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कहर कोरोना का: डाक्टरों की ज्यादा मृत्यु बिहार में ही क्यों?

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देवेन्द्र मिश्र
2 जुलाई, 2021

पटना. पटना के प्रख्यात हृदय रोग विशेषज्ञ डाॉ प्रभात कुमार की इसी 18 मई को कोरोना से मौत की खबर के साथ जब यह आंकड़ा सामने आया कि कोरोना की दूसरी लहर में दूसरे राज्यों की तुलना में सबसे अधिक डाक्टरों की जान बिहार में गयी है, तो इसने जनमानस को झकझोर कर रख दिया. एक से एक ख्यातिनाम विशेषज्ञ डाक्टरों के उसका ग्रास बन जाने से सरकार भी सकते में आ गयी. चिंता इस बात की कुछ अधिक है कि यह संख्या सौ पार करने के बाद भी निरंतर बढ़ ही रही है. पहली लहर में बिहार में कोरोना संक्रमण से 42 डाक्टरों को जान गंवानी पड़ी थी. संक्रमण के उस दौर में इस बीमारी के बारे में बहुत कुछ स्पष्ट नहीं था. वैक्सीन भी नहीं आयी थी. बिहार में कोरोना से किसी डाक्टर की मौत का पहला मामला 4 जुलाई 2020 को सामने आया था. इसका प्रथम शिकार गया के मगध मेडिकल कालेज अस्पताल में कार्यरत डाॉ अश्विनी कुमार हुए थे. वह कोरोना मरीजों के इलाज में लगे हुए थे और खुद संक्रमित हो गये. उन्हें पटना के एम्स में भर्ती कराया गया था. संक्रमण की दूसरी लहर में डाक्टरों की मौत के संदर्भ में बिहार के बारे में जो तथ्य सामने आये हैं वे निःसंदेह चिंताजनक हैं. इस पर चिंतन की जरूरत है. इसकी वजह की गहन पड़ताल होनी चाहिये. ये भी बताया जाना चाहिये कि ऐसे डाक्टरों में से कितने ने कोरोना वैक्सीन का पहला या दूसरा डोज लिया था या कोई डोज लिया ही नहीं था. विशेषज्ञ इस पर भी शोध करें तो अच्छा होगा कि काम के अत्यधिक बोझ और दबाव-तनाव या लापरवाही की वजह से भी तो उन्हें कोरोना ने नहीं जकड़ा? इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) को भी इस पर विस्तार से बताना चाहिये. संयोग से आईएमए के निर्वाचित राष्ट्रीय अध्यक्ष डाॉ सहजानंद प्रसाद सिंह बिहार के ही हैं. इस दृष्टि से उनका भी दायित्व बनता है.

डाक्टरों की मौत पर सियासत भी हुई. मुख्य विपक्षी दल राजद ने ट्वीट कर कहा- ‘बिहार सरकार को श्वेत पत्र जारी कर बताना चाहिये कि कोरोना की दूसरी लहर में देश के अन्य राज्यों की अपेक्षा कागज पर कम कोविड सम्बंधित मृत्यु दिखाने के बावजूद देश में सर्वाधिक बिहार में ही डाक्टरों की मृत्यु क्यों हुई? प्रभावित परिवारों के लिए आईएमए को चंदा जमा क्यों करना पड़ा?’ आईएमए के सचिव डाॉ सुनील कुमार के अनुसार बिहार में कोरोना वायरस के कारण डाक्टरों की मौत का प्रतिशत देश के बाकी राज्यों की तुलना में अधिक है.
वैक्सीनेशन के प्रति उदासीनता देश में जनवरी 2021 से हेल्थकेयर वर्कर्स का वैक्सीनेशन शुरू हो गया था, लेकिन तकरीबन चार-साढ़े चार महीने में सिर्फ 66 फीसद हेल्थ केयर वर्कर्स को दूसरी डोज लगी. आईएमए का कहना है कि वह लगातार कोशिश कर रहा है कि डाक्टर और तमाम हेल्थ केयर वर्कर्स वैक्सीन लें. बताया जाता है कि जिन डाक्टरों की मौत हुई उनमें से सिर्फ 3 फीसद को ही वैक्सीन की दोनों डोज लगी थी. इस मामले में बिहार से संबधित कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है. कुछ माह पूर्व केन्द्र सरकार ने खुद इस बात पर चिंता जतायी थी कि कई डाक्टर वैक्सीन नहीं ले रहे हैं. सरकार ने तब डाक्टरों से अपील की थी कि वैक्सीनेशन करवा लें और दूसरों को भी वैक्सीन लगाने की सलाह दें. आईएमए के महासचिव डाॉ जयेश लेले ने एक न्यूज चैनल से बातचीत में बताया कि वे लोग इस बात की हर मुमकिन कोशिश कर रहे हैं कि सभी डाक्टर वैक्सीन लें. वैसे, डाक्टरों में कोरोना संक्रमण का घातक होना उनका ज्यादा काम करना भी है. कभी-कभी तो डाक्टर बिना आराम किये 48 घंटे तक काम करते हैं जिससे वायरल लोड बढ़ता है और संक्रमण उनके लिए जानलेवा हो जाता है.

उपकरणों की गुणवत्ता पर सवाल

बिहार में कोरोना की दूसरी लहर में तकरीबन सौ से अधिक अपने सीनियर और जूनियर की मौत से दहशत में रह रहे डाक्टरों के सामने एक समस्या या खतरा यह है कि ड्यूटी के दौरान उन्हें जो मास्क पहनने को दिया जा रहा है वह सुरक्षा के मानक पर सही नहीं है. आईएमए, बिहार ने डाक्टरों में संक्रमण के मामले सबसे ज्यादा मिलने का जिम्मेदार राज्य सरकार को ठहरा रहा है. उसका आरोप है कि जो मंत्री और नेता अस्पतालों में विजिट करने आते हैं उनके लिए डाक्टरों से ज्यादा बेहतर गुणवत्ता वाले सुरक्षा उपकरणों (पीपीई किट वगैरह) का इंतजाम रहता है. राजधानी पटना के सबसे बड़े कोविड डेडिकेटेड हास्पिटल एनएमसीएच के जूनियर डाक्टरों ने मास्क को लेकर सुरक्षा पर बड़ा सवाल खड़ा किया. उनका कहना रहा कि मास्क में मेटल नोज क्लिप रहता ही नहीं है. एक अन्य जूनियर डाक्टर देवांशु का कहना रहा कि जो एन-95 मास्क दिये गये हैं उनमें मेटल का नोज क्लिप लगाया ही नहीं गया था. सिर्फ ऊपर से डिजाइन बना दिया गया था. मेटल क्लिप नहीं होने से नाक के पास गैप होता है जिससे संक्रमण को रोका नहीं जा सकता है. बिना नोज क्लिप वाले मास्क से हमेशा खतरा बना रहता है. ऐसा मास्क चेहरे पर सही तरीके से नहीं बैठता है. इससे वायरस के नाक तक पहुंचने का खतरा रहता है. सभी को पता है कि नाक से ही वायरस शरीर में घुस रहा है और नाक ही उसके लिए दरवाजा है. जब नाक ही मास्क से सुरक्षित नहीं तो पीपीई किट का क्या मतलब है, यह तो खिड़की जैसा है.

इसके बरक्स बिहार मेडिकल सर्विसेज इंफ्रास्ट्रक्चर कारपोरेशन (बीएमएसआईसीएल) के प्रबंध निदेशक प्रदीप झा का कहना रहा कि मास्क में ऐसी गड़बड़ी नहीं है, कौन से मास्क की एनएमसीएच में सप्लाई है, इस निगम का है या फिर लोकल, इसे देखना होगा. आईएमए के राज्य सचिव डाॉ सुनील कुमार कहते हैं कि राज्य में कोरोना की दूसरी लहर में बड़ी संख्या में डाक्टरों की जान गयी है, हम रोज शोक सभाएं कर उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना कर रहे हैं. हम नहीं चाहते हैं कि ऐसा अब कभी हो. इसलिए डाक्टरों को दिये जाने वाले सुरक्षा के उपकरणों की गुणवत्ता पूरी तरह से सही होनी चाहिये. इसमें कहीं भी चूक होगी तो खतरा बढ़ सकता है. डाॉ सुनील कुमार कहते हैं – ‘हमारी बात को राज्य के स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव प्रत्यय अमृत ने भी स्वीकार किया जब वह पटना के नालंदा मेडिकल कालेज अस्पताल (एनएमसीएच) का दौरा करने गये थे. वहां की हालत देखकर उन्होंने साफ कहा था कि डाक्टर और मेडिकल स्टाफ के पास बेहतर क्वालिटी के सुरक्षा उपकरण नहीं हैं. जबकि एनएमसीएच राज्य का सबसे बड़ा और सबसे पहला कोरोना डेडिकेटेड अस्पताल है. बाकी अस्पतालों के डाक्टरों की हालत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है.

उम्रदराज डाक्टरों को भी लगाया गया

एक तथ्य यह भी सामने आया कि सरकार के अधीन जितने डाक्टर अभी कार्यरत हैं उनमें से आधे से अधिक की उम्र 50 साल से ज्यादा हो गयी है. विभाग से कई बार यह कहा गया कि 60 साल से अधिक आयु वाले डाक्टरों को कोविड की ड्यूटी नहीं दी जाये, मगर इन डाक्टरों से पिछले कई महीनों से बिना छुट्टी के काम कराया जा रहा है. छोटे-बड़े अनेक डाक्टरों की लगातार शिकायत है कि उन्हें कोरोना ड्यूटी करने के निर्धारित दिन के बाद कुछ दिन होम कोरेंटाइन के लिए अवकाश दिया जाना चाहिये, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है. डाॉ अजय कुमार के मुताबिक डाक्टरों को एक साल से अधिक समय तक कोरोना का सामना करने के दौरान आराम नहीं मिला. नतीजा ये हुआ कि वे थक गये और इससे उनकी प्रतिरक्षा यानी इम्यून सिस्टम पर खराब असर पड़ा. प्रदेश में सरकारी डाक्टरों के रिटायरमेंट की उम्र 67 साल है. डाक्टरों की भारी कमी है, इसलिए रिटायरमेंट के बाद तीन साल के लिए संविदा पर भी रखने का प्रावधान है.

आईएमए की जांच कमेटी

बड़ी तादाद में डाक्टरों की कोरोना से मौत का मुद्दा गरमाया तब भी बिहार सरकार की ओर से आधिकारिक तौर पर कुछ नहीं कहा गया और न इसकी विशेषज्ञों की टीम बना पड़ताल की पहल हुई. विलंब से ही सही आईएमए, बिहार ने मौत के कारणों की जांच के लिए बारह सदस्यीय कमेटी बनायी. संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष डाॉ सहजानन्द प्रसाद सिंह को जांच कमेटी का चेयरमैन बनाया गया है. जांच कमेटी में डाॉ अजय कुमार, डाॉ कैप्टन सिंह, डाॉ मंजू गीता मिश्रा, डाॉ बसंत सिंह, डाॉ डीपी सिंह, डाॉ राजीव रंजन, डाॉ सुनील कुमार आदि को शामिल किया गया है. कमेटी को जल्द से जल्द जांच रिपोर्ट सौंपने को कहा गया है. जांच रिपोर्ट को संगठन सरकार को सौंपेगा, ताकि सुरक्षात्मक उपाय किये जा सकें. देखने वाली बात यह होगी कि रिपोर्ट कब तक आती है, सरकार के पास कब तक जाती है, सरकार उसे मिलते ही सुरक्षात्मक उपाय करने लगेगी या उसके अध्ययन के लिए अपनी कोई कमेटी बना देगी. जैसा कि आमतौर पर होता है. फिर वह कमेटी अपनी क्या संस्तुति देती है आदि-आदि.

मुआवजा माने आकाश से तारे तोड़ना

केन्द्र सरकार ने कोविड-19 की रोकथाम से संबद्ध डाक्टरों को फ्रंट वारियर्स घोषित कर मृतक डाक्टरों के आश्रितों को 50 लाख रुपये का भुगतान, एक आश्रित को नौकरी या मृत डाक्टर के सेवाकाल का पूर्ण वेतन देने की स्कीम घोषित कर रखी है. गरीब कल्याण योजना के तहत उसने द न्यू इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड के माध्यम से डाक्टरों के बीमा भुगतान का प्रावधान किया है. लेकिन, लालफीताशाही और घुरपेचड़ तथा बीमा कम्पनी के टालमटोलू रवैये पर डाक्टरों में असंतोष है. बिहार हेल्थ सर्विसेस असोसिएशन (भासा) व आॅल इंडिया फेडरेशन आॅफ गवर्नमेंट डाक्टर असोसिएशन के महासचिव डाॉ रणजीत कुमार ने इस मामले को गंभीरता से उठाया है. इसे मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक के संज्ञान में लाया है. मृत डाक्टरों के परिजन बीमा राशि की आस में अब धैर्य खो रहे हैं. उनके सामने परिवार और बच्चों की देखभाल, नियमित आजीविका के प्रश्न खड़े हो गये हैं. बताया जाता है कि राज्य में कोरोना संक्रमण से मृत मात्र चार-छह डाक्टरों के परिजनों को ही अबतक 50 लाख की बीमा राशि प्राप्त हो सकी है. इनमें डाॉ उमेश कुमार सिंह, डाॉ रति रमण झा, डाॉ नरेंद्र कुमार सिंह और डाॉ उमेश्वर प्रसाद वर्मा के परिजन शामिल हैं.

राज्य के स्वास्थ्य विभाग की लापरवाही का आलम यह है कि कोरोना संक्रमित मृत डाक्टर से संबंधित सभी आवश्यक कागजात समय पर केन्द्र को नहीं भेजे जा रहे हैं. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से लेकर राज्य स्वास्थ्य समिति तक में लापरवाही इस कदर बरती जा रही है कि जैसे-तैसे कागजात तैयार किये जाते हैं. सभी कागजात जिला सिविल सर्जन के माध्यम से राज्य स्वास्थ्य समिति और फिर भारत सरकार को भेजे जाते हैं. बीमाकत्र्ता कंपनी कागजात के आधे-अधूरे होने पर उसे वापस कर देती है या रद्द कर देती है, जबकि कोरोना से मौत के प्रमाणपत्र के आधार पर संबंधित मृत डाक्टर के नामित के खाते में राशि का स्थानांतरण कर दिया जाना चाहिये. नाम का लफड़ा भी सामने आ रहा है. पटना में तैनात एक डाक्टर, जिनकी मौत कोरोना से हो गयी, उनकी पत्नी के नाम विवाह पूर्व मीना कुमारी था जो विवाह के बाद मीना कुमार हो गया. इस वजह से मुआवजे का भुगतान लटका दिया गया. बीमाकत्र्ता कम्पनी को सही तथ्य विभागीय अधिकारी नहीं दे रहे हैं. इसलिए कम्पनी भी अपने नियमों के तहत कागजात को अपूर्ण कह वापस भेजदे रही है.

प्राइवेट डाक्टरों के लिए मुआवजे का प्रावधान नहीं

कोरोना काल में राज्य सरकार के आदेश पर निजी क्लीनिकों को भी कोविड सेंटर खोलने को कहा गया था. लेकिन, जो डाक्टर निजी क्लीनिकों में मरीजों के इलाज के दौरान कोरोना संक्रमित होकर शहीद हो गये, उनके परिजनों को मुआवजा देने का कोई प्रावधान नहीं है. जैसे सामान्य व्यक्ति को चार लाख रुपये मुआवजा दिये जाने का प्रावधान है, उसी प्रकार इन्हें भी सामान्य श्रेणी में रखा गया है, जबकि डाक्टर सरकारी अस्पताल के हों या निजी क्लीनिक के, सरकार के आदेश पर ही मरीजों की जांच और इलाज में लगे हैं. जानकारी के अनुसार तमिलनाडु सरकार ने अपने राज्य में निजी डाक्टरों की कोरोना से मौत पर 25 लाख रुपये के भुगतान का निर्देश दे रखा है. आईएमए बिहार के वरीय उपाध्यक्ष डाॉ अजय कुमार ने तमिलनाडु की तरह बिहार में भी निजी क्लिनिकों के कोरोना संक्रमण से मृत डाक्टरों के परिजनों को मुआवजा देने की मांग उठायी है. आईएमए, बिहार के पूर्व अध्यक्ष डाॉ विमल कारक ने सरकारी एवं निजी डाक्टरो के ऐसे परिजनों को मुआवजे का भुगतान एक निश्चिम समय-सीमा के अंदर करने पर जोर दिया है. आईएमए के राष्ट्रीय निर्वाचित अध्यक्ष डाॉ सहजानन्द प्रसाद सिंह का कहना है कि ऐसा होने से डाक्टरों का मनोबल ऊंचा रहेगा. लेकिन, व्यवस्था ढर्रा बदलने के प्रति थोड़ा भी गंभीर नहीं दिख रहा है.

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