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सौराठ सभा : बदलेगी सोच, तब टूटेगा सन्नाटा

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विशेष संवाददाता

9 जुलाई, 2021

मधुबनी. वक्त बदलता है, तो सब कुछ बदल जाता है-सभ्यता-संस्कृति, परंपरा, प्रथा, रीति- रिवाज, सोच-विचार व आचार-व्यवहार भी. वैसे ही बदलाव की चपेट में पान, मखान और मीठी मुस्कान के लिए विख्यात मिथिलांचल भी है. यहां की पौराणिक गरिमा को पाश्चात्य सभ्यता जनित आधुनिकता निगल रही है. इसकी खुद की गरिमामयी सभ्यता-संस्कृति मिट रही है. परंपराएं – प्रथाएं लुप्त हो रही हैं. रीति-रिवाज महत्व खो रहे हैं. मिथिला की अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर सौराठ सभा पर इसका कुछ अधिक असर दिख रहा है. ‘दूल्हों का मेला’ के रूप में चर्चित मिथिलांचल के ब्राह्मणों का अपने ढंग का यह विश्व का इकलौता सामाजिक-सांस्कृतिक आयोजन अस्तित्व संकट से जूझ रहा है. इस सांस्कृतिक तीर्थ में प्रति वर्ष आषाढ़ माह में वैवाहिक सभा का आयोजन होता है. शादी-विवाह का शुद्ध लग्न खत्म होने से पूर्व कभी सात, कभी नौ और कभी-कभी ग्यारह दिनों तक. अतीत में उसमें वरागत व कन्या पक्ष के लोग जुटते रहे हैं. शादियां तय होती रही हैं, सिद्धान्तों का पंजीयन होता रहा है. इसे इसका दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि मिथिलावासियों के तिरस्कार व सरकार के उपेक्षापूर्ण व्यवहार के चलते यह वृहत् आयोजन वर्ष-दर-वर्ष लघुता में सिमटता चला गया. अब वहां गाछी है, सभा औपचारिकता में समा गयी है. आयोजन काल में भी गाछी में सन्नाटा पसरा रहता है. कुछ वयोवृद्ध पंजीकार प्रतीकात्मक रूप में ही सही, इसके वजूद होने के भाव को अपने कंधों पर रखे हुए हैं, पहचान बनाये हुए हैं. इनके बाद क्या होगा? सौराठ सभा के दीर्घ सन्नाटे को चीरते हुए हर साल यह सवाल मिथिलावासियों से जवाब मांगता है. पर, पाग का लगभग परित्याग कर अपनी सांस्कृतिक पहचान मिटा रहे मैथिल समाज के पास भरोसा जमाने लायक कोई जवाब नहीं है. ‘जय मिथिला, जय मैथिली’ का नारा उछाल चेहरा चमकाने वालों के पास भी नहीं. हालांकि, कुछ गैर राजनीतिक लोग और स्वयंसेवी संगठन मैथिलों की इस अतिप्राचीन परंपरा की गरिमा, गौरव और ग्राह्यता फिर से कायम करने की सामूहिक व अलग-अलग भी कोशिश कर रहे हैं. उनका प्रयास सराहनीय है, पर घने अंधेरे में टिमटिमाते दीये की तरह है. इस कारण अभी इसका कोई खास असर नहीं दिख रहा है. समग्र रूप में यह तभी कामयाब होगा जब मैथिल समाज अपनी सोच बदले. पर, आधुनिकता में सराबोर समाज की सोच आसानी से बदल जायेगी, ऐसा संभव नहीं दिखता. वैसे, समाज की सोच बदलने का अभियान चलाने वालों की खुद की सोच कितना परिष्कृत है यह भी एक बड़ा सवाल है. तब भी इस तरह का अभियान ठहरे हुए पानी में कंकड़ उछाल हलचल तो पैदा कर ही देता है.

पौराणिक काल में मैथिल ब्राह्मणों की शादी की अनूठी पद्धति थी. वर मेलों के आयोजन की पद्धति. यह आयोजन मिथिलांचल की सांस्कृतिक पहचान थी. इतिहास में वर्णित है कि उस काल में हर साल 42 स्थानों पर वर मेलों का आयोजन होता था. मधुबनी, दरभंगा, सीतामढ़ी, सहरसा और अररिया जिलों में. सहरसा जिले के वनगांव-महिषी से शुरू होता था और मिथिलांचल की हृदयस्थली मधुबनी के सौराठ गांव में समाप्त हो जाता था. वर्तमान में सिर्फ सौराठ में ही वर मेला लगता है. पहले यह आयोजन सीतामढ़ी जिले के समौल गांव में हुआ करता था. कुछ मुद्दों को लेकर गांववालों के बीच विवाद खड़ा हो गया. तब पंडित धारे झा और पंडित होरिल झा ने तत्कालीन महाराज नरेन्द्र सिंह की कृपा पाकर रहिका प्रखंड के सौराठ गांव में इसका आयोजन शुरू कराया. दरभंगा महाराज ने 22 बीघा जमीन उपलब्ध करायी थी. वह जमीन संभवतः माधवेश्वरनाथ महादेव मंदिर ट्रस्ट के नाम से है. ट्रस्टी दरभंगा राज की महारानी हैं. यह स्थापित तथ्य है कि वर मेला के आयोजन के पीछे सागर्भित सामाजिक व वैज्ञानिक सोच थी. समाज के लोगों को करीब लाना, वर खोजने में समय एवं पैसे की बर्बादी रोकना और योग्य संतान की प्राप्ति के लिए आवश्यक नियमों के पालन को आसान बनाना. पुराने दौर में यातायात के साधन अपर्याप्त थे. इस कारण लोग बहुत कम यात्रा करते थे. सामाजिक परिचय भी बहुत सीमित हुआ करता था. वर ढूंढ़ना बहुत कठिन कार्य था. आमतौर पर पंडित और नाई ही यह काम करते थे. वर मेले के आयोजन से मैथिल ब्राह्मणों का आपसी मेलजोल बढ़ा और कन्या वालों को वर चुनने में आसानी हुई. एक साथ शादी के इच्छुक वरों के मौजूद रहने से चयन में श्रम, समय एवं पैसे की बर्बादी रुकी. इससे दहेजमुक्त सामूहिक विवाह की परंपरा भी विकसित हुई.

मैथिल ब्राह्मणों में कुल, मूल व गोत्र का काफी महत्व हुआ करता था. कुछ लोग आज भी इसे महत्व देते हैं. बड़े कुल व अच्छे मूल-गोत्र को समाज में अच्छी प्रतिष्ठा मिलती थी. तब ऐसी मान्यता थी कि योग्य संतान के लिए वर एवं वधू को समगोत्री नहीं होना चाहिये. यानी सीधा रक्त संबंध नहीं रहना चाहिये. माता का सपिंड होने पर भी संतान योग्य नहीं होगी और पिता के सात एवं माता की पांच पुश्तों में शादी से भी लायक संतान नहीं पैदा हो सकती. इस कारण इसे निषेध कर दिया गया. आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी समान रक्त वर्ग के लड़के-लड़कियों में शादी की मनाही करता है. इन सबके मद्देनजर मैथिल ब्राह्मणों में विवाह में सात निषेधों की व्यवस्था की गयी. पंजीकार दोनों पक्षों की सात पीढ़ियों के उतेढ़ का मिलान कर पंजी यानी वंशावली देखकर बताते हैं कि जो शादी तय की गयी है वह होने के योग्य है या नहीं. निषेधों की जांच में योग्य ठहरने पर पंजीकार स्वीकृति-पत्र (स्वस्ति पत्र) प्रदान करता है. स्वस्ति पत्र की मान्यता अदालत में भी है. कहा जा सकता है कि इस मामले में पंजीकार को दंडाधिकारी के समान अधिकार प्राप्त है. विश्व में संभवतः मैथिल ब्राह्मण अकेले हैं जो अपने बच्चों की शादियां पंजीकारों से वंशावलियां देखकर तय करते हैं. शायद किसी अन्य जाति की ऐसी वंशावली नहीं है. वंशावली तैयार करने यानी पंजी प्रथा की शुरूआत सौराठ के कर्नाट राजा हरिसिंह देव (1296-1323 ई.) ने की. जब वंशावली तैयार हो गयी तो शादी तय करने के लिए उसे पूरे मिथिलांचल में उपलब्ध कराया गया. इस पंजी प्रथा की शुरुआत क्यों हुई, इतिहास में इसकी कहानी कुछ इस तरह वर्णित है. पंडित हरिनाथ मिश्र राजा हरिसिंह देव के दरबार में पंडित थे. उनकी पत्नी अपूर्व सुंदर थीं. वह प्रति दिन जंगल में भगवान शिव की पूजा करने जाती थीं. एक दिन राजा क आदेश हुआ कि पंडित हरिनाथ मिश्र अपनी और पत्नी की जन्म कुंडली अन्वेषित करें. कुंडलियों का मिलान हुआ तो पंडित हरिनाथ मिश्र और उनकी पत्नी दोनों का मूल-गोत्र एक ही निकला. इस आधार पर पंडित हरिनाथ मिश्र को चांडाल घोषित कर दिया गया और उनके विवाह को अपवित्र करार दिया गया. उसी दिन से ब्राह्मणों में पंजी व्यवस्था लागू हुई जिसे सिद्धांत कहा जाता है. सम्प्रति पंजी को अद्यतन करने में पंजीकारों के सौराठ, गनौर, ककरौल एवं मंगरौनी के घराने लगे हैं. ये सालो भर गांवों में घूमते हैं. इन गांवों में एक दर्जन से अधिक ऐसे परिवार हैं जिनका यह पेशा है. यह अलग बात है कि सौराठ सभा की रौनक खत्म होने से पंजीकारों के चेहरों की चमक भी गुम हो गयी है. आजीविका के लिए उन्हें कठिन संघर्ष करना पड़ रहा है. यही मुख्य कारण है कि सौराठ सभा वास के दौरान मुख्यतः तीन पंजीकार ही शिविर लगाते रहे हैं-विश्वमोहन मिश्र, प्रमोद कुमार मिश्र और विनोद झा.

इतिहास बताता है कि सौराठ में वर मेला 1820 में लगना शुरू हुआ. मैथिल ‘वर मेला’ शब्द को पसंद नहीं करते. वे इसे सभागाछी कहते हैं. यह सभागाछी मधुबनी जिला मुख्यालय से 6 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम रहिका प्रखंड में है. बरगद के पेड़ों से भरे बाईस बीघा जमीन वाले सभा क्षेत्र में माधवेश्वरनाथ महादेव मंदिर है. इतिहासकारों के अनुसार इसका निर्माण राजा माधव सिंह ने शुरू कराया था. लेकिन, वह इसे पूरा नहीं करा सके. निर्माणकाल में ही उनकी मृत्यु हो गयी. बाद में उनके पुत्र छत्र सिंह ने मंदिर को पूरा कराने के साथ ही जलाशय का निर्माण करवाया, धर्मशाला भी बनवाया. उस कालखंड में इस वर मेले की बड़ी ख्याति थी. मैथिल ब्राह्मण चाहे देश के किसी कोने में क्यों नहीं रहते हों, उक्त अवधि में संतान की शादी तय करने के लिए यहां खिंचे चले आते थे. लाखों लोग जुटते थे. कहते हैं कि सवा लाख लोगों के जमा हो जाने पर यहां के एक विशेष पीपल वृक्ष के पत्ते कुम्हलाने-मुरझाने लगते थे. सवा लाख से कम संख्या हो जाने पर फिर पूर्ववत हो जाते थे. हालांकि, वह पेड़ अब सूख गया है. पंजीकार विश्वमोहन मिश्र के मुताबिक 1971 में यहां करीब डेढ़ लाख लोग आये थे. 1991 में करीब पचास हजार लोगों का जुटान हुआ था. अब तो संख्या सौ-दो सौ तक भी नहीं पहुंच पाती है. किसी-किसी साल एक भी शादी तय नहीं होती. इसकी वजह भी है. मै पिछले सल भी नहीं हुई थी और इस साल भी नहीं. यह नकारात्मकता कुछ हद तक कोरोना से भी प्रभावित थी. वैसे, इसकी खास वजह भी है. मैथिलों में भी कुल, मूल व गोत्र के महत्व अब गौण पड़ गये हैं. वर का व्यक्तिगत गुण,आचार-विचार व रोजगार प्रधान हो गये हैं. आधुनिकता की बयार है सो अलग. इस साल 27 जून 2021 से 7 जुलाई 2021 तक ग्यारह दिवसीय सौराठ मेला लगा जो औपचारिकताओं में ही सिमटा रहा.

महत्वपूर्ण बात यह भी कि राज्य सरकार के स्तर पर सौराठ सभा को कभी कोई खास महत्व नहीं मिला. नब्बे के दशक के पूर्व की कांग्रेस की सरकार हो या फिर उसके बाद की लालू-राबड़ी एवं नीतीश कुमार की सरकार, किसी ने भी इसकी गरिमा बचाये रखने की पहल नहीं की. सभागाछी में सभावासियों की सुविधा के लिए प्रशासन के स्तर पर कभी-कभार कुछ व्यवस्था जरूर हुई. पेयजल के लिए चापाकल, पंजीकारों की बैठकी, पोखर के किनारे चबूतरा आदि बनवाये गये. लेकिन, समुचित देखरेख के अभाव में सब जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पड़े हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2009 में घोषणा की थी कि सौराठ सभा की 22 बीघा जमीन पर पुरातत्व विश्वविद्यालय खुलेगा. वहां मिथिला पेंटिंग की पढ़ाई होगी. ये घोषणाएं अभी तक हवा में ही हैं. बहरहाल, सभागाछी का हाल यह है कि उसकी ढेर सारी जमीन अतिक्रमित हो गयी है, आसपास के लोगों द्वारा. कहा जाता है कि अतिक्रमणकारियों में ब्राह्मण समाज के लोग ही अधिक हैं. ऐसे में जब अपनों की सोच ऐसी हो तो सुधार की बात बेमानी लगती है. निरंतरता बनी रहेगी या नहीं, यह भविष्य के गर्भ में है, अस्तित्वविहीनता की ओर बढ़ रही सौराठ सभा की परंपरा को बनाये रखने के लिए कुछ सामाजिक संगठनों से जुड़े लोग आगे आये. पहचान खो रही मिथिलांचल की संस्कृति, रीति-रिवाज, प्रथा एवं परम्परा को बचाने के लिए जागरूकता अभियान चलाया. लेकिन, ये तमाम प्रयास मुकम्मल रूप में तभी कारगर होंगे जब मैथिलों की नयी पीढ़ी अपनी अनूठी संस्कृति की विशेषताओं को जानेगी, समझेगी और सांस्कृतिक धरोहरों की मिट रही पहचान को बनाये रखने के प्रति सजग, सचेत एवं तत्पर होगी. लेकिन, आधुनिकता में आकंठ डूबी यह पीढ़ी ऐसा कुछ करेगी, दूर-दूर तक इसकी कोई संभावना नहीं दिखती. इसलिए कि सभागाछी में पारम्परिक पोशाक धोती-कुत्र्ता, चादर एवं सिर पर पाग धारण कर ललाट पर चंदन-टीका लगा चादर बिछा कर बैठे वर का दर्शन शायद ही कभी होता है. जरूरत परंपरा और आधुनिकता में समन्वय स्थापित कर जन चेतना जागृत करने की है. लेकिन, सवाल यह भी है कि इसके लिए पहल करेगा भी तो कौन?

फोटो : मैथिली पंजी सिस्टम (साभार)

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