बिहार की ‘छोटी अयोध्या’ : यादों में सिकुड़ता झुलनोत्सव
कृष्णमोहन सिंह
15 जुलाई, 2021
मंदिरों और ठाकुरबाड़ियों की बड़ी संख्या और तदनुरूप धार्मिक माहौल को लेकर छोटी अयोध्या के रूप में ख्यात बड़हिया के झुलनोत्सव के आनंद का आकर्षण कभी काफी दूर-दूर तक फैला था. यह आयोजन हर साल पवित्र सावन माह में होता था, अब भी होता है. लेकिन, सिर्फ नाम के लिए. नब्बे के दशक के पूर्व के दौर में चढ़ते आषाढ़ के साथ ही इसकी उमंग छाने लग जाती थी. इलाकाई लोग बेसब्री से इंतजार करने लग जाते थे. स्वदेशी वाद्य यंत्रों तबला, ढोलक और मृदंग की थाप एवं हारमोनियम और सारंगी की धुन के साथ सुर सधे कंठों की सुरलहरी संगीत प्रेमियों के साथ-साथ आम श्रोताओं-दर्शकों को भी यहां खींच लाती थी और सुमधुर गीत-संगीत से सम्मोहित हो वे अपना सुध खो बैठते थे. इस सांस्कृतिक आयोजन का महत्व इसलिए भी अधिक था कि चर्चित बड़हिया घराने के संगीतज्ञ नये-नये गीतों की रचना कर उसे लय और ताल में पिरो सुर की सुरीली धारा बहाते थे जो श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देती थी. इस घराने के पंडित बच्चा मिश्र ने जल-तरंग वाद्य के कई नये धुनों का सृजन किया था. इस घराने के ही हैं प्रसिद्ध तबला वादक पं. बलराम दास मिश्र. फिलहाल वह जमालपुर संगीत महाविद्यालय के प्राचार्य हैं. झुलनोत्सव में देश भर के नामी-गिरामी संगीतज्ञ आते थे. संगीत की संगत होती थी और गायकों-वादकों की क्षमता-दक्षता आंकी जाती थी. सुविख्यात तबला वादक गोदय महराज, नोखेलाल, भागवत महाराज, शहनाई वादक बिस्मिलाह खां, सारंगी वादक गोपाल शरण सरीखे शीर्षस्थ कला साधक सप्ताह भर अपनी कला का शत-प्रतिशत प्रदर्शन करते थे और भरपूर सम्मान अर्जित कर वापस होते थे. सुविख्यात नृत्यांगनाएं भी आया करती थीं. सुवर्णा की चर्चित रामलीला पार्टी झुलनोत्सव के बाद यहां महीनों डेरा जमाये रहती थी. साधन सम्पन्न ठाकुरबाड़ियों के प्रबंधक नामचीन कलाकारों को आमंत्रित करते थे तो कम चर्चित और नवोदित कलाकार कुछ सीखने की मंशा लिये स्वतः पहुंचते थे. उन्हें संगीत के पारखी बड़हियावासी आर्थिक क्षमता के अनुरूप अपनी-अपनी ठाकुरबाड़ी के लिए अनुबंधित कर लेते थे. नामचीन संगीतज्ञों के अनुबंध के लिए संपन्न ठाकुरबाड़ियों के बीच प्रतिस्पर्धा रहती थी. आमतौर पर कलाकार ठाकुरबाड़ी प्रबंधक से पारिश्रमिक की मांग नहीं करते थे. सिर्फ ठहरने और अपनी कला का प्रदर्शन करने की सहमति लेते थे. उन्हें वहां रहने-खाने की उत्तम सुविधा रहती थी और साथ में मान-सम्मान भी मिलता था. उस दौरान कला प्रतियोगिता का भी आयोजन होता था जिससे प्रतिभागी कलाकारों को नया कुछ सीखने का मौका मिल जाया करता था. जहां तक धन की बात है तो श्रोताओं और दर्शकों द्वारा बरसायी गयी ‘छूट’ की राशि ही इतनी अधिक हो जाया करती थी कि ठाकुरबाड़ी प्रबंधक के साथ-साथ कलाकारों की झोली भर जाती थी और वे पूर्ण संतुष्ट हो जाया करते थे.
बड़हिया को छोटी अयोध्या मानने का मजबूत कारण भी था. एक समय वहां 42 ठाकुरबाड़ियां थीं. आठ का अस्तित्व मिट जाने या यूं कहें कि मिटा दिये जाने के बाद यह संख्या 34 हो गयी है. इन ठाकुरबाड़ियों से पूरे सावन माह में निकलने वाले सुर की धारा से सम्पूर्ण इलाका सराबोर रहा करता था. रामाश्रय बाबू ठाकुरबाड़ी, श्यामदास ठाकुरबाड़ी उर्फ राजा रानी ठाकुरबाड़ी, राधामोहन ठाकुरबाड़ी, भवानीजी ठाकुरबाड़ी, कामता सिंह ठाकुरबाड़ी, राजा जी ठाकुरबाड़ी, मौनी बाबा ठाकुरबाड़ी आदि में गीत-संगीत के मनमोहक कार्यक्रम हुआ करते थे. बड़हिया थाना के सामने स्थित सूर्यनारायण मंदिर में सावन माह में अलग-अलग दिन अलग-अलग झांकी दिखायी जाती थी. कोई रंगारंग कार्यक्रम नहीं होता था. इसके बावजूद यह आम आकर्षण का बड़ा केन्द्र बना रहता था. अब तो औपचारिकता निभाने में भी उसे कठिनाई हो रही है. सिर्फ बड़हिया ही नहीं, लखीसराय जिले के अधिकतर मंदिरों और ठाकुरबाड़ियों में झुलनोत्सव के नाम पर अब खानापूर्ति होती है. प्रायः हर जगह सम्पत्ति का विवाद खड़ा है. इनके संस्थापकों और दाताओं के वंशजों की धनलोलुपता इनकी बदहाली की मुख्य वजह बनी हुई है. इसके चलते कई ठाकुरबाड़ियों और मंदिरों में स्वामित्व के लिए खूनी जंग छिड़ी हुई है. रामपुर, जैतपुर, खुटहा और प्रतापपुर की ठाकुरबाड़ियों में वर्षों से झुलनोत्सव की रस्म अदायगी भर हो रही है. इससे दुखद और क्या बात होगी कि एक सौ ग्यारह बीघा की सम्पत्ति रखनेवाली रामाश्रय बाबू की ठाकुरबाड़ी में झुलनोत्सव की रस्म अदायगी भी नहीं हो पाती है . वहां वर्षों से रागभोग नहीं लगता है. यह ठाकुरबाड़ी एक ट्रस्ट के अधीन है. इसके बावजूद इसकी ऐसी बदहाली है. गांववालों ने इसकी गरिमा और महिमा फिर से बहाल कराने की मांग कई बार उठायी. हर बार अनसुनी कर दी गयी. ऐसे दर्जनों ठाकुरबाड़ी हैं. इनके पास अकूत सम्पत्ति हैं मगर ठाकुरजी की पूजा और रागभोग नहीं लग रहा है. सूर्यगढ़ा प्रखंड के अमरपुर में भी साधन सम्पन्न ठाकुरबाड़ी है. पहले वहां धूमधाम से झुलनोत्सव मनाया जाता था. ठाकुरबाड़ी के संस्थापक के वंशज सम्पत्ति के लिए आपस में सिर फुटौव्वल करने लगे. सम्पत्ति विवाद अदालत में लंबित है. झुलनोत्सव के नाम पर वहां दिखावा भर होता है.
बदलते वक्त के अनुरूप झुलनोत्सव के आयोजन में भी बदलाव आ गया. सांस्कृतिक विकृति का समावेश हो गया. गरिमामय शास्त्रीय और उपशास्त्रीय गीत-संगीत की जगह पहलवान प्रभावित ठाकुरबाड़ियों में लोक संस्कृति की आड़ में लौंडा नाच का प्रचलन चल पड़ा तो कथित रंगीनमिजाजी प्रबंधकों वाली ठाकुरबाड़ियों में कोठे की नर्तकियों के पांव थिरकने लगे, घुंघरुओं की खनक गूंजने लगीं. लखनऊ, छपरा, बलिया, आरा आदि जगहों से लौंडा बुलाये जाने लगे तो वाराणसी, मुजफ्फरपुर, मुंगेर, गया, कोलकाता, सीतारामपुर आदि से नर्तकियां (आने लगीं. आश्चर्य की बात यह कि एक समय राग और ताल के मर्मज्ञ इलाकाई लोग लौंडों और नर्तकियों के थिरकते पांवों और लचकती कमरों में गीत-संगीत की गहराई ढूंढ़ने लगे. उन पर सर्वस्व न्योछावर करने लगे. बड़े-बुजुर्ग तो यहां तक बताते हैं कि झुलनोत्सव की समाप्ति पर जब लौंडे और नर्तकियां अपने स्थायी ठिकानों के लिए जाने लगती थीं तब बड़हिया स्टेशन पर बड़ा मार्मिक दृश्य उत्पन्न हो जाया करता था. रंगीनमिजाजियों में मायूसी समा जाती थी तो कई आंसुओं को रोक नहीं पाते थे. लौंडा और नर्तकियों के नाच का चलन वर्षों तक रहा. बाद में आर्केस्ट्रा ने अपनी जगह बना ली. अब तो किसी-किसी ठाकुरबाड़ी में ही नृत्य-संगीत का कार्यक्रम देखने-सुनने को मिलता है. वैसे, कुछ में नर्तकियों तो कुछ में नर्तकों के नाच की परंपरा कायम है. राजा रानी ठाकुरबाड़ी, रामाश्रय बाबू की ठाकुरबाड़ी, महावीर जी ठाकुरबाड़ी आदि में नर्तकों का नृत्य होता है तो राजाजी ठाकुरबाड़ी, राधा मोहन ठाकुरबाड़ी, रामोतार बाबू की ठाकुरबाड़ी में नर्तकियां नाचती हैं. अन्य में वीरानगी पसरी रहती है. कोरोना संक्रमण के चलते 2020 में यह वीरानगी बहुत कुछ गहरा गयी . दुष्परिणाम स्वरूप झुलनोत्सव औपचारिकताओं में सिमटा रह गया. कहीं कोई गीत-संगीत या अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं हुआ. इस साल भी उससे अलग कुछ देखने को शायद ही मिल पायेगा. इसलिए कि कोरोना संक्रमण का खौफ उसी रूप में बना हुआ है.