नाट्य उत्सव : तनिक भी कम नहीं हुए पीढ़ीगत जोश, जज्बा और जुनून
राजेश कुमार
20 अक्तूबर 2023
पंडारक (पटना): आधुनिकता आधारित विकृतियों और समाज की संकीर्ण मानसिकता से जूझ रहे हिन्दी रंगमंच (Hindi Theater) की समस्याएं मिटने की बजाय निरंतर गहरी होती जा रही हैं. त्रासद भरी उसकी इस स्थिति के लिए सरकार की सांस्कृतिक शून्यता भी बहुत हद तक जिम्मेवार है. इसका दुखद परिणाम है कि देश के बड़े और मंझोले शहरों तक की नाट्य संस्थाओं की सांसें फूल रही हैं. रंगशाला का किराया तथा कलाकारों और नाट्य प्रस्तुति के खर्च का जुगाड़ नहीं कर पाने के कारण कई के दम टूट चुके हैं. इस बेबसी में सीमित हो रहे रंगकर्म के मद्देनजर गांवों और कस्बों में सक्रिय रंग संस्थाओं एवं रंगकर्मियों को गांवों से जुड़े इसके इतिहास को संरक्षित रख नाट्य परंपराओं (Theatrical Traditions) को बनाये रखने में किन दुश्वारियों से दो-चार होना पड़ रहा होगा, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है.
गर्व होता है इस पर
यह नग्न सच है कि अधिसंख्य क्षेत्रों में नौटंकी, नाच एवं रामलीला की लोक सांस्कृतिक परंपरा पर आधुनिकता जनित कुसंस्कृतियों (Bad Cultures) एवं दर्शकों की अनिच्छाओं की परतें जम गयी हैं. हालांकि, इसकी वजहें अनेक हैं. एक यह कि सामाजिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक प्रतिबद्धता पर केन्द्रित नाट्य मंचन का पारंपरिक नजरिया बनाये रखने के कारण आम आकर्षण प्रायः समाप्त हो गया है. ऐसी विषम परिस्थिति में पटना जिले के पंडारक में सौ और वर्षों तक मंचन का जज्बा समेटे रंगमंच का सौ वर्षीय पताका पूरे इत्मीनान और शान से लहरा रहा है, यह बिहार (Bihar) के रंगकर्मियों एवं संस्कृति प्रेमियों के लिए वाकई गर्व की बात है. यह आह्लादित करने वाली भी बात है कि गांव वालों के सहयोग से शारदीय नवरात्र (दशहरा) के अवसर पर हर साल ‘ग्रामीण उत्सव’ के रूप में नाट्य मंचन हो रहा है.
बना हुआ है सिलसिला
स्थानीय रंगकर्मी पीढ़ीगत जोश, जज्बा और जुनून के साथ इसके सुनहरे इतिहास को दुहराते रहते हैं. इन शताधिक वर्षों के दौरान सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक स्तर पर काफी कुछ बदलाव हुए, अपराध भी सिर चढ़कर बोला. परन्तु, नाट्य मंचन की निरंतरता पर उसका किसी भी रूप में कोई असर नहीं पड़ा. सिलसिला अपनी रफ्तार में रह इतिहास का हिस्सा बनता रहा. इतिहास में वे सब नाम दर्ज हो गये जो पंडारक में रंगकर्म के आधार और फिर विस्तार के शिल्पकार थे और हैं. अति महत्वाकांक्षा के कारण नाट्य संस्था एक से अनेक हुई हैं, पर सिलसिला ठहर नहीं गया है. नया इतिहास रचने की रफ्तार में बना हुआ है. इससे इसके दीर्घ होने की आश्वस्ति मिलती है.
ऐसे हुई शुरूआत
अतीत पर नजर डालें, तो पंडारक की एक सौ चार वर्षीय नाट्य परंपरा की शुरुआत चौधरी रामप्रसाद शर्मा और इन्द्रदेव नारायण शर्मा उर्फ नुनू बाबू की प्रेरणा और सक्रियता से हुई थी. चौधरी रामप्रसाद शर्मा के दिमाग में ऐसी बात कहां से और कैसे आयी इसकी अपनी कहानी है. चर्चा के मुताबिक चौधरी रामप्रसाद शर्मा स्वतंत्रता आंदोलन के क्रम में 1914 में कांग्रेस के गया अधिवेशन में शामिल हुए थे. वहां किर्लोस्कर कम्पनी के सौजन्य से स्वतंत्रता सेनानियों (Freedom Fighters) को अप्रत्यक्ष रूप से प्रेरित-उत्प्रेरित करने वाले नाटकों का मंचन हुआ था. उससे वह काफी प्रभावित हुए थे. पंडारक लौटने पर उन्होंने स्थानीय स्वतंत्रता सेनानियों एवं आम नागरिकों में देशप्रेम (Patriotism) का अधिकाधिक भाव भरने के लिए नाट्य-मंचन का सार्थक प्रयास किया. इसमें उन्हें इन्द्रदेव नारायण शर्मा उर्फ नुनू बाबू का भरपूर सहयोग मिला.
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फिर तो लंबा चल गया
बताया जाता है कि नाट्य मंचन का प्रथम प्रयास उन्होंने पंडारक स्थित अपने आवासीय परिसर में किया था. इलाकाई लोगों ने दिलचस्पी दिखायी. इससे उत्साहवर्द्धन (Encouragement) हुआ और फिर नाट्य मंचन का सिलसिला-सा बन गया. शुरू के कुछ वर्षों तक बांस-बल्ला और चौकियों से बने अस्थायी मंच पर गंवई नाट्य कला आकार पाती रही. 1922 में चौधरी रामप्रसाद शर्मा और इन्द्रदेव नारायण शर्मा उर्फ नुनू बाबू ने गांव वालों के सहयोग से स्थायी मंच का निर्माण करा संस्था का नाम हिन्दी नाटक समाज रख दिया. संस्था के पूर्व अध्यक्ष गोपाल शरण शर्मा, रंगकर्मी मुन्ना सिंह, ब्रह्मदेव त्रिपाठी, रामकृष्ण चौधरी, रामदास राम, जागोलाल, भागो लाल, दिवाकर शर्मा आदि ने उसमें सहभागिता निभायी थी. इन सबके अलावा और भी कई सधे व मंजे हुए ग्रामीण कलाकार संस्था से जुड़े हुए थे.
तीसरी पीढ़ी के कंधों पर
यह कहा जाये कि उक्त तमाम लोग हिन्दी नाटक समाज के प्राणवायु थे, तो वह कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. इन सब के योगदान से ही पंडारक की नाट्य कला राष्ट्रीय फलक पर आ गयी. बाद के वर्षों में उनके वारिसों ने इस धरोहर को सहेजा. आज की तारीख में उस परम्परा को उनकी तीसरी पीढ़ी उसी अंदाज में आगे बढ़ा रही है. नाट्य कला के प्रति ग्रामीणों के समर्पण-सद्भाव का अंदाज इससे भी लगाया जा सकता है कि बिहार और बिहार के बाहर के दूर-दराज के शहरों में कार्यरत यहां के ज्यादातर लोग अपनी इस सांस्कृतिक धरोहर (Cultural Heritage) को सहेजने-संवारने के लिए नाट्य उत्सव के दौरान पंडारक पहुंचते हैं.
अभिभावक ही करते हैं प्रेरित
गौर करने लायक गांव की एक और खासियत है. अमूमन ऐसा देखा जाता है कि गांवों में लोग अपनी संतानों को रंगमंच (Stage) से दूर रखने का प्रयास करते हैं, भविष्य चौपट हो जाने की बात करते हैं. पर, पंडारक के लोग संतानों को रंगमंच से जुड़ भविष्य निर्माण के लिए प्रेरित-उत्प्रेरित करते हैं. ऐसा देश के शायद ही किसी गांव में होता होगा. यह बात अलग है कि पारंपरिक नाट्य तकनीकी में बंधे रहने के चलते कोई भी स्थानीय कलाकार राष्ट्रीय स्तर (National Level) पर अपनी पहचान कायम नहीं कर पाया. उनकी प्रतिभा की चर्चा आमतौर पर आस-पास के गांवों तक में सिमटी रह गयी. इधर, पुण्यार्क कला निकेतन को ‘रंग मंडल’ की प्राप्ति हुई है. इससे ग्रामीण नाट्य कला गौरवान्वित है.
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