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क्यों ओढ़ ली खामोशी?

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अविनाश चन्द्र मिश्र
10 अगस्त, 2021

पटना. बर्बाद ऐ गुलशन कि खातिर बस एक ही उल्लू काफी था. हर शाख पर उल्लू बैठा है अंजाम ऐ गुलशन क्या होगा. गुजरे जमाने के गुमनाम शायर रियासत हुसैन रिजवी उर्फ शौक बहराइची के इस मशहूर शेर का थोड़ा बदले स्वरूप (बर्बाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी है. हर शाख पे उल्लू बैठा है अंजाम ऐ गुलिस्तां क्या होगा.) में इस्तेमाल भ्रष्टाचार एवं अनाचार को संस्थागत रूप देने का प्रयास करने वालों पर कटाक्ष के रूप में सर्वाधिक होता है. शौक बहराइची ने निश्चित तौर पर शूल की माफिक चुभने वाला यह तंज नब्बे के दशक के शुरुआती दौर में सार्वजनिक क्षेत्र में आकार ले रही अराजकता-कुव्यवस्था पर कसा होगा. बीते सौ वर्षों में बदलाव यही आया है कि शाख की बात दूर, व्यवस्था की फुनगियों तक उल्लू बैठ गये हैं. बर्बाद होने के लिए शायद अब कुछ बचा नहीं है. चिंता की बात यह कि इस मामले में प्रशासन तंत्र और राजनीतिक नेतृत्व नींद में गाफिल है या फिर तटस्थ भाव से आंख, कान और मुंह बंद कर बेफिक्र है. निरंतर बदतर होते हालात पर किसी ने कहा है – किस-किस को याद कीजिये, किस-किस को रोइये. आराम बड़ी चीज है, मुंह ढंक के सोइये. पर, सवाल यह है कि सोने से व्यवस्था की बदहाली बदल जायेगी क्या? नहीं, बिल्कुल नहीं. बल्कि यह समाज के प्रति जिम्मेवारी से मुंह मोड़ना होगा. बदलाव के लिए लड़ाई लड़नी होगी, लंबी लड़ाई. वैसे तो बिहार के हर महकमे को उक्त बेफिक्री ने बर्बाद कर रखा है. पर, उच्च शिक्षा इससे कुछ अधिक बदहाल-पस्तहाल है. इसके पोर-पोर में सड़ांध कैसे समा गयी है इसे जानने-समझने के लिए ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा के कुलसचिव डा. मुश्ताक अहमद की दस्तावेजों में दर्ज ‘कलंक कथा’ ही पर्याप्त है. इसी विश्वविद्यालय के विभिन्न महाविद्यालयों में प्रधानाचार्य रहे डा. मुश्ताक अहमद पर एक-दो नहीं, अनेक गंभीर आरोप हैं. वित्तीय अनियमितताओं से संबद्ध दो आपराधिक मामले दर्ज हैं. अनियमितता के एक अन्य मामले की संभवतः निगरानी जांच भी हुई है. इन आरोपों-मामलों से संबंधित तमाम कागजात विश्वविद्यालयों की व्यवस्था संभालने वाले कुलाधिपति कार्यालय में संग्रहित हैं, जो विभिन्न माध्यमों से वहां पहुंचे हैं. स्पष्ट है कि सक्षम प्राधिकरण इससे अनभिज्ञ नहीं है. इसकी पुष्टि इससे भी होती है कि इन आरोपों के आलोक में राजभवन सचिवालय ने कार्रवाई के लिए विश्वविद्यालय को आदेशित-निर्देशित किया था. लेकिन, विश्वविद्यालय की पहल का इंतजार नहीं किया. कार्रवाई का आदेश-निर्देश जारी करने के दस दिनों बाद ही डा. मुश्ताक अहमद को कुलसचिव के तौर पर उसी विश्वविद्यालय में पदस्थापित कर दिया. यहां सक्षम प्राधिकरण के नियुक्ति-प्रतिनियुक्ति संबंधित अधिकार पर कोई सवाल खड़ा नहीं किया जा रहा है. पर, क्या यह उच्च शिक्षा जगत को हैरान करने वाला निर्णय नहीं था? हैरत की बात यह भी कि तत्कालीन कुलसचिव कर्नल नीशीत कुमार राय को असम्मानजनक तरीके से पदमुक्त कर कुलसचिव जैसे सम्मानित एवं मर्यादित पद पर एक ‘दागी’ की बहाली पर किसी भी स्तर से कोई आवाज नहीं उठी, प्रतिकार नहीं हुआ. सत्ता और सियासत की स्वार्थ सनी बाध्यता हो सकती है. प्रबुद्ध वर्ग ने खामोशी क्यों ओढ़ ली? इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि उसकी मुखरता का कोई खास अर्थ नहीं निकलता. पर, सच यह भी है कि ऐसी ही खामोशी ‘उल्लुओं’ के व्यवस्था की फुनगियों तक बैठ जाने का कारक रही है. सिर्फ ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय में ही नहीं, राज्य के पांच अन्य विश्वविद्यालयों में भी कुलसचिवों की नियम विरुद्ध नियुक्तियां हुई हैं. मामला पटना उच्च न्यायालय में है. निपटारे के लिए तीन माह की सीमा बांध उसने इसे कुलाधिपति कार्यालय के ही हवाले कर दिया है. इस निर्देश के साथ कि उक्त अवधि में निपटारा नहीं हुआ तो अदालत पुनः सुनवाई करेगी. महत्वपूर्ण बात यह कि संबंधित याचिका को अदालत ने खारिज नहीं किया. इस दृष्टि से आरोपों को तथ्यहीन-तर्कहीन नहीं कहा जा सकता. पर, जहां व्यवस्था नहीं, योग्यता-क्षमता का महत्व नहीं, नियमों-परिनियमों का मतलब नहीं वहां बेहतरी की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

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