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मुस्लिम समर्थन : नीतीश कुमार की बेफिक्री का है यह रहस्य !

अविनाश चन्द्र मिश्र
10 अप्रैल 2025

क्फ विधेयक को जदयू के अखंड समर्थन पर मुस्लिम संगठनों के चौतरफा प्रहार-बहिष्कार तथा धर्मनिरपेक्षियों की उलाहना-उपहास के बाद भी नीतीश कुमार (Nitish Kumar) निश्चिंत और निर्विकार हैं तो इसका कोई न कोई आधार जरूर है. तभी तो न धर्मनिरपेक्ष (Secular) छवि पर बट्टा लगने की चिंता है और न मुसलमानों का साथ छूट जाने का भय. रामनवमी पर पटना (Patna) के श्रीराम चौक पर आरती के वक्त दिखी तालियां भरी उनकी मग्नता से तो आम अवाम को ऐसा ही कुछ अहसास हो रहा है. अबाध आलोचनाओं से नीतीश कुमार ही नहीं, जदयू के अन्य रणनीतिकार भी विचलित नहीं हैं .बेचैनी है तो पार्टी के उन मुस्लिम नेताओं में जिनकी राजनीति भंवर में फंस गयी है.

अन्यत्र तलाश ले सकते हैं ठांव
सामान्य समझ है कि शीर्ष नेतृत्व की अवसरवादी धर्मनिरपेक्षता का रूख ऐसा ही रहा, तो हैरान-परेशान मुस्लिम नेता (Muslim Leader) जदयू से नाता तोड़ दूसरे किसी दल में ठा़ंव तलाश ले सकते हैं. राजनीति हैरान है कि जदयू (JDU) नेतृत्व को इसकी भी परवाह नहीं है. नीतीश कुमार के अतिप्रिय मंत्री अशोक चौधरी (Ashok Choudhary) के बयान-जदयू को मौलवियों-मौलानाओं की जरूरत नहीं है…से ऐसा ही कुछ प्रतीत होता है. हालांकि, मुस्लिम सियासत में उबाल ला देने वाले इस विषाक्त बोल के कुछ घंटे बाद ही अशोक चौधरी ने अपने बयान को संशोधित कर उसमें ‘शंकराचार्य और मठाधीश’ जोड़ ‘पतिया छुड़ाने’ का उपक्रम कर लिया. लेकिन, जितना जहर फैलना था वह फैल गया, जो असर होना था वह हो गया.

नहीं मिलते हैं उनके मत
यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि अशोक चौधरी जदयू के कोई पहले नेता नहीं हैं जिन्होंने मुसलमानों के प्रति ऐसा कटु वचन बोला है. यह सच है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने खुद कभी ऐसी कोई टिप्पणी नहीं की है, पर उनके प्रमुख सलाहकारों के मुखारविंद से ऐसे बोल अक्सर निकलते रहे हैं. इस रूप में कि चुनावों में मुस्लिम मतों का साथ जदयू को नहीं मिलता है. पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह, कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष संजय झा, सीतामढ़ी (Sitamarhi) के सांसद देवेश चन्द्र ठाकुर ने तो ऐसी बातें कही ही हैं, पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव मौलाना गुलाम रसूल बलियावी भी इस पीड़ा को सार्वजनिक करते रहे हैं. इन शब्दों में कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार में मुसलमानों के कल्याण के लिए जितने कार्य किये और कराये हैं उस अनुपात में उनका वोट उन्हें नहीं मिलता है.

नहीं के बराबर है स्वीकार्यता
इस ये बयान राजनीतिक नहीं, हकीकत हैं. इसकी पुष्टि लोकनीति-सीएसडीएस के चुनाव उपरांत सर्वेक्षणों के आंकड़ों से होती है. आंकड़े बताते हैं कि मुस्लिम समुदाय में नीतीश कुमार की स्वीकार्यता नहीं के बराबर है. इस समुदाय का उल्लेख करने लायक साथ उन्हें सिर्फ 2010 के चुनाव में मिला था. उस चुनाव में मुसलमानों के 21 प्रतिशत मत एनडीए को मिले थे. ऐसा माना जाता है कि यही समर्थन नीतीश कुमार की पलटमार राजनीति की बुनियाद बन गया. वह इस भ्रम में आ गये कि उन्हें अब किसी दूसरे दल के साथ की जरूरत नहीं, अकेले किला फतह कर लेंगे. 2014 के संसदीय चुनाव में भाजपा से अलग मैदान में उतर गये. धरातल पर आ गये, भ्रम टूट गया.


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06 से घट कर 05 प्रतिशत
लोकनीति-सीएसडीएस के आंकड़े बताते हैं कि 2005 में एनडीए को 04 प्रतिशत मुस्लिम मत मिले थे. 2015 में जदयू महागठबंधन का हिस्सा था. महागठबंधन को तब 69 प्रतिशत मुस्लिम मतों की प्राप्ति हुई थी. एनडीए को 06 प्रतिशत. 2020 में जदयू एनडीए में था. मुस्लिम मतों की प्राप्ति 06 से घट कर 05 प्रतिशत हो गयी. दूसरी तरफ महागठबंधन का मुस्लिम समर्थन 69 से बढ़कर 76 प्रतिशत हो गया. 2025 के चुनाव में भी ऐसा ही कुछ रहने का अनुमान है. विश्लेषकों का मानना है कि ऐसे ही आंकड़ों से मुस्लिम मतों के प्रति जदयू में बेफिक्री है. समर्थन मिलना है नहीं तो फिर बेमतलब की मगजमारी क्यों?

फायदा इस रूप में होगा
दूसरी तरफ वक्फ विधेयक के समर्थन से उसे फायदा इस रूप में मिलता दिख रहा है कि नीतीश कुमार की दीर्घकालिक सत्ता को लेकर एनडीए समर्थकों में जो एंटी इंकंबेंसी दिख रही थी वह करीब-करीब खत्म हो गयी है. वैसे, जदयू नेताओं का मानना है कि नया वक्फ कानून मुसलमानों के व्यापक हित में है. इससे उनका तनिक भी अहित नहीं होने वाला है. विपक्षी दलों ने मुस्लिम समुदाय को भ्रमित कर रखा है. लोग हकीकत समझ जायेंगे तो भ्रम खुद-ब-खुद मिट जायेगा.

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