग को और अधिक अधिकार संपन्न बनाने की है ताकि चुनाव सुधार के कार्यों को गति मिल सके.
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