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जितना जब्बर ‘भूत’ उतना बड़ा ‘ओझाई’ का शुल्क!

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देवव्रत राय
15 अक्तूबर 2024

घिन्हू ब्रह्म स्थान (बिक्रमगंज) : रोहतास (Rohtas) जिले के बहुचर्चित घिन्हू ब्रह्म स्थान में दो मंदिर हैं. घिन्हू ब्रह्म मंदिर (Ghinhoo Brahm Mandir) और सती मंदिर. ये कितने पुराने हैं, यह कोई नहीं जानता. उसी मंदिर परिसर में साल में दो बार-शारदीय नवरात्र और चैत्र नवरात्र में कथित रूप से ‘भूतों का मेला’ लगता है. बताया जाता है कि ऐसा सौ साल से अधिक समय से हो रहा है. चैत्र नवरात्र की तुलना में शारदीय नवरात्र का आयोजन काफी विस्तृत होता है. वैसे तो आधिकारिक तौर पर इस मेले को घिन्हू ब्रह्म मेला (Ghinhu Brahma Mela) कहा जाता है, पर सामान्य समझ में यह झाड़-फूंक करने वाले ओझाओं (Ojhaon) और कथित रूप से भूत-प्रेत (Bhoot-Pret) पीड़ितों का मेला है. संक्षेप में इसे ‘भूतों का मेला’ (Bhooton Ka Mela) कहा जाता है. कुछ लोगों की नजर में यह ‘भूत उत्सव’ है.

ज्यादा संख्या महिलाओं की
भूत-प्रेत खेलाने वालों को ओझा लोग ‘जसनी’ (Jasni) कहते हैं. जसनियों में ज्यादा संख्या महिलाओं की होती है. पुरुष भी होते हैं, पर इक्के-दुक्के. महिलाएं हों या पुरुष, प्रायः सभी समाज के उस निम्न तबके के होते हैं जो हाशये पर हैं और जहां विज्ञान (Science) का ज्ञान अभी तक नहीं पहुंच पाया है. यानी निहायत गरीब होते हैं. हालांकि, कम संख्या में ही सही, मध्यवर्ती जातियों की महिलाएं भी खुले बाल वाले सिर घुमाती नजर आती हैं. परहेज ऊंची जाति की महिलाएं भी नहीं करती हैं.

बड़ी भूमिका ओझाओं की
सामान्य समझ है कि आस्था और विश्वास (Faith & Trust) की बुनियाद पर हो रहे अंधविश्वास (Superstition) के इस घिनौने खेल में झाड़-फूंक करने वाले ओझाओं (Ojhaon) की बड़ी भूमिका होती है. ओझाओं की संख्या कितनी है यह नहीं कहा जा सकता. अनुमानित संख्या पांच हजार के आसपास बतायी जाती है. सिर्फ पुरुष ओझा ही नहीं, महिला ओझा यानी ओझाइन की संख्या भी काफी है. दिलचस्प बात यह कि ओझाई के लिए कोई योग्यता-पात्रता निर्धारित नहीं है. न कही निबंधन कराना है और न किसी से प्रमाण-पत्र लेना है. न जाति का कोई बंधन है. नंगे बदन पर नेहरू जैकेट, गले में रुद्राक्ष और भगवा गमछा लपेट लिये और हो गये ओझा! स्थानीय लोगों ने बताया कि इस मेले का नियम है कि कोई अंजान पीड़ित व्यक्ति यहां किसी अनजान ओझा से झाड़-फूंक नहीं करा सकता. उसे ओझा साथ लेकर आना होता है.


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बन जाता है सिलसिला
45 वर्षों से ओझाई कर रहे 71 वर्षीय चुल्हाई पासवान बाहरी हैं. अब यहीं बस गये हैं. अपने पिता से झाड़-फूंक सीख वह 25 साल की उम्र से ही ऐसा कर रहे हैं. ओझाई के शुल्क के संदर्भ में वह मुंह नहीं खोलते हैं. पर, मेले के आयोजन में सक्रिय भूमिका निभाने वालों की मानें तो, जितना जब्बर भूत, उतना बड़ा ओझाई का शुल्क! पांच से पचास हजार रुपये तक! शुल्क और सेवा एक बार नहीं, ‘काले साये’ से मुक्ति पायीं अधिकतर महिलाओं के लिए यह सिलसिला-सा बन जाता है. ओझा और उनकी ओझाई से ‘चमत्कृत’ अधिकतर महिलाएं हर साल मेले में पहुंच उन्हें बहुत कुछ ‘न्योछावर’ कर जाती हैं.

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