‘पीपुल’ से ‘पीपुल्स पद्म’ : संघर्षों से भरी दुलारी देवी की संकल्प सिद्धि
16 नवम्बर, 2021
‘बहुत कष्ट स गुजरल छीं. बहुत संघर्ष में सीखने छीं. आई हमरा बहुत खुशी होइए. एते दिन सुनै छलिए. हमर गाम क महासुन्दरी देवी (Mahasundari Devi), गोदावरी दत्ता (Godawari Dutta), बगल क गाम जितवारपुर क बौआ देवी (Bauaa Devi) के भेटल रहैन. आय हमरो भेटल ए स आरो खुशी होइए.’ 26 जनवरी, 2021 को हुई पद्मश्री पुरस्कार (Padmashree Puraskar) की घोषणा पर अपनी भाषा, अपनी बोली में यही भावना व्यक्त की थी दुलारी देवी (Dulari Devi) ने. 8 नवम्बर, 2021 को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद (Ramnath Kovind) से सम्मान प्राप्त करते वक्त भी वह ऐसी ही भावनाओं से ओत-प्रोत थीं. सम्मान समारोह के बाद मुलाकात के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) ने उनकी उत्कृष्ट कला-सृजन की तारीफ की तो अकल्पित अनुभूति से उनके रोम-रोम पुलकित हो उठे.
कुछ अलग खुशी भी
विश्व प्रसिद्ध मिथिला चित्रकला (Mithila Chitrakala) की इस कला साधिका में असीमित प्रसन्नता की एक साथ कई हिलोरें उठीं. पद्म पुरस्कार (Padma Puraskar) की अपार खुशी तो थी ही, अतिपिछड़ा समाज से होने के बावजूद इस चित्रकला में सम्मान की कुछ अलग खुशी भी दिखी. इसकी भी कि राष्ट्रीय स्तर का जो सम्मान गांव की उनकी ‘गुरुआईन’ को मिला था वह अब उन्हें भी प्राप्त हो रहा है. वैसे तो दुलारी देवी की चित्रकला साधना कमोबेश एकलव्य की धनुर्विद्या साधना की तरह है. पर, ‘गुरुआईन’ की भूमिका में गांव की महासुन्दरी देवी (Mahasundari Devi) और कर्पूरी देवी (Karpoori Dev) रही हैं. महासुन्दरी देवी को पद्मश्री पुरस्कार की प्राप्ति हुई, कर्पूरी देवी उससे दूर रह गयीं. वैसे, इसी गांव की गोदावरी दत्ता को भी यह सम्मान मिला है.
संघर्ष आधारित साधना
इस चित्रकला में अब तक सात कला साधिकाओं को पद्मश्री पुरस्कार प्राप्त हुए हैं. उनमें दुलारी देवी का सम्मान इस दृष्टि से खास मायने रखता है कि उनकी साधना संघर्षों पर आधारित है. पद्मश्री प्राप्त अन्य कला साधिकाओं का यह पुश्तैनी ज्ञान-गुण है, जबकि मजदूरी की राह कला की दुनिया में आयीं दुलारी देवी के परिवार का इससे कभी किसी रूप में कोई सरोकार नहीं रहा. 54 वर्षीया दुलारी देवी मधुबनी जिले के बहुचर्चित रांटी गांव की रहनेवाली हैं. उनके पिता मुसहर मुखिया मछुआरा थे. अतिपिछड़ा समाज की मल्लाह बिरादरी से आते थे. मछली मारने व बेचने के पुश्तैनी धंधे से जुड़े थे. इस काम में पुत्र परीक्षण मुखिया भी उनके साथ रहा करता था. परिवार चलाने के लिए वक्त-बेवक्त भूस्वामियों के खेत-खलिहानों में मजदूरी भी कर लेते थे.
नहीं जुट पाता था भर पेट भोजन
दुलारी देवी की मां धनेश्वरी देवी गांव के संपन्न घरों में बर्तन-मांजन एवं झाड़ू-बुहारी का काम करती थीं. गाहे-बगाहे पति व पुत्र के साथ खेत-खलिहानों में मजदूरी भी कर लेती थीं. किशोरावस्था में पहुंचने पर दुलारी देवी भी मां-पिता के कामों में हाथ बंटाने लगीं. कभी बाप-भाई के साथ मछली मारने चली जातीं तो कभी माई के साथ दूसरे के घरों और खेतों में काम करने. परिवार के तमाम लोग हार तोड़ मेहतन करते थे, तब भी भर इच्छा भोजन नहीं जुट पाता था. अक्सर अधखाये, बिनखाये सोना पड़ता था. अन्य मुश्किलें तो अपनी जगह थी हीं. ऐसे में पढ़ाई-लिखाई की बात कल्पना में भी नहीं थी. जिन्दगी की शुरुआत वंचित वर्ग की अन्य लड़कियों की तरह ही हुई.
दुख भरा दाम्पत्य जीवन
उस दौर की सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप 12 वर्ष की उम्र में ही दुलारी देवी की शादी हो गयी. मधुबनी जिले (Madhubani District) के बलाइन कुसमौत गांव में. यह गांव बेनीपट्टी प्रखंड (Benipatti Block) के तहत आता है. कारण जो रहा हो, दुलारी देवी का पति से बनाव नहीं रहा, सास से भी नहीं पटा. फलतः दाम्पत्य जीवन लंबा नहीं चल पाया. पति के इसी अनबन के बीच उन्हें एक पुत्री हुई. वह भी महज छह माह जीवित रह पायी. इन सबसे व्यथित दुलारी देवी पति का घर छोड़ मायके लौट आयीं. फिर वहीं की होकर रह गयीं. दोबारा कभी ससुराल नहीं गयीं. मायके में ही खेतों में मजदूरी और संपन्न घरों में बर्तन-मांजन एवं झाड़ू-बुहारी से पेट भरने लगा, समय कटने लगा. उसी दौरान रांटी गांव की ही मिथिला चित्रकला की सुप्रसिद्ध कलाकार पद्मश्री महासुन्दरी देवी और कर्पूरी देवी के यहां झाड़ू-बुहारी का काम मिल गया.
आड़ी-तिरछी आकृति
मिथिला पेंटिंग के मामले में इस परिवार का खूब नाम है. कई पुश्तों से परिवार की महिलाएं पेंटिंग कर रही हैं. वहां महासुन्दरी देवी और कर्पूरी देवी को चित्र बनाते देख दुलारी देवी में भी मिथिला चित्रकारी के प्रति उत्सुकता जगी. फिर ऐसा करने की ललक भी पैदा हो गयी. उन दिनों इस चित्रकारी पर ब्राह्मण और कायस्थ समाज की महिलाओं का अघोषित पारंपरिक एकाधिकार था. पिछड़ा व दलित महिलाओं के लिए ऐसा कोई रिवाज नहीं था. आर्थिक विवशता भी थी. तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों को झाड़ते हुए दुलारी देवी फूस के घर की दीवार और आंगन को माटी से लीप कर लकड़ी की कूची से अपने मनोभावों को आड़ी-तिरछी आकृति देने लगी.
कुप्पी की रोशनी में चित्रकारी
इसे सुखद संयोग ही कहा जायेगा कि 1984 में भारत सरकार के वस्त्र मंत्रालय ने महासुन्दरी देवी के रांटी स्थित आवास पर छह महीने का मिथिला चित्रकारी प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया. इस चित्रकला के प्रति दुलारी देवी की जिजीविषा को देख व परख चुकीं महासुंदरी देवी की पहल से उन्हें भी प्रशिक्षण में शामिल कर लिया गया. महासुन्दरी देवी ने तमाम मिथकों को तोड़ अपने सान्निध्य में दुलारी देवी को चित्रकला के गुर सिखाये तो उनकी कल्पनाएं उड़ान भरने लग गयीं. कर्पूरी देवी ने चित्रकला की बारीकियां बता उनमें निपुणता ला दी. प्रख्यात कलाकार गौरी मिश्रा (Gauri Mishra) संचालित संस्था में नामांकन भी करा दिया. इस संस्था का काम महिलाओं को मिथिला पेंटिंग (Mithila Painting) सिखाना और उनकी कलाकृतियों को प्रमोट करना था. इससे वह लम्बे समय तक जुड़ी रहीं.
कठिन परिश्रम ने दिलाया सम्मान
उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान (Upendra Maharathi Shilp Anusandhan Sansthan) के निदेशक अशोक कुमार सिन्हा (Ashok Kumar Sinha) की मानें तो दुलारी देवी के मन में कहीं न कहीं यह आशंका थी कि कोई यह नहीं कहे कि छोटे एवं गरीब घरों से आये लोग मिथिला पेंटिंग में काबिल नहीं होते. इसलिए अपने आप को दक्ष साबित करने के लिए वह घंटों पेंटिंग बनातीं. घर में बिजली नहीं थी. अंधेरे कमरे में कुप्पी की रोशनी में चित्रकारी करती रहीं. वही कठिन मेहनत ने मिथिला चित्रकला में उन्हें पद्मश्री का राष्ट्रीय सम्मान दिलाया. दुलारी देवी के कृतित्व पर आधारित अशोक कुमार सिन्हा के एक आलेख में वर्णित है कि उस समय तक उच्च जाति की महिलाएं ज्यादातर पौराणिक आख्यानों-रामायण (Ramayan) एवं महाभारत (Mahabharat) तथा दलित महिलाएं राजा सलहेस (Raja Salhes) से जुड़े प्रसंगों को ही अपने चित्रों में उकेरती थीं.
गरीबों के दुखड़ों को दी चित्र भाषा
दुलारी देवी ने शुरुआती दौर में आमतौर पर उन परम्परागत चित्रों को नहीं अपनाया. अपने चित्रों में नये भावों के साथ विषयों के चयन में नवीनता लायीं. वह बचपन से ही प्रकृति के संग जीने की आदी हैं. इसलिए ग्राम्य झांकियां और वे मधुर स्वप्न, जो उनके भीतर बाल्य काल से संचित होते गये हैं, उनके रंगों और रेखाओं में निखर गये. सबसे पहले उन्होंने मछुआरों के जीवन पर पेंटिंग बनायी. मल्लाह जाति के लोग, उनके संस्कार और उनके उत्सवों को अपना विषय बनाया. फिर खेतों में काम करते किसानों और मजदूरों का चित्रण किया. बाढ़-सुखाड़ के दौरान गरीबों की तकलीफों और दुखड़ों को चित्र भाषा दी. इस तरह घरेलू दुख-दर्द की अबूझ समझ और प्रकृति से आत्मीय लगाव के चलते तालाब, गांव-गंवई और सम-सामयिक विषयों को मिथिला चित्रों में जगह देकर दुलारी देवी ने इसके प्रति एक नया आकर्षण पैदा कर दिया. फलतः मिथिला चित्रकला के क्षेत्र में उनकी एक अलग पहचान बन गयी.
रंगों की है खूब पहचान
धीरे-धीरे मिथिला चित्रकला के क्षेत्र में दुलारी देवी की ख्याति बढ़ती चली गयी, पारंपरिक विषयों में भी दक्षता हासिल हो गयी. मधुबनी स्थिति विद्यापति टावर (Vidyapati Tower) में उन्होंने अपनी कूची से सीता के जन्म से लेकर उनकी जीवन-यात्रा का मोहक चित्रांकन किया है. मिथिला पेंटिंग को लेकर वह चेन्नई, कोलकाता, बेंगलुरू आदि की भी यात्रा कर चुकी हैं. लेखक-पत्रकार अरविंद दास (Arvind Das) का मानना है कि दुलारी देवी को शब्दों और अक्षरों का ज्ञान भले नहीं है, परन्तु रंगों की खूब पहचान है. उनका चित्रांकन मिथिला पेंटिंग की ‘कचनी शैली’ यानी रेखाचित्र में ही अधिक है.
10 हजार से अधिक पेंटिंग्स
अशोक कुमार सिन्हा के मुताबिक दुलारी देवी की कचनी शैली (Kachani Shaili) के चित्रों की अपनी कुछ खास खूबियां हैं. उनके चित्रों की रेखाएं अपने ढंग की होती हैं और रंग संयोजन उच्च कोटि का होता है. पतली लकीरों से चित्रों का आकार देकर दुलारी देवी रंगों का जिस कुशलता से समिश्रण करती हैं वह सर्वथा मौलिक है. उनके चित्रों में नये भावों के साथ विषयों के चयन में भी नवीनता है. उन्होंने ऐसे विषय चुने जो रंग और कूची के योग से एकदम सजीव हो उठते हैं. इसलिए उनके चित्र भाव और सौंदर्य की दृष्टि से भी खूब भाते हैं. 1999 में ललित कला अकादमी सम्मान (Lalit Kala Akadami Samman) और 2012-13 में बिहार सरकार के प्रतिष्ठित राज्य पुरस्कार से सम्मानित दुलारी देवी पारंपरिक विषयों के अलावा जीवन-संघर्ष से जुड़े विविध विषयों पर 10 हजार से अधिक पेंटिंग बना चुकी हैं.
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बन गयी अंतर्राष्ट्रीय पहचान
गौर करने वाली बात यह कि इस राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय (National-International) प्रसिद्धि के साथ अपने चित्रों के बल पर वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं. चित्रांकन से जरूरतें पूरी करने लायक रकम मिल जाती है. इस कमाई की बदौलत ही उन्होंने अपना अच्छा-सा घर बना लिया है. भाई को व्यवसाय खड़ा करने में आर्थिक मदद की है. खासियत यह भी कि उनके चित्रों को देश-विदेश में लोकप्रियता हासिल होने के बाद भी वह अपनी पेंटिंग में नया शैलीगत आकर्षण पैदा कर रही हैं. यह विशिष्टता उन्हें और ऊंचे मुकाम पर ले जाये, तो वह आश्चर्य की कोई बात नहीं होगी.