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दिनकर-भूमि सिमरिया : समय के रथ का घर्घर नाद सुनो…

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अश्विनी कुमार आलोक
15 सितम्बर 2023

किसी पुस्तक की भूमिका लिखने का अभिप्राय उसकी पृष्ठभूमि की प्रस्तुति एवं उसके औचित्य का समर्थन होता है. देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (Ramdhari Singh ‘Dinkar’) की प्रसिद्ध गद्यकृति संस्कृति के चार अध्याय की भूमिका लिखी थी. अर्थात ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के मूल्यों को अवसर एवं उपयोगिता के अर्थ में प्रतिपादित किया था. फिर पं. जवाहरलाल नेहरू (Pandit Jawaharlal Nehru) जब संसद की सीढ़ियां चढ़ते हुए डगमगाये, तो दिनकर जी ने संभाला. ‘पंडित जी! जब राजनीति के पांव डगमगाते हैं, तो साहित्य संभाल लेता है.’ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वंद्व को निद्वंद्व भाव से समेटने की निर्भीकता के प्रथम पुरुष रहे, जिन्होंने समय के सिद्धांतों को व्यवहार की साम्यता के समानांतर समूची सतर्कता के साथ प्रस्तुत किया. अन्याय के भीषण संतापों को कविता के प्रतापों से जला डालने का हुंकार भरा और चेतना, संयम एवं सत्य के तूर्यनाद के साथ अपने सूर्यत्व को प्रतिपादन किया-
मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूं मैं
उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूं मैं

सीने से लगाये फिरते हैं
उसी रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के काव्य में राजनीति एवं समाज का हित-चिंतन स्वीकार कर विकास का स्वांग भरने वाले नेताओं पर से उनके गांव के लोगों का विश्वास उठ गया है. गांव के लोग अपने सरस्वती पुत्र की पंक्तियों को देववाणी मानकर सीने से लगाये फिरते हैं. वे उस हर एक नेता को संदेह (Doubt) की दृष्टि से देखते हैं, जो दिनकर जन्मोत्सव पर घोषणाओं की सुविचारित सूची लेकर पहुंचता है. दिनकर का गांव साहित्य तीर्थ भले बना है, पर साहित्यकारों और स्थानीय लोगों के लिए राजनेताओं के औपचारिक (Formal) प्रलापों को सुनने वाले स्थानीय लोग अब अपनी थकावट का विवरण भी नहीं देते. वे समझ चुके हैं कि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की काव्य पंक्तियां नेताओं के लिए सिर्फ वोट मांगने के नारे की तरह हैं. वे उन नारों के निहितार्थ से आम जन को जुड़ने भी नहीं देते. पंक्तियां राजनीति के प्रपंचों एवं परिहासों के बीच भी आत्मजय का घोष करती हैं, क्योंकि वे दिनकर की पंक्तियां हैं –
वो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

दक्षिण की ओर दिख गये ‘दिनकर’
दिनकर की भूमि सिमरिया अपने कवि के काव्य-अर्थों का उल्लास नहीं पा सकी, साहित्य के गौरव शिखर के अनुभूत स्वारस्य से अनुप्राणित भले हैं, पर अधिकारों की जलबूदों का चातक बनी हुई है. बरौनी रेलवे स्टेशन (Barauni Railway Station) से तीन किलोमीटर पूरब जीरो माइल चौक है, इसी चौक से पूरब अर्थात बेगूसराय (Begusarai) न जाकर दक्षिण की ओर जैसे ही मुड़ा रामधारी सिंह ‘दिनकर’ दिख गये. अपने सायास संकल्पों में मूर्तिमान, उन्नत ललाट और उदित विराट की कांस्य प्रतिमा में परिचय देते हुए –
पूछे मेरी जाति शक्ति हो तो मेरे भुजबल से
रवि समान दीपित ललाट से और कवच-कुंडल से
पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमे तेज प्रकाश
मेरे रोम-रोम में अंकित है मेरा इतिहास.


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यह और नहीं कोई…
जीरो माइल (Zero Mile) चौक से तीसरे किलोमीटर में मल्हीपुर है. वह गांव जो कभी दिनकर की जन्मभूमि सिमरिया (Simaria) का हिस्सा था, अब नहीं है. पंचायत का विभाजन आबादी बढ़ने के कारण हो गया. परन्तु, इसी गांव से होकर दिनकर भूमि तक जाया जाता है, दिनकर के नाम पर भव्य द्वार सतेज खड़ा है. साहित्य की पुण्यतिथि में स्वागत की थाल लेकर. किन्तु, इस द्वार की दीवारों पर चिपके हुए पोस्टर दिनकर-भूमि की विस्तृत जीवंतता का उपहास (Ridicule) उड़ाते हुए प्रतीत होते हैं, परन्तु दिनकर जी की पंक्तियां अपने जन के पक्ष में फिर खड़ी हो जाती हैं –
यह और नहीं कोई,
जनता का स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष
उमड़ते जाते हैं
इस द्वार का स्वागत-सत्कार स्वीकार कर आगे बढ़ा और रेलवे केबिन होते हुए अर्थात दिनकर ग्राम सिमरिया नामक रेलवे हॉल्ट के दाहिने लंबे-हरे पेड़ों के बीच से अपेक्षाकृत (Relatively) चौड़ी सड़क पर चलने लगा. सड़क पक्की थी, गांव में नल-जल योजना के क्रियान्वयन (Implementation) के बहाने निर्दयतापूर्वक उखाड़ दी गयी थी. नल-जल योजना से गांव तक पानी पहुंचाने के बाद किसी ने सड़क (Road) की दुर्दशा दूर करने की कोशिश की होती, तो दिनकर के गांव की सीमेंट वाली सड़कों तक आसानी से आया-जाया जा सकता था.

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