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भोजपुरी गीत-संगीत : फूहड़ता में समा रहा संस्कार

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भोजपुरी के संस्कारित गीत-संगीत में आकंठ समायी अश्लीलता-फूहड़ता पर आलेख प्रकाशित होते रहते हैं. पर, उनमें गंभीरता नहीं होती. यह विद्रूपता क्यों आयी इसका विशद विश्लेषण नहीं होता. छह किस्तों के इस आलेख में इसके कारकों एवं कारणों का सच उघारा गया है. प्रस्तुत है दूसरी किस्त :-


राजेश पाठक
01 अक्टूबर, 2021

PATNA. धीरे-धीरे ऐसा लगने लगा कि भोजपुरी क्षेत्र के ग्रामीण युवा अश्लीलता और फूहड़ता से युक्त गाने खूब सुनते हैं. अश्लील कैसेटों की बिक्री बढ़ती देख टी-सीरिज ने गुड्डू रंगीला और राधेश्याम रसिया जैसे अश्लील गायकों को बढ़ावा दिया. बिक्री होते ही अश्लील गायक अपने आप को डायमंड स्टार तक घोषित करने लगे.

भोजपुरी के कैसेटों में अच्छे कम और बुरे ज्यादा आने लगे. अश्लीलता की होड़ लग गयी. लोकल कैसेट कंपनियों से लेकर टी-सीरिज जैसी बड़ी कंपनी को भी इसी दौड़ में दौड़ते देखा गया. बिजली रानी ने वैसे गाने खूब गाये जिसके टाइटल गन्दे होते थे और उसे ट्रक चालक बड़े चाव से सुनते थे. बाजार की मांग से गानों की दिशा तय होने लगी.

अश्लील गीतों ने युवकों को लुभाया
कंपनियों को यह समझ में आने लगा कि भोजपुरी के अच्छे लोकगीत सिर्फ रेडियो में सुने जाते हैं. गांव का युवा वर्ग अश्लील गीतों के कैसेटों को ज्यादा पंसद करता है और उन्हें खरीदता है. हालांकि शुरू में ऐसी बात नहीं थी जब भोजपुरी में सिर्फ अच्छे गीत ही बजते थे. पर, अश्लील गीतों ने ग्रामीण युवकों को ज्यादा लुभाया.

हम कह सकते हैं कि अश्लील गीतों ने कम पढ़े-लिखे मजदूरों और युवकों की रूचि को बिगाड़ दिया. उन्होंने भोजपुरी को यही समझ लिया. उन्हें पता ही नहीं चला कि अच्छे गीत कैसे होते हैं.

हो गयी शुरू प्रतियोगिता
बरसाती मेढ़क की तरह फूहड़ गीतकारों की भरमार हो गयी. अश्लीलता और फूहड़ता में प्रतियोगिता शुरू हो गयी. गायक यही मानने लगे कि यदि बाजार में हिट होना है तो ‘अश्लीलता’ को अपनाना ही होगा.


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गुड्डू रंगीला और राधेश्याम रसिया के बाद अश्लीलता का दामन थामे तीन कलाकार सामने आये. छैला बिहारी, मनोज तिवारी और कल्पना. वे तीनों गुड्डू रंगीला की तरह सीधे-सीधे फूहड़ नहीं थे, परन्तु पिछले दरवाजे से मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता को खूब परोसा. एक और खतरनाक बात यह थी कि इन सब ने गलत मैसेज अपने गीतों के माध्यम से दिया.

ही-ही-ही हंस देले …
भोजपुरी साहित्य की जो महान परम्परा थी उसको मटियामेट किया जाने लगा. जरा मनोज तिवारी के गाये इस गीत को देखिये-चट देनी मार देनी कस के तमाचा, ही-ही-ही- हंस देले रिंकिया के पापा. दिल्ली में विधानसभा के चुनाव हो रहे थे तो इस गाने ने मनोज तिवारी को मजाक का विषय बना दिया था.

कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि चुनाव में भाजपा की हार का एक प्रमुख कारण मनोज तिवारी की भद्दी गायकी भी थी. मनोज तिवारी का एक और नमूना देखिये- बबुनी के लागल बा शहर के हवा अऊरी पढ़ाव. यह गाना ग्रामीण क्षेत्र की उन लड़कियों पर भद्दा व्यंग्य है जो गांवों से शहर पढ़ने आती हैं और अपने गरीब माता-पिता के सपनों को पूरा करना चाहती हैं.

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