मेरी भी अब कोई व्यक्तिगत इच्छा नहीं रही
विभेष त्रिवेदी
01 अप्रैल, 2022
Muzaffarpur : मित्रों आज फर्स्ट अप्रैल (April) है. ईमान-धर्म को हाजिर नाजिर मानकर सूबे की जनता तक आज ही यह संदेश पहुंचा देना जरूरी है कि अब मेरी भी कोई व्यक्तिगत इच्छा नहीं रही. अब तो बस अरोस-परोस के लोगों, स्कूल के दिनों के सहपाठियों और जवानी के दिनों के साथियों के बीच जाने का मन करता है. खूब घूमने की इच्छा होती है. एक दिन सीतामढ़ी की ट्रेन में बैठा और जुब्बा सहनी स्टेशन, बेनीपुरी हाल्ट, बाजपट्टी, जनकपुर रोड, दरभंगा, रामचंद्रपुर एवं समस्तीपुर स्टेशनों को खिड़की से निहारते हुए देर शाम मुजफ्फरपुर लौट आया. मेरी मनः स्थिति हरनौत, बाढ़-बख्तियारपुर के उस महिला जैसी है, जिसके ससुराल जाने का दिन धरा गया है.
आपको बताऊं कि 70 के दशक में जब लड़कियों के ससुराल जाने की तारीख (दोंगा) तय हो जाती थी, वे विदाई के कुछ दिन पहले से पास-परोस की सखी-सहेलियों से मिलना-जुलना शुरू कर देती थीं. कोई ससुराल की चर्चा चला दे तो हौले से मुस्कुरा देती थीं. ये सखी-सहेलियां भी बड़ी ढीठ होती थीं. कुछ-कुछ आज के पत्रकारों जैसी. जैसे ही किसी सहेली के दिन धराने की या पांव भारी होने की भनक लगती, हरजाई सखियां राज उगलवाने के लिए सवाल पूछ-पूछ कर जान ले लेती थीं. कभी पेट में गुदगुदी लगातीं तो कभी पीठ पर अचानक प्यार से एक हूंथा (मुक्का) दे मारतीं. हूंथा खाने वाली तो हूंथा चलाने वाली को हंसते हुए माफ कर देती थी.
कुंवारे अपराधी को काला पानी पर भेजने से पहले दरबार में बुलाया. उससे अंतिम इच्छा पूछी गयी. अपराधबोध से कुंवारे में वैराग भाव आ चुका था. उसने कहा – अब कोनो इच्छा न बच्चल हय. राजा ने द्रवित होकर फिर पूछा, कोई अरमान बाकी है तो बताओ, मैं उसे पूरा करने का वचन देता हूं. कुंवारे ने राजा की ओर टुकुर-टुकुर ताकते हुए कहा – ‘हुजूर माई-बाप, सब कुछ देखली-सुनली, अपना घर-अंगना में अधबोलिया न सुनली.’
जिस लड़की को ससुराल जाना हो या पेट से (गर्भवती) होती थी, उसे परोसी मेहमानी खिलाना शुरू कर देते थे. यह ‘मेहमानी’ कोई व्यंजन नहीं होता था. मेहमानी छोटे भोज (पार्टी) का पर्यायवाची शब्द है. वाक्य प्रयोग द्वारा समझाऊं तो, हाल में राजधानी के राजभवन में और अध्यक्ष जी के घर पर मेहमानी खिलायी गयी. सत्ता के गलियारों में चल रही मेहमानी ( मेहमाननवाजी) से भनक आ रही है कि सूबे के सियासी गर्भ में जरूर कुछ पल रहा है.
खैर, जाने दीजिये. मैं अपने वैराग की बात करने चला था. मेरे मित्र और शुभचिंतक मेरे वैराग पर भरोसा नहीं कर रहे हैं. उन्हें इस सफाई पर विश्वास नहीं हो रहा है कि अब मेरी भी कोई व्यक्तिगत इच्छा नहीं है. वे बार-बार कबीर का यह दोहा सुनाते हुए मेरी आंखों में झांकते हैं – ‘माया मरी न मन मरा, मर -मर गये शरीर आशा तृष्णा न मरी, कह गये दास कबीर.’
मेरे मित्र मेरी अंतिम इच्छा पूछ रहे हैं. मुझे एक कुंवारे अपराधी की याद आ रही है, जिसे काला पानी की सजा सुनाई जा चुकी थी. उस पर राजा के सम्मान में प्रस्तावित भोज का पत्ता पलटने का आरोप साबित हुआ था. उसे समाज द्रोही और राजद्रोही करार दिया गया था. राजा बड़े दयालु थे.
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कुंवारे अपराधी को काला पानी पर भेजने से पहले दरबार में बुलाया. उससे अंतिम इच्छा पूछी गयी. अपराधबोध से कुंवारे में वैराग भाव आ चुका था. उसने कहा – अब कोनो इच्छा न बच्चल हय. राजा ने द्रवित होकर फिर पूछा, कोई अरमान बाकी है तो बताओ, मैं उसे पूरा करने का वचन देता हूं. कुंवारे ने राजा की ओर टुकुर-टुकुर ताकते हुए कहा – ‘हुजूर माई-बाप, सब कुछ देखली-सुनली, अपना घर-अंगना में अधबोलिया न सुनली.’ राजा ने मंत्री से पूछा यह अधबोलिया क्या होती है? जहांपनाह यह अपने घर-आंगन में अपने बच्चे की तुतलाहट सुनना चाहता है, लेकिन दिक्कत यह है कि इसके घर में बीवी नहीं है! बच्चा कहां से आयेगा. राजा बड़े दयालु थे. उन्होंने काला पानी की सजा रद्द करते हुए कुंवारे की शादी कराने का हुक्म दिया.
मित्रों, आपके मन में भी कोई अरमान बाकी है तो सीधे-सीधे मुंह नहीं खोलिये. नाक सीधे नहीं पकड़िये, हाथ घूमाकर पकड़िये. मसलन अगर आप सांसद बनने का सपना पाल रखे हैं तो मंत्री बनने का जुगाड़ लगाइये, सांसद तो आप स्वतः बना दिये जायेंगे. अगर आप पहले भी मंत्री-सांसद बन चुके हैं तो राज्यसभा की सदस्यता की बजाय उपराष्ट्रपति बनाने के लिए मुंह खोलिये, आप सदस्य बने बगैर राज्य सभा का पदेन सभापति बन जायेंगे. बाकी आपकी मर्जी, मैं तो सिर्फ राय दें सकता हूं.
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