बिहारः दोहरा दंश झेल रहा यह समाज!
संजय वर्मा
10अक्तूबर 2023
Patna : ‘…सिंहासन खाली करो कि जनता आती है…’ राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar) की ये पंक्तियां थोड़े बदलाव के साथ बिहार की राजनीति में हिलोरें पैदा कर रही हैं. ‘… सिंहासन खाली करो कि अतिपिछड़ा आते हैं….’दीर्घ उपेक्षा और हकमारी का दोहरा दंश झेल रहे अतिपिछड़ा समाज का इस अंदाज में हुंकार भरना कोई ‘अनर्गल प्रलाप’ नहीं है. विश्लेषकों की नजर में पहले ‘सामाजिक न्याय’ और फिर ‘न्याय के साथ विकास’ के 33 वर्षीय लंबे कालखंड के छल से छलका दर्द है, जो असंतोष व आक्रोश भरी मुट्ठियों को मजबूती प्रदान कर रहा है. दर्द यह कि राज्य में अतिपिछड़ा समाज की आबादी 36 प्रतिशत रहने के बाद भी यह शैक्षणिक, राजनीतिक एवं आर्थिक विकास के मामले में उपेक्षित है, वंचित है.
सिलसिला बना है
आरक्षण (Reservation) के ‘कर्पूरी फार्मूला’ से सरकारी नौकरियों में थोड़ी बहुत हिस्सेदारी मिली है, पर सत्ता की राजनीति में लगभग हाशिये पर है. दलीय संगठन और सरकार में शायद ही कभी कोई सम्मानजनक पद मिल पाता है. अतिपिछड़ा समाज को दुख इस बात से अधिक है कि ऐसा तब है जब 33 वर्षों से अनवरत गैर पिछड़ों का नहीं, ‘अपनों का शासन’ है. आर्थिक एवं शैक्षणिक उत्थान की बात दूर, ‘अपनों के शासन’ में भी शोषण का सिलसिला खत्म नहीं हुआ है. सवर्ण सामंत करीब-करीब शांत पड़ गये हैं. मगर पिछड़ों के बीच से ही शोषकों का एक ऐसा वर्ग उभर आया है, जो पहले की तुलना में कुछ अधिक क्रूर और अत्याचारी है. शर्म और हया को गंदे नाले में बहा अत्यंत पिछड़ा वर्ग का हिस्सा हड़प ले रहा है, बेखौफ शोषण-उत्पीड़न कर रहा है.
सोचिये, तब क्या होता?
सामाजिक विषमताओं एवं विसंगतियों की गहराई का बड़ी बारीकी से अध्ययन-मनन कर रखे प्रसिद्ध समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर (Karpuri Thakur) को शायद कालांतर में ऐसी विकृतियां पैदा होने की आशंका थी. इसी को दृष्टिगत रख उन्होंने मुंगेरी लाल आयोग द्वारा प्रतिपादित पिछड़ों में अत्यंत पिछड़ा वर्ग की अवधारणा को आत्मसात कर इस समाज का कल्याण कर दिया. सामाजिक- आर्थिक उत्थान का मजबूत आधार बना दिया. अन्यथा आज की तारीख में इसकी स्थिति कितनी दयनीय होती, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है. मुख्यमंत्री रहते कर्पूरी ठाकुर ने 01 अक्तूबर 1978 को एकीकृत पिछड़ा समाज की 127 जातियों में से 93 को अत्यंत पिछड़ा वर्ग की मान्यता दे दी. शेष 34 जातियों को पिछड़ा वर्ग की सूची में रख दिया.
सत्ता की हनक में…
पिछड़ी जातियों का यह वर्गीकरण मुंगेरी लाल आयोग (Mungeri Lal Commission) की रिपोर्ट पर आधारित है. इस आयोग का गठन 1970 में हुआ था. रिपोर्ट 1976 में आयी थी. 1951 के सर्वे के अनुसार बिहार में अतिपिछड़ा समाज की 79 जातियां थीं. मुंगेरी लाल आयोग ने 93 जातियों को अतिपिछड़ा के तौर पर चिन्ह्ति किया. आमतौर पर उन जातियों को जिनके जीविकोपार्जन का आधार पुश्तैनी पेशा था. उस पेशे से बड़ी मुश्किल से परिवार पलता था. आरक्षण का मकसद अवसाद भरे इसी हालात से उन्हें उबारना था. यह कहने में संकोच नहीं कि अतिपिछड़ा समाज का इकलौता हितैषी होने का दंभ भरने वाले नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के शासनकाल में यह अवधारणा बदल गयी.सत्ता की हनक में तेली, तमोली व दांगी समेत पिछड़ा वर्ग की कुछ समृद्ध-संपन्न एवं सामाजिक रूप से दबंग जातियों को अत्यंत पिछड़ा वर्ग में शामिल कर दिया गया. परिणामतः अत्यंत पिछड़ा वर्ग की जातियों की संख्या 93 से बढ़कर 122 हो गयी.
तर्कसंगत मापदंड नहीं
वैसे, अत्यंत पिछड़ा वर्ग की दो-चार जातियों को अनुसूचित जाति (Scheduled Caste) की सूची से भी जोड़ा गया. तब भी मुकम्मल रूप में इसे अतिपिछड़ों की हकमारी के तौर पर देखा व समझा जा रहा है. नीतीश कुमार के उक्त निर्णय का उस वक्त तो विरोध नहीं हुआ, लेकिन आठ साल बाद ही सही, अब यह राजनीति का एक बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है. अत्यंत पिछड़ा वर्ग (Extremely Backward Class) के अधिकार के लिए लंबे समय से संघर्षरत वंचित समाज मोर्चा के अध्यक्ष प्रो. किशोरी दास के मुताबिक पिछड़ा वर्ग की जातियों की सूची को सुधारने व संशोधित करने का अधिकार राज्य सरकार को है. नीतीश कुमार की सरकार ने इस अधिकार का इस्तेमाल किया. पर, सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक और राजनीतिक पिछड़ापन के तर्कसंगत मापदंड पर नहीं, बिल्कुल मनमाने ढंग से किया. इस कारण इसे तर्कसंगत और विवेकपूर्ण नहीं माना जा सकता.
तब भी भर रहे दंभ
इस कथित हकमारी के खिलाफ अत्यंत पिछड़ा समाज को आंदोलित कर रखे विधान पार्षद प्रो. रामवली सिंह चन्द्रवंशी का स्पष्ट कहना है कि राजनीतिक लाभ के लिए नीतीश कुमार ने मूल अतिपिछड़ों का हद से ज्यादा अहित कर दिया है. इसके बाद भी इस समाज का सबसे बड़ा हितैषी होने का स्वांग वही रचते हैं. मतलब ‘कातिल’ भी हैं और खुद को ‘मसीहा’ भी बताते हैं. यह राजनीति (Politics) का दोहरा चरित्र नहीं तो और क्या है? तिली, तेली, बनिया, सूड़ी आदि बारह जातियों का वैश्य समूह व्यवसायी और उन्नत वर्ग से हैं. आर्थिक दृष्टि से संपन्न हैं. ऐसा राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का मानना है. संभवतः इसी को दृष्टिगत रख कर्पूरी ठाकुर ने इन जातियों को अत्यंत पिछड़ा वर्ग की सूची में शामिल नहीं किया था.
तेली-तमोली व दांगी क्यों?
इसी तरह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2009 में दो सदस्यीय राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग (State Backward Classes Commission) के प्रतिवेदन के आधार पर तेली को अतिपिछड़ा वर्ग में शामिल करने से मना कर दिया था. फिर अचानक ऐसी क्या स्थिति पैदा हो गयी कि 22 अप्रैल 2015 को तेली और तमोली तथा फिर दांगी को अतिपिछड़ा वर्ग में शामिल कर लिया गया? यह सवाल अब भी अनुत्तरित है. मूल अतिपिछड़ा समाज के दिमाग को तब से ही मथ रहा है. मुट्ठियां लहराने को मजबूर कर रहा है. बिहार (Bihar) के जातीय आंकड़ों की गहन जानकारी रखने वालों के मुताबिक संपन्न-समृद्ध तेली जाति की राज्य में बड़ी आबादी है. प्रायः हर क्षेत्र में वास है. अत्यंत पिछड़ा वर्ग में शामिल होने के बाद इसके हिस्से का सर्वाधिक लाभ वही उठा ले रही है.
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इस तरह हो रही हकमारी
‘अतिपिछड़ा आरक्षण बचाओ संघर्ष मोर्चा’ के मुताबिक अतिपिछड़ा वर्ग में शामिल करने से पूर्व 2006 के पंचायत चुनाव में मुखिया के पद पर पिछड़ा वर्ग के यादव, कुशवाहा और कुर्मी के बाद तेली की संख्या थी. चौथे नम्बर पर रहते हुए तेली जाति को मुखिया के 112 पद मिले थे. 2015 में अत्यंत पिछड़ा वर्ग में शामिल किये जाने के बाद 2016 में वह संख्या 300 हो गयी. 2016 में जिला परिषद के अतिपिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित सात अध्यक्ष पदों में दो पर तेली, एक पर तमोली और एक पर दांगी विराजमान हो गये. जबकि अतिपिछड़ा वर्ग की अन्य 109 जातियों को सिर्फ दो पद मिले. इसी तरह 2016 में अतिपिछड़ा वर्ग के लिए प्रखंड प्रमुख के 93 पद आरक्षित थे. उनमें 24 पदों पर तेली और 5 पर दांगी काबिज हो गये.
काबिज हो गयी तेली
2022 में जिला परिषद के सात आरक्षित अध्यक्ष पदों में पांच पर तेली जाति के लोग काबिज हो गये थे. उस चुनाव में 18 प्रखंड प्रमुख तेली जाति के निर्वाचित हुए. नगर निगमों के आरक्षित महापौर (Mayor) के सभी तीन पदों पर तेली जाति ही काबिज है. वर्तमान में तेली जाति के 9 विधायक और 01 सांसद हैं. जबकि अतिपिछड़ा वर्ग की अन्य जातियों के मात्र 20 विधायक हैं. अतिपिछड़ा आरक्षण बचाओ संघर्ष मोर्चा ने प्रतिशत के रूप में इसे इस तरह परिभाषित किया है. उसके अनुसार 110 अतिपिछड़ी जातियों की भागीदारी लगभग 06 प्रतिशत ही है, जबकि उक्त तीन जातियों की 04 प्रतिशत है. अतिपिछड़ा वर्ग में दर्जनों ऐसी जातियां हैं जो राजनीतिक रूप से काफी पिछड़ी हैं. विधायिका में उनका आना तो दूर, पंचायतों और नगर निकायों में भी प्रतिनिधित्व नहीं मिल पा रहा है.
शुरू हुई पत्रयात्रा
प्रो. रामवली सिंह चन्द्रवंशी के मुताबिक इन्हीं मुद्दों, विशेषकर तेली, तमोली और दांगी को अतिपिछड़ा वर्ग की सूची से बाहर करने की मांग को लेकर अतिपिछड़ा आरक्षण बचाओ संघर्ष मोर्चा ने ‘पदयात्रा’ की है. यह पदयात्रा गांधी जयंती (Gandhi Jayanti) के दिन कर्पूरी ठाकुर की जन्मस्थली कर्पूरी ग्राम (समस्तीपुर) से प्रारंभ हुई . झंडी जदयू (JDU) सांसद रामनाथ ठाकुर ने दिखायी. 07 अक्तूबर 2023 को पटना के मिलर स्कूल मैदान में समापन हुआ. उसी दिन अतिपिछड़ा सम्मेलन भी हुआ. तेली, तमोली और दांगी को अतिपिछड़ा वर्ग की सूची से निकाल अलग वर्ग बना उनके लिए समानुपातिक आरक्षण की व्यवस्था, अनुसूचित जाति / जनजाति अत्याचार निवारण कानून की तरह अतिपिछड़ी जाति अत्याचार निवारण कानून, पंचायतों और नगर निकायों के चुनावों में 20 की जगह 33 प्रतिशत आरक्षण, रोहिणी आयोग (Rohini Commission) की रिपोर्ट को सार्वजनिक कर केन्द्रीय सेवाओं में अतिपिछड़ी जातियों के लिए 18 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान की मांगें उठायी गयीं. प्रो. रामवली सिंह चन्द्रवंशी के इस अभियान को समाज का व्यापक समर्थन मिला.
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