चतुर्भुज स्थान : नहीं गूंजती घुंघरूओं की छनक
सत्येन्द्र मिश्र
2 जुलाई, 2021
मुजफ्फरपुर. म्यूजिकल ग्रुप के कार्यक्रमों के बढ़ रहे चलन और उससे जुड़ी बार बालाओं की मंचीय ‘अश्लीलताओं’ के प्रति अप्रत्याशित आम आकर्षण में कोठों पर रहने वाली पारंपरिक नर्तकियों और गायिकाओं का महत्व तो मिट ही रहा है, कोरोना संक्रमण काल में कद्रदानों के दूर-दूर रहने से दो जून की रोटी भी बमुश्किल मिल पा रही है. अचानक खड़ा हुए इस भीषण आर्थिक संकट से उबरने के लिए तात्कालिक उपाय के तौर पर उन्हें गहने गिरवी रखने पड़ रहे हैं. ब्याज की ऊंची दरों पर कर्ज लेने को मजबूर हैं. ऐसी नर्तकियों और गायिकाओं के छोटे-बड़े मुहल्ले बिहार के अनेक शहरों में थे. पेशागत विकृतियों की वजह से कुछ अपवादों को छोड़ सबके सब उजड़ गये या फिर देह की अघोषित मंडी में तब्दील हो गये. मुजफ्फरपुर का चतुर्भुज स्थान भी कमोबेश इस रूप में बदनाम है. पर, कथित रूप से वहां ‘देहवालियों’ का मुहल्ला अलग है. मूल मुहल्ले में मुजरा-ठुमरी वाली ‘कोठा-संस्कृति’ पुराने स्वरूप में आबाद है. यह अलग बात है कि मुजरा की महफिलें अब शायद ही कभी सजती हैं. आमतौर पर वहां अब न तबले की थाप सुनाई पड़ती है और न घुंघरु की खनक गूंजती है और न ही ठुमरी के बोल फूटते हैं. ठुमके की अदाएं भी नहीं दिखती हैं. सब कहने-सुनने भर के लिए अतीत की बात हो गयी हैं. हर तरफ कोरोना संक्रमण जनित सन्नाटा ही सन्नाटा है. मुहल्ले की अधिकतर नर्तकियों और गायिकाओं की जिंदगी रईसों एवं धन वालों के शादी-ब्याह या अन्य मांगलिक आयोजनों में नाच-गान के मेहनताना से चलती है. दुर्भाग्य यह कि लगभग सवा साल से इस पर भी कोरोना का ग्रहण लगा हुआ है.
लाॅकडाउन की पाबंदी से नर्तकियों के पांव बंध जाने और गायिकाओं के सुर थम जाने से कोठों पर यदा-कदा सजने वाली महफिलों में वीरानगी पसरी हुई है. शादी-ब्याह एवं मांगलिक आयोजनों में नाचने-गाने के साटे भी नहीं हो रहे हैं. इससे कोठों का अर्थ संकट गहरा गया है. कुछ संपन्न नर्तकियों-गायिकाओं को छोड़ शेष के लिए परिवार चलाना मुश्किल हो गया है. जिंदगी पूरी तरह उधार पर टिक गयी है. सुरसा के मुंह की तरह ब्याज की राशि बढ़ रही है. ‘मुजरा मुहल्ले’ से छनकर आयी खबरों के मुताबिक संकटग्रस्त अधिसंख्य नर्तकियों एवं गायिकाओं के पास बेचने के लिए अब गहने भी नहीं बचे हैं. संभ्रांत समाज जिस संकुचित नजरिये से देखता है उसमें नाच-गान से इतर उन्हें कोई काम नहीं मिल पाता है. मदद के लिए भी कोई आगे नहीं आता है. राशन-पानी के रूप में सरकार की ओर से जो कुछ मिला उसी से गुजारा करना पड़ रहा है. वह ऊंट के मुंह में जीरा के समान ही है. परिणामतः दूसरों के समक्ष हाथ पसारना पड़ रहा है. हर चेहरे पर बेवसी की स्पष्ट झलक दिखती है, चिन्ता की रेखाएं निरंतर गहरी होती जा रही हैं. दुखद बात यह भी कि नर्तकियों और गायिकाओं से कहीं ज्यादा पीड़ाजनक स्थिति उन साजिंदों की हो गयी है जिन्होंने अपने जीवन की डोर नर्तकियों की घुंघरुओं और गायिकाओं की ठुमरी के बोल से बांध रखी है.
बिहार के ग्राम्यांचलों में मांगलिक उत्सवों-तिलक, शादी, मुंडन, उपनयन, छठी- जन्म दिवस आदि-पर नाच-गान का प्रचलन है. हालांकि, इस प्रचलन में अब म्यूजिकल ग्रुप से जुड़ी बार बालाओं की मजबूत घुसपैठ हो गयी है. वैसे, उसका दायरा मुख्यतः उन लोगों तक ही सिमटा हुआ है जो नये-नये पैसा वाले हुए हैं. खानदानी रईसों, अमीरों और सामंती मन-मिजाज वालों के लिए ‘कोठे वाली’ की नाच-गान अब भी उनकी शान से जुड़ा हुआ है. ऐसे लोगों में चतुर्भुज स्थान का खूब नाम है. जानकार बताते हैं कि कभी वहां अच्छी संख्या में नर्तकियां और गायिकाएं बसती थीं. अब भी हैं, पर मूल वाशिंदों की संख्या कम हो गयी है. कारण अनेक हैं. इस समाज में आयी जागृति उनमें मुख्य है. बेटियों का भविष्य संवारने के प्रति सचेष्ट-सचेत नर्तकियां और गायिकाएं उन्हें इसमें रमने नहीं देना चाहती हैं. हालांकि, सामाजिक और आर्थिक मजबूरियां मुकम्मल रूप में ऐसा नहीं होने दे रही हैं. मुहल्ले की तमाम तरह की गतिविधियों की जानकारी रखने वालों की मानें तो संख्या सिमट जाने के बावजूद शादी-ब्याह के मौसम में नर्तकियोें-गायिकाओं की कमी इसलिए नहीं हो पाती है कि उत्तर प्रदेश के वाराणसी, जौनपुर और इलाहाबाद तथा बिहार के अन्य ऐसे शहरों से अपेक्षित संख्या में उनकी आवक हो जाती है. उनमें कुछ खाली पड़े कोठों को किराये पर लेकर उन्हें आबाद रखती हैं तो कुछ हिस्सेदारी के अधार पर पुराने और स्थापित नर्तकियों एवं गायिकाओं के कोठों पर जम जाती हैं. इधर के दिनों में कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर कहर ढाने लगी तब ऐसी अनेक नर्तकियां-गायिकाएं अपने मूल स्थान पर लौट गयीं. जो नहीं गयीं, उनके समक्ष संकट कुछ अधिक गहराया हुआ है. राशन कार्ड नहीं रहने के कारण सरकारी राशन-पानी तक नहीं मिल रहा है. हालांकि, कुछ स्वयंसेवी संगठन मदद के लिए तत्पर जरूर दिखते हैं.
चतुर्भुज स्थान की नर्तकियों एवं गायिकाओं को कोरोना काल से पहले शादी-ब्याह के मौसम में हर साल औसतन बीस से पचीस साटा मिल जाते थे. एक साटा पचास हजार से सत्तर हजार रुपये का होता था.साजिंदों के अलावा कारिंदों को मेहनताना एवं नजराना देने के बाद भी अच्छी खासी राशि बच जाती थी. नाम और काम के आधार पर छोटी-बड़ी नर्तकियों एवं गायिकाओं की कमाई इतनी जरूर हो जाती थी जिससे साल भर का पारिवारिक खर्च आसानी से निकल जाता था. कोरोना संक्रमण के प्रथम चरण के तीन माह लंबे लाॅकडाउन के दौरान पहले के बचे पैसे से परिवार चला. पर, उस लाॅकडाउन ने घरों की अर्थ व्यवस्था को पूरी तरह अस्त-व्यस्त कर दिया. इस बार तो वह भी नहीं है. कारण कि उस समय से ही सबकुछ ठप है. गौर करनेवाली बात यह भी कि म्यूजिकल गु्रप या फिर आर्केस्ट्रा से जुड़ी बार बालाओं की चांदी कट रही है. वैसी भी बात नहीं. वे सब भी ऐसे ही दुर्काल से दो-चार हो रही हैं. रोटी के लिए कमरों की छोटी-मोटी पार्टियों में थोड़े पैसों पर नाच-गा रही हैं. इसके बाद भी परिवार चलाना कठिन हो गया है.