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राजेश पाठक
11 अप्रैल 2023

PATNA : चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) के नाम का डंका इन दिनों खूब बज रहा है. शोर ऐसा कि पटना से दिल्ली (Delhi) तक के मीडिया में ‘सुर्खियों का सरताज’ बने हुए हैं. इसको कहते हैं ‘ मैनेजमेंट’. ऐसा मैनेजमेंट न नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) का है और न नीतीश कुमार (Nitish Kumar) का. इस मामले में प्रशांत किशोर ने सबको पीछे छोड़ खुद को कूटनीतिज्ञ के रूप में स्थापित करा दिया. बिहार विधान परिषद के सारण शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र के निर्दलीय प्रत्याशी आफाक अहमद (Afaq Ahmad) की अप्रत्याशित जीत को ‘जन सुराज’ की बड़ी कामयाबी के रूप में परोसवा दिया. इतना ही नहीं, बिहार की राजनीति में बदलाव के आगाज की बात भी करीने से प्रचारित करा दिया. जबकि विश्लेषकों की नजर में हकीकत कुछ और है. महागठबंधन (Mahagathbandhan) की सात दलों की ताकत आधारित आत्ममुग्धता या फिर घटक दलों में समन्वय के अभाव एवं भाजपा (BJP) के अत्यंत ही कमजोर उम्मीदवार ने आफाक अहमद की जीत को आसान बना दिया.

गया में प्रभावहीन क्यों?
सामान्य समझ है कि भाकपा या भाजपा, दोनों में से किसी एक का भी उम्मीदवार दमखम वाला होता तो परिणाम (Result) कुछ और आता. इसको इस सवाल से भी समझा जा सकता है कि यदि ‘बदलाव की बयार’ थी, तो गया शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र में ‘जन सुराज’ समर्थित उम्मीदवार अभिराम शर्मा (Abhiram Sharma) को शर्मनाक पराजय का मुंह क्यों देखना पड़ गया? अभिराम शर्मा में सामर्थ्य नहीं था. मुख्य मुकाबला दो सक्षम-समर्थ उम्मीदवारों में हुआ, अभिराम शर्मा किनारा पकड़े रह गये. लोग पूछ सकते हैं कि यहां प्रशांत किशोर और उनका ‘जन सुराज अभियान’ (Jan Suraj Abhiyan) प्रभावहीन क्यों रह गया? आफाक अहमद की जीत इस मायने में महत्व रखती है कि सारण शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) का 35 वर्षीय मजबूत खूंटा उखड़ गया.

भाकपा से हुई भावनात्मक ‘भूल’
भाकपा का खूंटा शिक्षक नेता केदारनाथ पांडेय (Kedarnath Pandey) ने गाड़ा था. 2020 के चुनाव में उनकी ही जीत हुई थी. 24 अक्तूबर 2022 को उनका निधन हो गया. इसी वजह से उपचुनाव हुआ. विरासत संभालने उतरे उनके पुत्र पुष्कर आनंद (Puskar Anand) उनकी जनप्रियता को सहेज-समेट नहीं पाये, औंधे मुंह गिर गये. भाकपा नेतृत्व से यहां ‘भावनात्मक भूल’ हो गयी. ‘सहानुभूति की नीति’ में नहीं उलझ पुष्कर आनंद की जगह किसी दूसरे अनुभवी नेता पर भरोसा जताता, तो शायद वामपंथ को इस रूप में शर्मिंदा नहीं होना पड़ता. भाकपा नेतृत्व इस चूक पर ‘धन बल’ का आवरण डाल अपनी जिम्मेवारी से नहीं भाग सकता. यह सच है कि इस तरह के चुनावों में धन बल का जोर चलता है. पर, जब इसमें उतरना था तो उस अनुरूप रणनीति क्यों नहीं बनायी गयी? राजनीति के लिए ‘अनुभवहीन’ पुष्कर आनंद को ‘अभिमन्यु’ बनाने की विवशता क्या थी? खैर, यह भाकपा का अंदरूनी मामला है. क्या हुआ, क्या नहीं वह समझे.

नवसिखुए पर दांव
भाजपा ने बड़ी जीत का सपना बुना था और उम्मीदवार बनाया धर्मेन्द्र कुमार (Dharmendra Kumar) को, जिनकी पहचान सीमित थी. पूर्व विधान पार्षद डा. चन्द्रमा सिंह (Dr. Chandrama Singh) भाजपा के उम्मीदवार होते थे. इस बार शिक्षक नेता प्रो. रणजीत कुमार (Prof. Ranjit Kumar) ने भाजपा की उम्मीदवारी के लिए प्रयास किया था. पता नहीं क्यों, दोनों को नजरंदाज कर नवसिखुए पर दांव खेला गया. उपलब्धि हास्यास्पद रही. धर्मेन्द्र कुमार 495 मत ही बटोर पाये. स्थान सातवां रहा. भाजपा के कार्यकर्त्ताओं-समर्थकों का यह जानने का हक बनता है कि किस नेता की सिफारिश या गुजारिश पर धर्मेन्द्र कुमार को उम्मीदवारी दी गयी?

आंकड़े बताते हैं सबकुछ
डा. चन्द्रमा सिंह और प्रो. रणजीत कुमार भी चुनाव मैदान में थे. दोनों को क्रमशः 1255 एवं 1008 मत मिले. निर्दलीय जयराम यादव (Jairam Yadav) की प्राप्ति 2080 मतों की रही. उनकी इस प्राप्ति से किस उम्मीदवार का हित प्रभावित हुआ, यह बताने की शायद जरूरत नहीं. विजयी आफाक अहमद को मात्र 3055 मत मिले. पुष्कर आनंद को 2381 मत. जयराम यादव के मतों को मिला दें तो संख्या 4461 हो जाती. हालांकि, ऐसा ही होता यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता. तब भी यह आईने की तरह साफ है कि मतों के इसी बिखराव ने आफाक अहमद को बिहार विधान मंडल (Bihar Vidhan Mandal) के ऊपरी सदन में पहुंचा दिया. इन आंकड़ों को गौर से देखिये, प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) एवं उनसे जुड़े लोगों की दलील जो हो, आफाक अहमद की जीत में ‘ जन सुराज’ की किसी भी रूप में कोई भूमिका नजर नहीं आती है?

जुड़ाव कांग्रेस से था
जहां तक बेतिया (Bettiah) के चूड़ीहारपट्टी निवासी आफाक अहमद की बात है तो उनकी राजनीति की शुरुआत ‘जन सुराज’ से जुड़ाव से ही नहीं हुई है. वह पहले से राजनीति में सक्रिय रहे हैं. जुड़ाव कांग्रेस (Congress) से था. पहचान पार्टी के समर्पित नेता की थी. सत्ता के प्रति आसक्ति ने कांग्रेस के प्रति उनकी निष्ठा को खंडित कर दिया. वैसे, गांव-समाज में पढ़े-लिखे व सुलझे बुद्धिजीवी के रूप में स्वीकार्यता है. ऐसा ‘जन सुराज’ से जुड़ने के बाद हुआ, ऐसी बात भी नहीं. इस जुड़ाव से इतना अवश्य हुआ कि जनता में विश्वास का विस्तार हुआ और उसका उन्हें अकल्पित लाभ मिला. बेतिया के आमना उर्दू हाई स्कूल (Urdu High School) के शिक्षक रहते उन्होंने आमलोगों में अपनी पैठ बनायी थी. स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद इसी शहर में नेशनल पब्लिक हाई स्कूल चलाने से लोकप्रियता बढ़ी.


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2022 में मिली थी हार
यह जानने की भी जरूरत है कि आफाक अहमद का यह पहला चुनाव नहीं था. 2022 में वह बिहार विधान परिषद के पश्चिम चंपारण स्थानीय प्राधिकार निर्वाचन क्षेत्र से बतौर कांग्रेस उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरे थे. राजद (RJD) के कुमार सौरव (Kumar Saurav) से पार नहीं पा सके थे. 763 मतों से पिछड़ गयेे थे. कांग्रेस से जुड़े रहते तो इस चुनाव में भी आस अधूरी रह जाती. विश्लेषकों की समझ में उनकी जीत में ‘जन सुराज’ का कोई खास योगदान नहीं रहा, पर उसकी ‘छतरी’ ने नैतिक बल जरूर प्रदान किया. इसी छतरी के तहत बिहार विधान परिषद के सारण स्थानीय प्राधिकार निर्वाचन क्षेत्र से अपने बूते जीत हासिल करने वाले सच्चिदानंद राय (Sachidanand Ray) का साथ मिला. उनका अनुभव बहुत काम आया.

राजनीति प्रभावित नहीं होती
थोड़ी देर के लिए आफाक अहमद (Afaq Ahmad) की इस जीत को ‘जन सुराज’ की ही उपलब्धि मान लें, तो क्या इस एक जीत से राज्य की राजनीति में बदलाव आ जायेगा. कदापि नहीं. बदलाव की शुरुआत की बात कोई करता है तो यह उसकी नासमझी ही कही जायेगी. ऐसा इसलिए कि बिहार (Bihar) की राजनीति मुख्य रूप से जातिवाद पर आधारित है. तल्ख सच्चाई यही है कि चुनावों के परिणाम जातियां तय करती हैं. इस कारण यहां की राजनीति किसी ‘आदर्शवादी अभियान’ से प्रभावित नहीं होती. सुनती अवश्य है, पर चाल और चरित्र बिगड़ने नहीं देती है. प्रशांत किशोर भी इस जमीनी सच्चाई को समझते ही होंगे. वैसे, ‘जन सुराज’ बदलाव ला दे, तो बिहार के लिए उससे अच्छी बात और क्या हो सकती है.

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