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बड़ा सवाल : आखिर, क्यों कुंद पड़ जाती है काबिलियत?

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संजय वर्मा
18 अगस्त 2023

Patna : विश्लेषकों की मानें तो सरकार को कड़क मिजाज पुलिस महानिदेशक (DGP) की जरूरत इस वजह से महसूस होती है कि ‘सुशासन’ का दावा करने वालों ने ‘कानून का राज’ का लोक लुभावन नारा तो उछाल दिया, पर यह कैसे कायम रहे, इस पर कभी गंभीर चिंतन-मनन नहीं किया. कोई कारगर नीति- रणनीति नहीं बनायी. विधि-व्यवस्था के मामले में शुरुआती सुधार के बाद हालात फिर से ‘जंगलराज’ जैसे क्यों हो गये, इसका जमीनी सर्वेक्षण नहीं कराया. इसका भी अध्ययन- विश्लेषण नहीं किया कि ‘सुशासन’ के शिल्पकारों में शामिल रहे आईपीएस (IPS) अधिकारी अभयानंद  (Abhayanand) पुलिस महानिदेशक के रूप में विफल क्यों हो गये? अपर पुलिस महानिदेशक (Headquarters) के पद पर रहते हुए उन्होंने त्वरित न्याय (Speedy Trial) को गति देकर सुशासन की साख जमायी थी. पुलिस महानिदेशक के रूप में उस साख को बनाये-जमाये नहीं रख पाये तो उसकी वजह क्या थी?

कारण विद्यमान हैं
ऐसी ही कुछ स्वच्छ छवि एवं सख्त मिजाज वाले पुलिस महानिदेशक देवकी नंदन गौतम (D N Gautam) के कार्यकाल में भी हुआ. पुलिस अधीक्षक के रूप में डी एन गौतम का खौफ ऐसे अन्य किसी अधिकारी से कम था क्या? अभयानंद के बाद पी के ठाकुर (P K Thakur) और के एस द्विवेदी (K S Dwivedi) के कार्यकाल की स्थिति भी किसी रूप में उल्लेख करने लायक नहीं रही. यह कहने में कोई हिचक नहीं कि गुप्तेश्वर पांडेय (Gupteshwar Pandey) और फिर एस के सिंघल (S K Singhal) का कार्यकाल भी कमोबेश वैसा ही रहा. यह शीशे की तरह साफ है कि जिन कारणों से पूर्व के ‘काबिल’ पुलिस महानिदेशकों को नाकामयाबी मिली वे उसी रूप में अब भी विद्यमान हैं. वे कारण थाना से लेकर पुलिस मुख्यालय तक जातीय आधार पर अंदरुनी गुटबंदी और राजनीतिक हस्तक्षेप हैं. पुलिस महकमे की नियति बनी जातीय आधार पर गुटबंदी से निजात पाना नामुमकिन नहीं तो कठिन जरूर है.

आरसीपी टैक्स
सामान्य समझ है कि आर एस भट्टी (R S Bhatti) भी इस अंदरुनी गुटबाजी को तोड़ नहीं पा रहे हैं. अपराधियों के खिलाफ पुलिस की कार्रवाई को प्रभावित करने वाली यह गुटबंदी टूट गयी तब विधि-व्यवस्था बहुत हद तक नियंत्रित हो जा सकती है. जहां तक राजनीतिक हस्तक्षेप की बात है तो वह बहुत कुछ सत्ताशीर्ष की इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है. सुशासन के प्रथम अध्याय में नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की सरकार संयमित थी. परिणाम सकारात्मक रहा. बाद के दिनों में उसकी सोच में भी विकृतियां समा गयीं. स्थानांतरण एवं पदस्थापन में ‘सामाजिक संतुलन’ के नाम पर पूर्व के लालू-राबड़ी (Lalu-Rabri) शासनकाल की तरह जातीयता को बढ़ावा मिलने लगा. धनदोहन के आरोप भी उछलने लगे. नीतीश कुमार की सत्ता का साझीदार बनने से पहले उपमुख्यमंत्री तेजस्वी प्रसाद यादव (Tejashwi Prasad Yadav) और राजद (RJD) के अन्य नेता जिस ‘आरसीपी टैक्स’ की बात करते थे, उसका जुड़ाव इससे भी था.


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अनुकूल पुलिस-तंत्र नहीं
इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि धनदोहन के चलते सक्षमता और कर्मठता कुंठित हो रही है. इसका असर विधि-व्यवस्था पर पड़ना लाजिमी है. कांग्रेस (Congress) के शासनकाल से ही विधि-व्यवस्था के लिए जिम्मेवार पुलिस अधिकारियों के स्थानांतरण  (Transfer) एवं पदस्थापन (Posting) की ऐसी प्रशासनिक परंपरा चली आ रही है जिसमें काबिल से काबिल पुलिस महानिदेशक को भी विधि-व्यवस्था नियंत्रित रखने में सफलता नहीं मिल सकती है. आमतौर पर होता यह है कि पुलिस महानिदेशक के रूप में सक्षम-समर्थ पदस्थापन तो कर दिया जाता है, पर उसके अनुकूल पुलिस-तंत्र विकसित करने की स्वतंत्रता नहीं दी जाती है. यह पुलिस-तंत्र सत्ताशीर्ष या उनके सलाहकार- रणनीतिकार खड़ा करते हैं जिनके अपने सामाजिक एवं राजनीतिक स्वार्थ होते हैं. इस स्वार्थ में विधि-व्यवस्था का मुद्दा गौण पड़ जाता है. ऐसे में पुलिस महानिदेशक की तमाम काबिलियत पुलिस मुख्यालय में ही सिमटी रह जाती है. सामान्य समझ में पुलिस महानिदेशक ‘मोहरा’ बने रहते हैं, सारा कुछ सत्ताशीर्ष के भरोसेमंद अधिकारियों का एक गुट विशेष करता है.

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