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अंधविश्वास का घिनौना खेला…लगता है वहां भूतों का मेला!

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देवव्रत राय
10 अक्तूबर 2024

घिन्हू ब्रह्म स्थान (Bikramganj) : आरा-सासाराम फोरलेन में बिक्रमगंज थाना चौक से निकलती है एक पतली सड़क. नटवार होते हुए दिनारा की तरफ जाती है. उसी सड़क में सात-आठ किलोमीटर दूर इसरपुरा के समीप एक सड़क बांयी ओर निकलती है. वही घिन्हू ब्रह्म स्थान (Ghinhoo Bramha Asthan) ले जाती है. वहां पहुंचने का यह मुख्य मार्ग है. वैसे, संझौली से भी एक रास्ता है. नहर पर बनी सड़क सीधे वहीं जाती है. इसी घिन्हू ब्रह्म स्थान में ‘भूतों का मेला’ (Bhoot Fair) यानी ‘भूत उत्सव’ आयोजित होता है. आज से नहीं वर्षों से. समझ रखनेवाले व्यक्ति इस आयोजन को अंधविश्वास (Superstition) की पराकाष्ठा मानते हैं. परन्तु, इसी समाज के एक तबके में इसके प्रति इतनी गहरी आस्था और विश्वास है कि ‘भूत-प्रेत’ (Bhoot-Pret) के अस्तित्व को नकारने वाला विज्ञान (Science) वहां बौना दिखता है. कानून और प्रशासन (Law and Administration) असहाय नजर आता है.

सब हैं ‘पाप’ के भागीदार
मेला परिसर में एक-दो नहीं, सैकड़ों की संख्या में सिर को गोल-गोल घुमाती, भूत खेलाती, अजब-गजब हरकतें करतीं चीखती-चिल्लाती महिलाओं के शरीर में समाये ‘भूत’ से झाड़-फूंक करने वाले ओझा जब कड़क आवाज में पूछता है-भूत कहां से हऽ… केकर घर से भूत हऽ… अपने घर के हऽ या दूसरे घर के.. बताव जल्दी, 21वीं सदी में भी पसरी ऐसी अज्ञानता और संकुचित सोच से विज्ञान का सिर शर्म झुक जाता है. सभ्य व सुसंस्कृत समाज लज्जित हो उठता है. सिर्फ इस अंधविश्वास (Superstition) पर ही नहीं, ‘भूतखेली’ की आड़ में महिलाओं के साथ दीर्घकाल से हो रही निर्बिघ्न अमानवीयता एवं अनैतिकता पर भी. लेकिन, परंपरा को ढाल बना ऐसे घृणास्पद आयोजन कराने वालों को शर्म तनिक भी नहीं आती है! बल्कि प्रायः सबके सब इस ‘परंपरागत पाप’ के भागीदार दिखते हैं. इस साल (2024) भी शारदीय नवरात्र में कमोबेश उसी रंगत में ‘भूत मेला’ का आयोजन हुआ.

यह है मेले का इतिहास
विस्तार में जाने से पहले इस ‘भूत मेला’ के इतिहास पर नजर डालते हैं. स्थानीय लोगों द्वारा उपलब्ध करायी गयी जानकारी के मुताबिक जहां घिन्हू ब्रह्म स्थान है, वहां पहले पौनी गांव था. सरकारी दस्तावेज में अब वह ‘बेचिरागी’ है. मतलब गांव तो है,पर वहां चिराग जलाने वाला कोई नहीं है. ऐसा क्यों और कैसे हुआ, लोग इसकी रोचक कथा सुनाते हैं. उनके अनुसार ऐसा एक लोक देवता के श्राप के कारण हुआ. वह लोक देवता कोई और नहीं, घिन्हू थे जो बिक्रमगंज प्रखंड के माधोपुर गांव के रहने वाले थे. खिरोदरपुर में उनकी ससुराल थी. एक दिन ससुराल से घर लौट रहे थे. रास्ते में रौनी और पौनी गांव थे. वहां पीपल के पेड़ की छांव में कुछ चरवाहा बैठे हुए थे. घिन्हू वहां पहुंचे तब उन चरवाहों ने उनके पुष्ट शरीर को देख पेड़ के नीचे गड़े लकड़ी के कील को उखाड़ने के लिए ललकारा.

तब धधक उठी चिता की आग
पूरी ताकत लगा उन्होंने कील को तो उखाड़ दिया, पर उसके साथ ही उनके मुंह से खून निकलने लगा. तबीयत खराब होने लगी. स्थिति बिगड़ने लगी तब उन्होंने वहां उपस्थित गांव वालों से पानी की मांग की. पौनी गांव के लोगों ने पानी तो नहीं ही दिया, उनका मजाक भी उड़ा दिया. लेकिन, रौनी गांव वालों ने आदर पूर्वक पानी पिलाया. उसके बाद ‘रौनी की जय और पौनी की क्षय’ का श्राप दे उन्होंने वहीं प्राण त्याग दिये. मृत्यु की सूचना पर पहुंची उनकी पत्नी उन्हीं की चिता पर सती हो गयीं. इसरपुरा के गांव के हैं महावीर यादव. उन्होंने जानकारी दी कि लोक देवता घिन्हू की चिता में आग सुलग नहीं रही थी. पत्नी आयीं. चिता से लिपट गयीं. आग धधक उठी.


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बर्बाद हो गया पौनी गांव
महावीर यादव कहते हैं कि वह चेरो खरवारों की बस्ती थी. वहां डायन भी रहती थी. लोग कहते हैं कि डायन ने ही घिन्हू को अपना ग्रास बना लिया. सच क्या है, यह नहीं कहा जा सकता. ग्रामीणों ने उन दोनों की स्मृति में वहां ब्रह्म स्थान बना दिया जो कालांतर में घिन्हू ब्रह्म स्थान के नाम से प्रसिद्ध हुआ. स्थानीय लोग बताते हैं कि घिन्हू ब्रह्म के श्राप का असर हुआ कि पौनी गांव धीरे-धीरे बर्बाद हो गया. टीले के अलावा वहां कुछ नहीं बचा. दूसरी तरफ रौनी गांव की रौनक बढ़ गयी. यहां जानने वाली बात है कि घिन्हू ब्रह्म के श्राप को लेकर सिर्फ यही किस्सा चर्चा में नहीं है. थोड़े बहुत बदलाव के साथ कई किवंदतियां हैं. सबकी चर्चा संभव नहीं है.

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