तापमान लाइव

ऑनलाइन न्यूज़ पोर्टल

यौन उत्पीड़न : होश उड़ा देंगे दरिंदगी के ये आंकड़े

शेयर करें:

अविनाश चन्द्र मिश्र
29 सितम्बर 2024

हिलाओं के साथ निरंतर हो रही दरिंदगी से देश दहल रहा है. ऐसा कि स्वतंत्र भारत (independent india) के सतहत्तर वर्षीय इतिहास (History) में पहली बार राष्ट्रपति (President) को भी ऐसे मामले पर मुंह खोलना पड़ गया. कोलकाता (Kolkata) में प्रशिक्षु महिला चिकित्सक के साथ हैवानियत पर राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू (Draupadi Murmu) को ‘बहुत हुआ…डर लग रहा है…’ कहने को विवश होना पड़ गया. बिल्कुल स्पष्ट है कि राष्ट्रपति ने ऐसी घटनाओं से चिंतित समस्त भारत की भावनाओं को उक्त शब्दों में व्यक्त किया. पर, कुछ लोगों को उनके इन शब्दों में भी राजनीति (Politics) दिख गयी. तर्क यह कि कोलकाता की घटना पर ही उन्होंने ऐसी टिप्पणी क्यों की, दूसरे राज्यों यानी भाजपा शासित बिहार (Bihar) और उत्तरप्रदेश (Uttar Pradesh) की हृदयविदारक घटनाओं पर क्यों नहीं? ऐसी ओछी राजनीति करने वालों की यह दलीय सोच आधारित समझ है. वैसे, इस सच से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि महिलाओं के साथ दरिंदगी सिर्फ पश्चिम बंगाल (west Bengal) में ही नहीं, अन्य राज्यों में भी हुई है. असम, महाराष्ट्र, बिहार और उत्तरप्रदेश में भी मानवता शर्मसार हुई है.

दुष्कर्मियों में 89 प्रतिशत होते हैं ‘अपने’

तारीख भले अलग-अलग हैं, तस्वीर सबकी लगभग समान है. उस तस्वीर में हर उम्र की महिलाएं हैं. अबोध बच्चियां भी हैं तो बुजुर्ग भी. किसी एक राज्य, एक सम्प्रदाय, एक समाज या फिर एक जाति की ही महिलाएं यौन उत्पीड़न की शिकार नहीं हो रही हैं. विकृत मानसिकता के वहशी लोग हर समाज और जाति में जीभ लपलपाते दिख जाते हैं. खतरनाक इरादों वाली उनकी अवसर तलाशती मौजूदगी घर, स्कूल, कार्यस्थल, धर्मस्थल, सार्वजनिक स्थल यानी सब जगह रहती है. मौका मिला नहीं कि हाथ साफ! इसे सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों के पतन की पराकाष्ठा ही कहेंगे कि ऐसे पतित दुष्कर्मियों में 89 प्रतिशत ‘अपने’ होते हैं. यानी जान-पहचान के होते हैं. कोलकाता की प्रशिक्षु महिला चिकित्सक के साथ अमानुषिकता पर देश आक्रोशित-आवेशित है. ठीक उसी तरह जैसे 12 साल पहले दिल्ली में निर्भया के साथ नृशंसता पर आक्रोशित हुआ था. बीच के वर्षों के दौरान ऐसी अनेक वीभत्स वारदातें हुईं. लोगों की गुस्सा भरी मुठ्ठियां लहरायीं. लेकिन, कोई समाधान नहीं निकला.


ये भी पढ़ें :

जदयू : खेल हो रहा शह और मात का !

जदयू : इसलिए उठ गया था गुस्से का गुबार?

एनडीए में खटराग : मटिहानी पर तकरार, चिराग पसार रहे रार!

सरकार और बलात्कार


दायरा बढ़ता ही रहा नृशंसता का

राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने संभवतः इसी संदर्भ में ‘सामूहिक स्मृतिलोप’ की बात कही है. आमतौर पर देखा यह जा रहा है कि ऐसी जघन्यता जब कभी मानवता को सिहरा देती है तब सबसे पहले आरोपितों को फांसी के फंदे से झूला देने के साथ कानून को सख्त बनाने की आवाज उठती है. लेकिन, सवाल यह है कि आखिर कानून को कितना सख्त बनाया जायेगा? 16 दिसम्बर 2012 को दिल्ली (Delhi) की निर्भया के साथ हुई अमानुषिकता पर उफनाये राष्ट्रव्यापी गुस्से के बीच से ऐसी ही आवाज उठी थी. उस गुस्से की गंभीरता के मद्देनजर संबंधित कानून को जितना कठोर बनाया जा सकता था, करीब- करीब उतना बना दिया गया. कहां कोई फर्क पड़ा? नृशंसता का दायरा बढ़ता ही रहा. यह कोरा गप या विपक्ष का आरोप नहीं, संवेदनशील लोगों की नींद उड़ाने वाली हकीकत है, जो राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आधिकारिक दस्तावेज में दर्ज है. रिपोर्ट के मुताबिक इस देश में हर दस मिनट पर एक महिला पर अत्याचार होता है. प्रतिदिन का औसतन आंकड़ा 86 दुष्कर्म का है. इनमें 10 प्रतिशत पीड़िता नाबालिग यानी 18 वर्ष से कम उम्र की होती हैं. यहां यह समझने वाली बात है कि लोकलाज, सामाजिक बंदिशों-बाध्यताओं और ‘अपनों की करतूतों’ की वजह से 63 प्रतिशत ऐसे मामले थाने या फिर अदालत तक नहीं पहुंच पाते हैं. यानी 37 प्रतिशत ही दर्ज होते हैं. इसके बावजूद ये आंकड़े हैं! इसका मतलब यह कि जमीनी सच्चाई (ground truth) बेहद खौफनाक है.

मामलों के निष्पादन का हाल भी है चिंताजनक

यह तो है, इन मामलों के निष्पादन का हाल भी चिंताजनक है. कानून (Law) कहता है कि दुष्कर्म और हत्या के मामले का पुलिस अनुसंधान दो माह के अंदर पूरा हो जाना चाहिये. परन्तु, अपवाद स्वरूप ही ऐसा हो पाता है. निर्भया प्रकरण (Nirbhaya case)  के परिप्रेक्ष्य में साल भर में सुनवाई पूरा हो जाने का प्रावधान कानून में जोड़ा गया था. विडम्बना देखिये कि निर्भया के परिजनों को ही न्याय मिलने में तकरीबन 12 साल लग गये. आंकड़े बताते हैं कि ऐसे 87 प्रतिशत मामले साल भर बाद भी लंबित पड़े रहते हैं. निर्धारित समय सीमा के अंदर सिर्फ दस प्रतिशत मामलों का ही निष्पादन हो पाता है. गौर करने वाली बात यह भी है कि जितने का निष्पादन होता है उनमें 20 प्रतिशत में ही दोष सिद्ध हो पाता है. शेष मामले आधारहीन करार दिये जाते हैं. यह स्थिति मामले के अनुसंधान और निष्पादन में संवेदनशीलता के अभाव की वजह से है. देश में सब कुछ है. उपयुक्त नियम है, कठोर कानून है और बेहतर न्यायिक व्यवस्था भी है. तब भी संवेदनहीनता और शिथिलता के कारण जटिलता बनी हुई है. जरूरत इसी जड़ता और अकर्मण्यता को तोड़ने की है.

#tapmanlive

अपनी राय दें