रानीगंज-अररिया: यह कहानी है समाज की निष्ठुरता की!
रूद्रकिंकर वर्मा
2 जुलाई, 2021
अररिया. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. यह महान यूनानी दार्शनिक अरस्तू का कथन है, जिसे अध्ययन-अध्यापन में सामाजिक विषय का पहला पाठ माना जाता है. पर, इसकी प्रासंगिकता और अहमियत तब कुछ अधिक थी जब एक दूसरे के पूरक के रूप में मनुष्य समाज केन्द्रित था. वर्तमान में पूंजीवादी व्यवस्था, बाजार की आक्रामकता और उपभोक्तावादी उच्चाकांक्षा में व्यक्ति समाज के प्रति अपनी जिम्मेवारियों को भूल आत्मकेन्द्रित हो गया है. एक दूसरे का पूरक नहीं रहने से मनुष्य को अब मुकम्मल रूप में सामाजिक प्राणी नहीं माना जा सकता है. इधर के दिनों में कोरोना संक्रमण के अप्रत्याशित भय ने असहिष्णुता, संवेदनहीनता और क्रूरता की ऐसी जहरीली लहर पैदा कर दी है जिसमें सामाजिक संबंधों का कोई खास मतलब नहीं रह गया है. परिवार के आत्मीय रिश्ते दरक गये हैं. संस्कार और संस्कृति में बंधे रहने वाले बिहार में ऐसा कुछ अधिक दिख रहा है. समाज तो संज्ञा शून्य हो ही गया है, बेटा-बेटी भी पुत्र-कर्तव्य, रीति-नीति व लोक लाज को त्याग मां-बाप का अंतिम संस्कार करने तक से भाग रहे हैं. कहीं-कहीं मां-बाप भी अपनी संतानों को सद्गति देने से मुकर जा रहे हैं. ऐसे में अन्य रिश्तों की निर्बाहता का अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है. हालांकि, ऐसे भी अनेक मामले सामने आये हैं कि घर-परिवार और नाते-रिश्तों के नाक-भौं सिकुड़ा लेने, असहनीय असहयोग करने की स्थिति में सामाजिक बंदिशों और पारंपरिक रिवाजों को तोड़ बेटियों ने ‘पुत्र धर्म’ की तरह ‘पुत्री धर्म’ का बेहिचकनिर्वहन किया. माता-पिता का अंतिम संस्कार ही नहीं, सपिण्डी श्राद्ध भी किया. इस पर कहीं-कहीं धर्म के ठेकेदारों की भृकुटियां तनीं और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सामाजिक-मानसिक यातनाओं से भी उन्हें दो-चार होना पड़ा. ऐसे में यह कहा जाये कि पारिवारिक रिश्तों व सामाजिक संबंधों के इस अकल्पित-अवांछित बिखराव ने मनुष्य को असामाजिक प्राणी बना दिया है, तो यह कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.
कोरोना संक्रमण भय आधारित समाज की निष्ठुरता व हृदयहीनता की ऐसी ही दर्दभरी कहानी है मधुलत्ता गांव की. इस कहानी में गांव वालों की कुछ बेहयाई भी है. रिश्तेदारों, पड़ोसियों एवं अपने कहने-मानने वालों के आकस्मिक संकट के समय मुंह फेर लेने की अव्यावहारिकता पर संपूर्ण मानवता का ध्यान खींचने वाला यह गांव अररिया जिले के रानीगंज थाना क्षेत्र में है. विशनपुर ग्राम पंचायत के तहत आता है. इसी गांव के थे वीरेन्द्र मेहता. ग्रामीण चिकित्सक. बगैर किसी चिकित्सीय डिग्री-डिप्लोमा के इलाज करने वाले ऐसे ही लोगों को ‘झोलाछाप डाक्टर’ कहते हैं. डिग्रीधारी चिकित्सकों एवं समाज के प्रबुद्ध लोगों की नजर में ये भले महत्वहीन एवं ‘समाज विरोधी’ हों, पर यह जमीनी हकीकत है कि गांवों की चरमरायी-धराशायी स्वास्थ्य व्यवस्था के बीच जन सामान्य की चिकित्सा इन्हीं ‘झोला छाप डाक्टरों’ पर आश्रित है. सामान्य समझ में गांवों में ‘धरती के भगवान’ यही हैं. जान जोखिम में डाल कोरोना के खिलाफ भी जंग यही लड़ रहे हैं. वीरेन्द्र मेहता ने ‘डाक्टरी’ के साथ-साथ घर में दवा की छोटी-मोटी दुकान भी खोल रखी थी. बूढ़ी मां, पत्नी और तीन बच्चों-दो पुत्रियां एवं एक पुत्र – वाले परिवार के भरण-पोषण का यही एकमात्र उपाय था. इसी पर बच्चों के सपने पल रहे थे. पापा से भी बड़ा डाक्टर बनने के सपने. आठवीं तक ही पढ़ पाये माता-पिता के भी कुछ अपने ख्वाब थे. बच्चे पढ़ लिखकर अफसर बनेंगे. लेकिन, विधि ने तो कुछ और ही विधान लिख रखा था. पत्थर दिल को भी दहला देने वाला विधान. बड़ी बेदर्दी से मौत बांट रहे कोरोना वायरस का गांव में प्रवेश हुआ नहीं कि पहले 46 वर्षीय वीरेन्द्र मेहता और चार दिनों बाद 38 वर्षीया उनकी पत्नी प्रियंका देवी को उसने अपना ग्रास बना लिया. हंसता-खेलता परिवार एकबारगी गहरे सदमें में समा गया. अचानक आकार लिये दुखों के पहाड़ तले तमाम सपने बिखर गये. पिता की सांसें ठहर गयीं तो दुश्चिन्तिाओं में डूबते-उपलाते बच्चों की उम्मीदें बीमार मां पर टिक गयीं. पर, दुर्भाग्य ऐसा कि चार दिनों बाद वह साया भी सिर से उठ गया. परिवार पूरी तरह असहाय हो गया.18 वर्षीया बड़ी बेटी सोनी कुमारी,14 वर्षीया उसकी बहन चांदनी, 12 वर्षीय भाई नीतीश कुमार और इन सबकी बूढ़ी दादी का भविष्य घने अंधकार में घिर गया. लंबी जिंदगी. कमाई का कोई साधन नहीं…!
स्थानीय लोगों की मानें, तो शुरुआती दौर में इस इलाके में कोरोना वायरस का कहीं कोई संक्रमण नहीं था. बाद के दिनों में संक्रमित शहरों से काफी संख्या में भागकर आये क्षेत्रीय श्रमिकों ने इसे पसार दिया. ऐसा कहा जाता है कि उन श्रमिकों में अधिकतर संक्रमित थे. कई की मौत हो गयी. उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुए कई लोग भी संक्रमित हो गये. ऐसी चर्चा है कि वीरेन्द्र मेहता भी 16 अप्रैल 2021 को पूर्णिया जिले के अपने एक खास दिवंगत रिश्तेदार के अंतिम संस्कार में शामिल होने गये थे. संभवतः पत्नी प्रियंका देवी भी साथ थीं. सामाजिकता और रिश्ता निभाने की परंपरा की दृष्टि से इसे गलत नहीं कहा जा सकता, पर उनसे यह चूक जरूर हो गयी कि उन्होंने कोरोना संक्रमण की बाबत सतर्कता नहीं बरती. दुष्परिणाम स्वरूप उसकी चपेट में आ गये. वैसे, कुछ लोगों का यह भी कहना है कि गांव के कोरोना पीड़ितों का इलाज करने के क्रम में वह संक्रमित हुए. जो हो, पूर्णिया से गांव लौटने के एक हफ्ते बाद वीरेन्द्र मेहता को बुखार चढ़ गया और खांसी होने लगी. 27 अप्रैल को तबीयत कुछ ज्यादा बिगड़ गयी. उसी दौरान प्रियंका देवी में भी संक्रमण के लक्षण दिखने लगे. छोटी बहन चांदनी कुमारी और भाई नीतीश कुमार को बूढ़ी दादी के सहारे घर में छोड़ सोनी कुमारी दोनों को रानीगंज रेफरल अस्पताल ले गयी. साथ में चचेरे भाई भी थे. रानीगंज रेफरल अस्पताल ने बगैर जांच-पड़ताल के उन्हें फारबिसगंज कोविड केयर रेण्टर रेफर कर दिया. वहां जांच हुई. वीरेन्द्र मेहता और प्रियंका देवी दोनों संक्रमित पाये गये. जांच के बाद उन्हें पूर्णिया सदर अस्पताल भेज फारबिसगंज कोविड केयर सेण्टर ने अपनी जिम्मेवारी पूरी कर ली. पूर्णिया सदर अस्पताल में शायद जगह नहीं मिली. निजी अस्पताल में भर्ती कराने को बाध्य होना पड़ गया. अस्पताल- दर-अस्पताल घुमाने की वजह से गंभीर अवस्था में पहुंच गये वीरेन्द्र मेहता का समुचित इलाज नहीं हो पाया और पूर्णिया में ही उनकी सांसें सदा के लिए थम गयीं. सांसें बनाये रखने के लिए सोनी कुमारी ने गाय और बकरियां तक बेच दी. लेकिन, वह भी कोई काम नहीं आया.
बीमार मां को अस्पताल में छोड़ सोनी कुमारी पिता का शव गांव ले गयी. संक्रमण फैलने और तमाम लोगों के उसकी चपेट में आ जाने का खतरा बता गांव वालों ने दाह संस्कार करने से मना कर दिया. उनकी बातों को मान वीरेन्द्र मेहता के पार्थिव शरीर को घर के बगल वाली जमीन में दफना दिया गया. अंतिम संस्कार की क्रिया-प्रक्रिया से गांव के लोग दूर-दूर रहे. सोनी कुमारी को चचेरे भाइयों का सहयोग मिला. पर, प्रियंका देवी के दफन के वक्त सबने मुंह मोड़ लिया. पैसे खत्म हो गये. गांव वाले उधार देने से इनकार कर गये. शायद समझ यह कि उधार के पैसे बच्चे लौटायेंगे कैसे? सोनी कुमारी को मजबूरन गंभीर रूप से बीमार मां को गांव ले आना पड़ा. वीरेन्द्र मेहता के अंतिम संस्कार के दूसरे ही दिन प्रियंका देवी की स्थिति काफी बिगड़ गयी. शायद बच जाये, इस आस में उन्हें पुनः रानीगंज रेफरल अस्पताल ले जाया गया. पूर्व की तरह वहां से फारबिसगंज कोविड केयर सेण्टर भेज दिया गया. समय पर समुचित इलाज नहीं होने से स्थिति चिंताजनक हो गयी. तब फरबिसगंज कोविड केयर सेण्टर ने जननायक कर्पूरी ठाकुर मेडिकल कालेज एवं अस्पताल, मधेपुरा रेफर कर दिया. मधेपुरा पहुंचने से पहले ही सड़ी हुई स्वास्थ्य व्यवस्था को कोसते हुए प्रियंका देवी इस मतलबी दुनिया से विदा हो गयीं. सोनी कुमारी शव लेकर गांव लौटी तो अनाथ हुए बच्चों की मदद के लिए कोई आगे नहीं आया. अड़ोस-पड़ोस के लोग भी नहीं. बच्चों की अक्षमता-असमर्थता को देखने-समझने के बावजूद गांव-समाज के लोग अंतिम संस्कार से दूर रहे. किसी ने कोई हाथ नहीं बंटाया. सोनी कुमारी ने किसी तरह पिता की ‘कब्र’ के बगल में ही गड्ढे की खुदाई की और खुद पीपीई कीट पहन मां के शव को उसमें दफना अंतिम संस्कार कर दिया. किसी अन्य का कोई सहयोग नहीं मिला. सबने उसे अकेला छोड़ दिया. किसी ने उन्हें छूआ तक नहीं. यह गांव-समाज द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से दी गयी मानसिक प्रताड़ना ही तो थी.
मातम के मौके पर दुख बांटना, सहानुभूति जताना और ढाढ़स बंधाना भारतीय समाज की अहम और पवित्र परंपरा है. यह कहने में कोई हिचक नहीं कि मधुलत्ता के निष्ठुर लोगों ने इसका निर्वाह नहीं किया. अमानवीयता की हद यह कि दोहरी मौत के अथाह शोक में डूबे वीरेन्द्र मेहता की बूढ़ी मां और तीनों बच्चे चार दिनों तक बिना खाये रह गये. कोई उधर झांकने तक नहीं आया. एक तरह से अघोषित सामाजिक बहिष्कार कर दिया. आस-पास के ‘अपनों’ का यह व्यवहार उन बच्चों के लिए माता-पिता की मौत जैसा ही पीड़ादायक रहा. बीमार रहते मां ने जो भोजन बनाया था वही आखिरी खाना था. उनकी मौत के बाद के चार दिनों तक किसी ने नहीं पूछा कि घर में कुछ खाने को है या नहीं. बच्चों की कोरोना रिपोर्ट निगेटिव आने तक सहयोग-सहायता के लिए एक भी ग्रामीण नहीं आया. सोनी कुमारी का दायित्व बोध, परिवार की बेबसी और समाज की बेरुखी सोशल मीडिया की संवेदनाओं को झकझोरने लगी तब मदद के लिए जिला प्रशासन की पहल हुई. अनुमंडल पदाधिकारी शैलेश चन्द्र दिवाकर और अनुमंडल पुलिस पदाधिकारी पुष्कर कुमार ने उन्हें तमाम आवश्यक उपभोक्ता सामग्री उपलब्ध करायी. कई सामाजिक-राजनीतिक कार्यकत्र्ता भी सहयोग के लिए आगे आये. गांव के संवेदनशून्य लोगों ने चार दिनों तक दूरियां बनाये ही रखी. लेकिन, ऐसे सहानुभूतिशून्य लोगों को वीरेन्द्र मेहता दंपत्ति का ‘श्राद्ध भोज’ खाने में कोई हिचक नहीं हुई. इसमें तकरीबन डेढ़ सौ लोग जुटे थे. कहते हैं कि उनमें कई कोरोना संक्रमित भी थे. इससे अन्य को संक्रमित होने का कोई भय नहीं हुआ. इसे उनकी बेहयाई नहीं तो और क्या कहा जायेगा? ऐसा बताया गया कि ‘श्राद्ध भोज’ के दिन गांव के 35 लोग संक्रमित थे. विशनपुर पंचायत के मुखिया सरोज कुमार मेहता भी. वीरेन्द्र मेहता दंपत्ति के अलावा दो और लोगों की मौत हुई. इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि भय के ऐसे माहौल में भी डेढ़ सौ लोग भोज खाने पहुंच गये!
इस कहानी का एक और दुखद, पर रोचक पहलू है. मधुलत्ता गांव रानीगंज विधानसभा क्षेत्र के तहत आता है. यह क्षेत्र अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित है. अचमित ऋषिदेव विधायक हैं- सत्तारूढ़ जद(यू) के. 2015 में भी वही निर्वाचित हुए थे. छह साल से विधायक हैं, पर क्षेत्र की बदहाल चिकित्सा व्यवस्था पर कभी उनका ध्यान नहीं गया. क्षेत्र में कोरोना से हुई अन्य मौतों की बात छोड़ दें, इस बदहाली की भेंट चढ़ गये मधुलत्ता गांव के वीरेन्द्र मेहता दंपत्ति के मामले पर भी उन्होंने मुंह में दही जमाये रखा. पीड़ित परिवार को सहयोग-सहायता की बात दूर, सुर्खियों में रहे इस मामले में सांत्वना-सहानुभूति के दो शब्द भी नहीं निकले. लेकिन, जब खुद पर पड़ा तब उन्हें स्वास्थ्य व्यवस्था की दुरावस्था दिखने लग गयी. विरोध के बोल भी फूटने लग गये. कोरोना केयर फंड के लिए विधयक निधि से दो करोड़ रुपये देने के पछतावे में अपनी ही सरकार को कोस बैठे. स्वास्थ्य विभाग को नकारा तक बता दिया. उनका गुस्सा वाजिब था. उनके साथ जो हुआ, भगवान न करे किसी और के साथ हो. बहुत दुखद घटना हुई. नरपतगंज प्रखंड की फतेहपुर पंचायत निवासी अचमित ऋषिदेव की पत्नी मंजुला देवी कोरोना संक्रमित हो गयीं. शुरुआती इलाज उनका घर में ही चला. कोई सुधार नहीं हुआ. तब अररिया सदर अस्पताल ले जाया गया. जीवन रक्षा के लिए वेंटिलेटर की जरूरत थी. सदर अस्पताल में यह सुविधा उपलब्ध नहीं थी. वैसे, इस अस्पताल के लिए पीएम केयर फंड से छह वेंटिलेटर आये थे. तकनीकी कारणों से सबके सब यूं ही पड़े हुए हैं. अररिया सदर अस्पताल ने बेहतर इलाज के लिए उन्हें फारबिसगंज कोविड केयर सेण्टर भेज दिया. वेंटिलेटर की व्यवस्था वहां भी नहीं थी. सिर्फ आॅक्सीजन पर रखा गया. हालात में कोई बदलाव नहीं आया. इस बीच विधायक अचमित ऋषिदेव को मुरलीगंज में वेंटिलेटर होने की जानकारी मिली. पर, दुर्भाग्य यह कि वहां पहुंचने से पहले ही मंजुला देवी मौत के आगोश में समा गयीं. जागरूक लोगों ने दुख जताया, पर साथ में यह भी जोड़ा कि मधुलता गांव के वीरेन्द्र मेहता दम्पत्ति की मौत के वक्त ही अचमित ऋषिदेव स्वास्थ्य सेवा की बदहाली पर तल्ख तेवर अपनाते, तो शायद उनकी पत्नी मंजुला देवी का दम इलाज के अभाव में नहीं टूटता.