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श्यामा-चकेवा : सामाजिकता ही नहीं संवेदनशीलता भी

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केयूर पाठक

गांवों के किस्से-कहानियों में लोक-इतिहास छुपा होता है. यही लोक-इतिहास लोक-पर्व के रूप में समाज में जगह बनाये रहता है. लोक-पर्व सामाजिकता का उत्सव है. इसका सामान्य जीवन से सरोकार भी है और संवेदना भी. श्यामा-चकेवा (शामा-चकेवा) बिहार के मिथिलांचल का एक ऐसा ही लोक-पर्व है. यह छठ महापर्व की समाप्ति के दिन यानी परना से शुरू होता है. कार्तिक पूर्णिमा को इसका समापन होता है. ‘ऑनर किलिंग’ के जमाने में यह पर्व प्रगतिशीलता का एक बेजोड़ उदाहरण है. इसमें अतीत एक तरह से वर्तमान से अधिक आधुनिक प्रतीत होता है. महिला समानता (Women Equality) की बात आती है तो समाज और संस्कृति पर सवाल खड़े होते हैं. महिला विरोधी परम्पराओं और त्योहारों पर यह ये एक तरह से प्रहार है.

संवेदनशीलता का आख्यान
समाज का कोना-कोना महिला विरोधी है और लोक-परंपरा में महिला शोषण के अलावा कुछ भी नहीं है. श्यामा-चकेवा इस पूरी सोच का चुनौती देता है. यह लोक-मन में बसी मानवीय संवेदनशीलता (Human Sensitivity) का आख्यान है. इसकी कहानी में एक ओर वह समाज है, जो महिला को दासी बनाये रखना चाहता है. दूसरी ओर एक पिता है, जो श्यामा को बदचलन मानकर सजा देता है. और तीसरी ओर उसका भाई है जो उसे सजा से मुक्त करवाता है. यह कहानी भाई-बहन के प्रेम की है, लेकिन महत्व उस नायक का है जो अपनी सोच में सामाजिक रुढियों से मुक्त है, जिसके लिए महिला मुक्ति का प्रश्न पूरी मानवता का प्रश्न है. इसके लिए भीषण संघर्ष भी करता है. आज के दौर में जब कहीं भी ‘ऑनर किलिंग’ होती है तो आमतौर पर उसमें भाई और पिता की ही खूनी भूमिका है. लेकिन, इस कहानी का भाई शायद आज के भाइयों से अधिक उदार है. संवेदनशीलता अथाह है. इसमें स्त्री-पुरुष की समानता की चेतना भी है.

यह है इस पर्व की मान्यता
मान्यता चली आ रही है कि श्रीकृष्ण की बेटी श्यामा का ब्याह ऋषि कुमार चारुदत्त से हुआ था. श्यामा आजाद विचारों की थी. उसे घूमना-टहलना अच्छा लगता था. कभी-कभी वह रातों में भी घूमने निकल जाती थी. इस बात पर श्रीकृष्ण के कुछ मंत्रियों जैसे चुड़क आदि को आपत्ति थी. वह लगातार इसकी चिुगली श्रीकृष्ण से करते रहे. शिकायतों से तंग आकर श्रीकृष्ण एक समय क्रोधित हो गये और उन्होंने श्यामा को शाप दे दिया कि वह पक्षी बन जाये. श्यामा के पक्षी बन जाने से उसके पति चारुदत्त को बहुत दुख हुआ. शिव की उपासना करके उसने खुद को भी पक्षी बना लिया ताकि श्यामा के साथ रह सके. इसकी जानकारी श्रीकृष्ण के पुत्र शाम्भ को मिली तो उसने कठिन तपस्या कर श्रीकृष्ण को किसी तरह मनाया. श्रीकृष्ण (Shri krishna) को भी अपनी भूल का अहसास हुआ. शाम्भ ने श्यामा और चारुदत्त को ढूंढ़कर उन्हें फिर से मनुष्य बनवाया और इसके लिए जिम्मेवार लोगों से बदला भी लिया. इस संदर्भ का एक लोक-गीत है जिसमें वृन्दावन में लगी आग का वर्णन है-
‘वृन्दावन में आगि लागल क्यो न बुझाबै हे
हमरो से बड़का भइया दौड़ल चली आबए हे
हाथ सुवर्ण लोटा वृन्दावन मुझावै हे…’

महिला मन और पुरुष मन
इस कहानी में दो बातें साफ तौर पर दिखती है- ऐतिहासिक तौर पर महिला मन और पुरुष मन में कभी कोई अंतर नहीं रहा है. दोनों के सोचने-विचारने और जीने का तरीका भी एक ही है. इसलिए श्यामा भी उसी तरह से घूमना-टहलना पसंद करती है जैसे पुरुष घूमते-टहलते हैं. सामाजिक और राजनीतिक रूप से सक्रिय होने की इच्छा और सामर्थ्य उनमें भी उतना ही है जितना पुरुषों में है. स्वतंत्र होने की भावना एक कुदरती गुण है. स्वतंत्र होने की इस भावना पर समाज अंकुश लगाने का प्रयास करता है,क्योंकि इससे प्रभुत्वशाली वर्गों के हितों को खतरा महसूस होता है. इसलिए वह कई प्रकार से दबाव बनाता है. यह दबाव इतना प्रभावी होता है कि व्यक्ति अक्सर उन बातों को मानने के लिए मजबूर हो जाता है जिसे वह मानना नहीं चाहता.

पक्षी बन जाने के बाद…
फ्रांसीसी समाजविज्ञानी ईमाइल दर्खाइम इसे ही ‘सोशल फैक्ट’ कहते हैं, जिसमें ‘बाह्यता’ भी है और बाध्यता भी. यानी यह दिखता नहीं है, लेकिन इसका प्रभाव इतना अधिक होता है कि ‘ऑनर किलिंग’ तक कर दी जाती है. मथिलांचल में सदियों से मनाये जा रहे इस पर्व के संदर्भ में मान्यता है कि पक्षी बन जाने के बाद श्यामा और चकेवा (चारुदत्त) मिथिला (Mithila) में शरद महीने में प्रवास करने पहुंच गये थे. शाम्भ भी उसे खोजते हुए वहां पहुंचे. उसने वहां की महिलाओं से अपने बहन-बहनोई को शाप से मुक्त करने के लिये शामा-चकेवा का खेल खेलने का आग्रह किया. शायद इस खेल से श्यामा और चकेवा तक यह संदेश पहुंचाना था कि शाम्भ खोजता हुआ उन्हें लेने यहां आया है.


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पक्षियों का स्वागत
उस समय आज जैसी तकनीकी तो थी नहीं, तो ऐसे ही लोक-माध्यम संचार से लोग सूचना पहुंचाने का काम करते थे. उसी की याद में श्यामा-चकेवा का उत्सव मिथिला में सदियों से मनाया जा रहा है. इससे जुड़ी एक और कहानी है. जाड़े के मौसम में हिमालय की तरफ से अनगिनत पक्षियों का झुण्ड इन क्षेत्रों में आता है और यह उत्सव वास्तव में इन पक्षियों का एक स्वागत भी है. इसमें गीत-संगीत और तरह-तरह के खेल भी शामिल हैं. ऐसा लगता है ये दोनों ही कहानियां अलग-अलग नहीं है, बल्कि किसी न किसी रूप में आपस में जुडी हुई हैं. पर्यावरणीय चेतना और सामाजिक संबंधों के प्रति कर्तब्यबोध एक साथ दोनों इस लोक-परंपरा में है. यह रोचक है कि सीता और श्यामा में बहुत समानता है. दोनों को ही किसी न किसी रूप में विस्थापन (Displacement) झेलना पड़ा और दोनों मिथिला से जुडी है. एक का यहां जन्म होता है और दूसरे का आगमन. यह मिथिला के समाज के मन की बात को बताता है कि इसमें कितनी स्वीकार्यता है, कितनी संवेदनशीलता है. इसने सीता और श्यामा दोनों को ही हृदय में बसाया है. धीरे-धीरे ऐसी लोक-परम्पराएं अपना वजूद खो रही हैं. उसके बदले सत्ता-प्रेरित परम्पराएं प्रचलित हो रही हैं. लोक-चेतना से स्वीकार्यता और संवेदनशीलता जैसे भाव मिट रहे हैं. ऐसे लोक-पर्व को संजोये रखने की जरूरत है.

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