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दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय : कुसंस्कारी बांट रहे संस्कार!

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अविनाश चन्द्र मिश्र
17 नवम्बर, 2021

PATNA : संस्कृत और संस्कार का जीवन में बड़ा महत्व है. पौराणिक वैदिक भाषा संस्कृत से संस्कार बनते हैं और संस्कार से संस्कृति. परिष्कृत विचारों व भावनाओं को संस्कार माना जाता है. शुद्धता, पवित्रता, धार्मिकता, आस्तिकता आदि इसकी प्रमुख विशेषताएं हैं. यही संस्कृति के मूल आधार हैं. संस्कृत की वैश्विक व्यापकता के संदर्भ में विद्वतजनों की इसी अवधारणा को दृष्टिगत रख दरभंगा में संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना में महाराजा कामेश्वर सिंह ने अनुकरणीय अद्वितीय दानशीलता के रूप में अविस्मरणीय योगदान किया था.

दरभंगा महाराज की इच्छा
इसे महानता ही कहेंगे कि उनकी दृष्टि में सिर्फ संस्कृत ही नहीं, प्राकृत और पाली भाषाओं की अमूल्य धरोहर भी थी. तभी तो विश्वविद्यालय की स्थापना के उद्देश्य को उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त किया था – मेरी समझ से संस्कृत विश्वविद्यालय का मुख्य उद्देश्य पाली और प्राकृत के साथ-साथ संस्कृत का ज्ञान देना होना चाहिये, जिससे कि प्राचीन विद्या एवं विद्वता की रक्षा हो और उसे यथासंभव अद्यतन बनाया जा सके. अतिप्राचीन भारतीय वैदिक भाषा के प्रति महाराजा कामेश्वर सिंह की इस निश्छल-निष्कपट भावना के अनुरूप 26 जनवरी 1961 को दरभंगा के राज परिसर में संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना हुई, राजमहल के एक हिस्से में. उस वक्त डा. जाकिर हुसैन बिहार के राज्यपाल और डा. श्रीकृष्ण सिंह मुख्यमंत्री थे.


इस विश्वविद्यालय के ‘डिग्रियों की मंडी’ बन जाने की सामान्य धारणा का मुख्य आधार यही है. इसे स्नातकोत्तर धर्मशास्त्र विभाग के प्राचार्य डा. श्रीपति त्रिपाठी सरीखे दागदार चेहरों से मजबूती मिल रही है. ऐसे दागदार चेहरे एक-दो नहीं, असंख्य हैं. इतने कि बहुत खोजने पर इक्के-दुक्के दागरहित चेहरे ही मिल पायेंगे.


उद्देश्य पवित्र था
दरभंगा महाराज की स्वार्थरहित अतुलनीय दानशीलता को दृष्टिगत रख उनके सम्मान में विश्वविद्यलय का नाम कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय रखा गया. आधिकारिक तौर पर लक्ष्य संपूर्ण विश्व की धरोहर संस्कृत, प्राकृत तथा पाली भाषा और इन भाषाओं में उपलब्ध ज्ञान-विज्ञान के असीम भंडार को संरक्षित करना, अध्ययन-अध्यापन के द्वारा, राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी तथा कार्यशाल और इन भाषाओं के प्राचीन एवं आधुनिक ग्रंथों के प्रकाशन के द्वारा प्रचार-प्रसार और उन्हें आज की आवश्यकता के रूप में प्रस्तुत करना तय किया गया. कितना पवित्र उद्देश्य है यह. इसकी प्राप्ति के सार्थक प्रयास होते, तो इन प्राचीन भारतीय भाषाओं के संवर्धन के साथ वैदिक ज्ञान-विज्ञान के अनुसंधान को नयी दिशा मिलती.

डिग्रियों में सिमट गयी संस्कृत
स्थापना के 60वें साल में भी यह उद्देश्य प्रस्तावना में ही पड़ा हुआ है. उससे बाहर नहीं निकल पाया है. बल्कि यूं कहें कि स्थापना के आरंभिक काल से ही पुश्त-दर-पुश्त कुंडली जमा रखे संस्कृत के तिजारतदारों ने बाहर निकलने नहीं दिया है. प्राकृत और पाली की तो कभी किसी रूप में गंभीर चर्चा भी नहीं होती. दोनों समृद्ध भाषाएं विश्वविद्यालय की स्थापना की भूमिका में ही हैं. यदा-कदा इसपर लोगों की नजर पड़ जाती है, इसके अलावा कुछ नहीं. संस्कृत मुख्य धारा में है, पर उसकी भी वैदिकता और उस भाषा में ज्ञान-विज्ञान की महत्ता गौण पड़ गयी है. संस्कृत का मतलब और महत्च सरल-सहज उपलब्ध डिग्रियों में सिमट-सिकुड़ गया है. शेष औपचारिकताओं में.


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डिग्रियों की मंडी
इस विश्वविद्यालय के ‘डिग्रियों की मंडी’ बन जाने की सामान्य धारणा का मुख्य आधार यही है. इसे स्नातकोत्तर धर्मशास्त्र विभाग के प्राचार्य डा. श्रीपति त्रिपाठी सरीखे दागदार चेहरों से मजबूती मिल रही है. ऐसे दागदार चेहरे एक-दो नहीं, असंख्य हैं. इतने कि बहुत खोजने पर इक्के-दुक्के दागरहित चेहरे ही मिल पायेंगे. लेकिन, ऐसे दागियों-आरोपितों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होती. संभवतः इस कारण कि कार्रवाई करने वालों में अधिसंख्य की बुनियाद में भी फर्जीवाड़ा ही है. डा. श्रीपति त्रिपाठी तकरीबन 38 वर्षों से स्नातकोत्तर धर्मशास्त्र विभाग में जमे हैं.

बुनियाद में फर्जीवाड़ा
फर्जी नियुक्ति-प्रोन्नति समेत कई तरह के गंभीर आरोप हैं. जांच समितियों ने आरोपों के सही पाया. विधि सम्मत कार्रवाई का अदालत का आदेश आया. इसके बावजूद वह विश्वविद्यालय में बेखौफ-बेलौस फहर रहे हैं. कार्रवाई के मामले में सभी सक्षम प्राधिकारों ने हाथ बांध रखे हैं. बिहार में उच्च शिक्षा की दुर्गति क्यों है, उसका यह भी एक बड़ा उदाहरण है.

तब भी फहर रहे हैं
हाल में ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा और जयप्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा में दागी व आरोपित को कुलसचिव पद पर आसीन कराने वाले से कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के दागदारों के खिलाफ कार्रवाई की उम्मीद व्यर्थ है. उच्च शिक्षा विभाग की स्पनंदनहीनता समझ से परे है. विश्वविद्यालय तो उनकी मुट्ठी में है ही! ऐसे हालात में संस्कृत विश्वविद्यालय से छात्र कौन-सा संस्कार पा रहे होंगे, इसे आसानी से समझा जा सकता है.

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