‘गुदड़ी के लाल’ तूने कर दिया कमाल!
अविनाश चन्द्र मिश्र
11 अप्रैल, 2023
वह बिहार में लालू प्रसाद (Lalu Prasad) के सत्तारोहण पर सामाजिक न्याय वाले जश्न का दौर था. उस जश्न की गूंज गोपालगंज (Gopalganj) जिले के सुदूरवर्त्ती गांव फुलवरिया (Phulwaria) में जीवन का आखिरी पहर गुजार रहीं लालू प्रसाद की मां मरछिया देवी के कानों तक भी पहुंची. मुख्यमंत्री (Chief Minister) क्या होता है, सामाजिक न्याय क्या है! संभवतः मरछिया देवी (Marchhiya Devi) की समझ से परे था. पर, उनका बेटा कुछ खास हो गया है, इसका भान जरूर था. वक्त मिला तो लालू प्रसाद मां का आशीर्वाद पाने फुलवरिया पहुंच गये. बहुत दिनों से उत्सुकता दबा रखीं मरछिया देवी ने छूटते ही पूछ दिया – का बन गइल बाड़ हो! लालू प्रसाद ने उनकी जिज्ञासा यह कह शांत किया – हथुआ महाराज (Hathua Maharaj) से भी बड़का राजा बन गइलीं. उन्होंने गोपालगंज के ही हथुआ महाराज से अपनी तुलना बूढ़ी मां को तसल्ली देने के लिए की या उनके सत्ता का अहंकार इस रूप में फूटा, यह नहीं कहा जा सकता. पर, तब उन्होंने जो कहा था, वक्त जरूर लगा, उसे चरितार्थ कर दिखाया. उनके अंध समर्थक सामाजिक न्याय के सम्मोहन में उन्हें ‘गुदड़ी का लाल’ मान गरीब-गुरबों के ‘मसीहा’ के रूप में महिमा-मंडित करते रहे और वह छिपे रूप में रंक से राजा बन गये.
रानी भी बनायी और रानी के पेट से राजा का जन्म भी हुआ
उनके रंक से राजा बनने के संदर्भ में जो बातें सामने आ रही हैं, उनमें यदि सच्चाई है तो विगत वर्षों के दौरान उन्होंने नामी-बेनामी संपत्ति का जो बड़ा आर्थिक साम्राज्य खड़ा कर लिया है, वह हथुआ महाराज की वर्तमान हैसियत से शायद ही कम होगा. लालू प्रसाद ने सामाजिक न्याय के चरमकाल में हुंकार भरा था – अब रानी (Queen) के पेट से राजा (King) का जन्म नहीं होगा. अपने अंध समर्थक सामाजिक समूहों के भावनात्मक दोहन के लिए वह इस जुमले को बार-बार दोहराते रहे, पर, उनका खुद का आचरण ठीक इसके विपरीत हुआ. उन्होंने रानी भी बनायी और रानी के पेट से राजा को जन्म भी दिया. इस राजा को फिलहाल स्वतंत्र सत्ता नहीं मिली तो देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के चलते. अपने तई तो उन्होंने राजतांत्रिक व्यवस्था कायम कर ही दी है. उनके समर्थकों को यह नागवार गुजर सकता है, पर इस तथ्य को आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता कि उनका सामाजिक न्याय लालू-राबड़ी परिवार के ‘आर्थिक साम्राज्य’ और ‘राजतांत्रिक व्यवस्था’ में सिमट-सा गया है.
मुंह ताकते रह गये गरीब-गुरबे
यह सच है कि ‘गुदड़ी के लाल’ वाले सामाजिक न्याय के दौर में दलित-पिछड़ा व मुस्लिम (Muslim) समाज के गरीब-गुरबों एवं शोषितों-पीड़ितों की जुबान को आवाज मिली. उनमें सियासत में सम्मान और सत्ता में हिस्सेदारी की भूख जगा सामंतवादी व्यवस्था आधारित सामाजिक जड़ता को तोड़ने का प्रयास किया गया. परन्तु, यह भी उतना ही सच है कि इन उपेक्षित-वंचित वर्गों की झोपड़ियों में गूंजते दरिद्रता (Proverty) के अट्टहास को मिटाने और पिचके पेटों की आग बुझाने का कोई मुकम्मल उपाय नहीं किया गया. वर्तमान को बदलना कठिन था, सरकारी साधनों-संसाधनों का सम्यक इस्तेमाल कर सामाजिक न्याय के दायरे वालों का भविष्य संवारा जा सकता था. उदास-हताश झोपड़ियों में उम्मीद की लौ जलायी जा सकती थी. लेकिन, वैसा नहीं किया गया. वैसा होता तो शायद आज गरीब-गुरबों के ‘मसीहा’ की हथुआ महाराज सरीखी हैसियत नहीं बन पाती.
समाज में आ गयी नयी विकृति
उन तबकों को भावनाओं में बहा ‘बिहार के राजा’ वाले दौर में सामाजिक न्याय को परिवार और रिश्तेदार में समेट दिया गया. खुरचन के लिए अंधभक्त दबंग स्वजातीयों को जोड़ लिया गया. जुबान में आवाज लिये सत्ता के भूखे गरीब-गुरबे पूर्व की तरह हाशिये पर ही मुंह ताकते रहे हैं. उस दौर के सामाजिक न्याय की राजनीति की कोख से पैदा हुए नवसामंतों व नवधनाढ्यों ने तर्क परोसा – सवर्ण सामंतों व सत्ताधारियों ने जैसा किया था, वैसा वे भी कर रहे हैं. यानी सवर्ण जैसा ‘शोषण’ करते थे वैसा ही वे कर रहे हैंं, इसमें गलत क्या है. उनकी नजर में यह गलत भले नहीं है, पर सामाजिक न्याय आंदोलन (Social Justice Movement) का यह भटकाव गांव-समाज में नयी सामाजिक विकृति पैदा कर रहा है, शोषण-उत्पीड़न का नया आधार बना रहा है.
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नहीं हुए कभी हालात सुधारने के उपाय
सिर्फ सामाजिक न्याय के दौर की ही चर्चा क्यों, सवा तीन दशकों से बिहार (Bihar) में इसी तबके की अपनी सरकार है. सवर्ण साये से मुक्त समाजवादी सरकार! इन वर्षों के दौरान समग्र रूप में बिहार का क्या विकास हुआ. यहां के आमलोगों की आर्थिक स्थिति कितनी सुधरी, यह अलग मुद्दा है. सत्ता ‘शीर्ष’ पर काबिज रहे नेता जिन पिछड़ों, दलितों, वंचितों एवं मुस्लिमों की रहनुमाई का दावा करते हैं उनके हालात कितने बदले हैं? फिलहाल यही बड़ा सवाल है. कागजी आंकड़ों के आधार पर ‘पिछड़ावादी-समाजवादी’ सरकार दावा जो करे, हकीकत यही है कि इनके हालात सुधारने का कभी कोई गंभीर प्रयास हुआ ही नहीं. जिन सरकारी साधनों-संसाधनों से हालात सुधारे जाते सत्ता संपोषित तत्वों द्वारा उनकी जमकर लूट-खसोट हुई और अब भी हो रही है. सरकारी विद्यालयों (Government Schools) और सरकारी अस्पतालों (Government Hospitals) की दीर्घकालिक बदहाली इसके अकाट्य ठोस सबूत हैं. लूट-खसोट से आमजन का ध्यान हटाये रखने के लिए पहले के दौर में जातीय भावनाएं भड़कायी जाती रहीं तो बाद के दौर में हसीन ख्वाब दिखाये जाने लगे. इन तबकों को अब हकीकत को समझना होगा और बदहाली मिटाने के लिए वैसी ही एकजुटता दिखानी होगी जैसी सामाजिक न्याय के दौर में लालू प्रसाद को ‘गरीब-गुरबों का मसीहा’ बनाने के लिए दिखायी थी. अन्यथा, ऐसे ही शोषक-दर-शोषक पैदा हो उनका शोषण-दोहन करते रहेंगे.
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