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टकराव की राजनीति : त्यागनी होगी ‘सौतिया डाह’ की प्रवृत्ति

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अविनाश चन्द्र मिश्र
2 जुलाई, 2021

पटना. भारत की संघीय शासन व्यवस्था में केन्द्र और राज्यों के बीच परस्पर सहयोग एवं समन्वय के लिए अधिकारों की सीमा तय रहने के बावजूद रार-तकरार की आशंका बराबर बनी रहती है. अलग-अलग दलों के सत्ता में रहने पर संघीय नियंत्रण बनाम स्वच्छंद शासन के रूप में यह अपरिहार्य-सी हो जाती है. आजादी बाद के प्रारंभिक कुछ वर्षों तक ऐसा कुछ अहसास नहीं हुआ. कारण सब जगह कांग्रेस सत्ता में थी. कहीं कोई शिकवा-शिकायत या रगड़ा-झगड़ा नहीं. केरल के वामंपथी मुख्यमंत्री ईएमएस नंबूदरीपाद प्रकरण को छोड़ 1950 से 1967 तक निर्विघ्न-निर्विवाद स्थिति रही. 1959 के ईएमएस नंबूदरीपाद प्रकरण के वक्त जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे. इन्दिरा गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष थीं. ईएमएस नंबूदरीपाद प्रकरण से केन्द्र-राज्य संबंधों में कड़वापन का बीजारोपण हो गया. 1967 में एक साथ 8 राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों के रूप में यह अंकुरित हो उठा. फिर तो केन्द्र से टकराव राजनीति का हिस्सा ही बन गया. राज्यों की इन संविद सरकारों को कांग्रेस ने कभी लोकतांत्रिक नजरिये से नहीं देखा. हालांकि, उनकी आयु लंबी नहीं हो पायी, अकाल मृत्यु हो गयी. तनावपूर्ण संबंधों की शुरुआत संभवतः वहीं से हुई. परन्तु, तब वैसी अभद्रता, अशिष्टता, अशालीनता नहीं थी, जो वर्तमान में विपक्ष, विशेषकर कांग्रेस शासित राज्यों के आचरण में दिख रही है. तृणमूल शासित पश्चिम बंगाल के लिए तो कोई सीमा ही नहीं रह गयी है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की अकड़ और बेमतलब की आक्रामकता संघवाद के लिए ही नहीं, राष्ट्र की अखंडता के लिए भी बड़ी चुनौती बनती जा रही है. केन्द्र में नरेन्द्र मोदी की पूर्ण बहुमत वाली मजबूत सरकार है. गठबंधन की विवशताओं से लगभग मुक्त खुद की बहुमत वाली सरकार वर्षों बाद सत्तारूढ़ हुई है. बेझिझक-बेहिचक निर्णय कर योजनाओं एवं कार्यक्रमों को लागू कर रही है. इससे सत्ता के विकेन्द्रीकरण का भ्रम पैदा हो गया है. नरेन्द्र मोदी सुशासन, विकास, समावेशी राजनीति में प्रतिस्पर्धा की बात करते हैं, तो विपक्ष शासित राज्य केन्द्र पर अपनी शक्तियों के दुरुपयोग का आरोप मढ़ते हैं. उनके आरोपों को आधारहीन कह एक झटके में खारिज नहीं किया जा सकता. पर, नजरंदाज इसे भी नहीं किया जा सकता कि सहयोग, समन्वय एवं स्वस्थ स्पर्धा की जगह ऐसे राज्यों ने संघवाद के खिलाफ जो रवैया अपना रखा है उससे बातचीत के जरिये समाधान की शायद कोई गुंजाइश नहीं रह गयी है. सीबीआई जांच संबंधी सामान्य सहमति, जीएसटी मुआवजा, कोरोना संक्रमण पर नियंत्रण, कृषि कानून आदि ऐसे अनेक मुद्दे हैं जिन पर उनके रुख असहयोगात्मक हैं. उनका अपना तर्क जो हो, शासन व्यवस्था और आंतरिक सुरक्षा की दृष्टि से इसे उचित नहीं कहा जा सकता. सत्तारूढ़ दलों की रीति-नीति, मूल्य-सिद्धांत व विचारधारा अलग-अलग हो सकते हैं. संघीय व्यवस्था दलगत राजनीति से परे संविधान का मूल ढांचा है. लोकतंत्र की मजबूती के लिए इसे बनाये रखना नितांत आवश्यक है. इसके मद्देनजर राजनीतिक दलों की सत्ता की राजनीति चुनाव तक सीमित रहनी चाहिए. चुनाव बाद की राजनीति राष्ट्रहित, राज्यहित और जनहित में सेवा की होनी चाहिए. केन्द्र और राज्य दोनों को संविधान-निर्धारित सीमा में रहना और समझना होगा. सिर्फ अधिकारों की बात से नहीं, कर्तव्यों के संपूर्ण निर्वहन से राष्ट्रव्यापी समन्वय का माहौल बनेगा. टकराव से राजनीतिक अनिश्चितता, अराजकता और अस्थिरता पैदा होगी, जो देर-सबेर राष्ट्र की अखंडता पर भी खतरा पैदा कर दे सकती है. देश की राजनीतिक सत्ता के वर्तमान स्वरूप की कल्पना संविधान बनानेवालों ने भी शायद नहीं की होगी. तभी तो केन्द्र और राज्यों के अधिकारों और कर्तव्यों को ढंग से परिभाषित-निरूपित नहीं किया. कालांतर में अधिकार के सवाल पर झगड़ा पसरने लगा तब 1983 में तकरार के कारणों को खोजने और आपसी संबंधों को वक्त के अनुरूप पारदर्शी बनाने की पहल हुई. उस साल सर्वोच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश आर एस सरकारिया और फिर 2007 में अवकाश प्राप्त प्रधान न्यायाधीश एम एम पंछी की अध्यक्षता में उच्चस्तरीय आयोग गठित हुए. परन्तु, उनकी सिफारिशों पर मुकम्मल रूप से अमल नहीं हुआ. परिणामतः आपसी टकराव सियासी ‘सौतिया डाह’ के रूप में परिवर्तित हो गया. इस राष्ट्रघाती प्रवृत्ति का द्विपक्षीय परित्याग नहीं हुआ तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जा सकता है.

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