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इसलिए भाजपा के लिए बंजर है बिहार का यह अंचल?

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तेजस्वी ठाकुर
23 अगस्त 2023

Saharsa : कांग्रेस (Congress) का शासनकाल रहा हो या सामाजिक न्याय की राजनीति का विवादास्पद दौर या फिर ‘जुमलों भरा’ राजग (NDA) का सुशासन, निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या अपेक्षाकृत कम रहने के बावजूद बिहार (Bihar) की सत्ता और सियासत में कोशी अंचल को अन्य क्षेत्रों की तुलना में कुछ अधिक महत्व और तदनुरूप हिस्सेदारी मिलती रही है. इसका मुख्य आधार इस अंचल के दमदार नेताओं की राजनीति में कारगर हस्तक्षेप की हैसियत रही है, दिशा बदलने की कूबत व काबिलियत भी. ऐसे सियासी शख्सियतों की कभी-कभार की गैर मौजूदगी सत्ता के गलियारे में सूनापन भर देती थी और अक्सर राजनीति में बदलाव का वाहक बन जाया करती थी. इस वजह से स्थानीय सामाजिक समीकरणों में महत्व बना रहता था. सत्ता शीर्ष के निर्णय आमतौर पर उसी के अनुरूप हुआ करते थे.

नीतीश ने दिखायी दरियादिली
‘सुशासन’ के शुरुआती वर्षों में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने भी इस अंचल में राजनीति की उसी परंपरा का निर्बाह किया. जदयू के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव (Sharad Yadav) का दबाव रहा हो या दलीय रणनीतिक जरूरत, इस क्षेत्र से एक साथ तीन-तीन मंत्री बनाये गये. राजग सरकार के आखिरी सोपान में संयोगवश ऐसा अवसर भाजपा को मिल गया. विधायक संख्या अधिक रहने पर भी जदयू (JDU) नेतृत्व ने कोशी अंचल की सत्ता में भागीदारी भाजपा के हिस्से डाल दी. सुपौल (Supaul) से लगातार आठवीं जीत हासिल करने वाले विजेन्द्र प्रसाद यादव (Vijendra Prasad Yadav) को मंत्रिमंडल में बनाये रखना उसकी राजनीतिक मजबूरी थी. इस वजह से ऊर्जा मंत्री के पद पर वह जमे रहे.

मौका गंवा दिया भाजपा ने
विश्लेषकों की समझ में भाजपा ने भारत (India) के संसदीय इतिहास में पहली बार मिले ऐसे अवसर का इस्तेमाल अपने अति कमजोर क्षेत्रीय जनाधार को मजबूत बनाने में नहीं किया. इसे इस पार्टी का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि सामाजिक संतुलन और राजनीतिक समीकरणों की अनदेखी कर इसने मौका गंवा दिया. ‘पहुंच’ वाले नेताओं को ‘उपकृत’ करने की अदूरदर्शिता भरी उसकी पहल का लाभ भाजपा के लिए ‘बंजर’ रहे इस अंचल में तो नहीं ही, राज्य के अन्य क्षेत्रों में भी मिलने की कोई संभावना नहीं बन पायी.

प्रदेश भाजपा कार्यालय.

झांकना होगा अतीत में
कोशी अंचल (Koshi Zone) भाजपा की राजनीति के लिए दीर्घकाल से ‘बंजर’ बना हुआ है, ऐसा क्यों? यह जानने-समझने के लिए अतीत में ताकना-झांकना होगा. भारतीय स्वतंत्रता के प्रारंभिक काल में अन्य इलाकों की तरह यह अंचल भी कांग्रेस का मजबूत गढ़ था. कालांतर में ‘समाजवादी समझ’ को विस्तार मिला तो राजनीति उस धारा में बह गयी. भारतीय जनसंघ ने भी उस कालखंड में ‘दीपक’ का उजियारा फैलाने का पुरजोर प्रयास किया, पर टिमटिमाहट से ज्यादा उसकी रोशनी नहीं फैल पायी. चुनावों में कभी कहीं कोई स्वतंत्र सफलता नहीं मिली.1977 से पहले के चुनावों में कांग्रेस को टक्कर मुख्य रूप से समाजवादी दल ही देते रहे.


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समाजवादियों का दबदबा
बात अब विधानसभा के चुनावों की. सहरसा में भारतीय जनसंघ की मजबूत मौजूदगी दिखती अवश्य थी, लेकिन कामयाबी दूर ही रह जाती थी. सच यह भी कि जनाधार के मामले में समाजवादी दल भी ज्यादा सशक्त नहीं थे. कुछ अपवादों को छोड़ बाजी कांग्रेस के हाथ ही लगती रहती थी. पर, लोकनायक जयप्रकाश नारायण (Jai Prakash Narayan) की ‘संपूर्ण क्रांति’ से प्रभावित 1977 के विधानसभा चुनाव (Assembly Elections) ने राजनीति की दिशा मोड़ दी, तो 1990 के ‘सामाजिक न्याय’ ने पूरी तरह से उसका रुख बदल दिया. पूर्व में बड़ी कामयाबी हासिल करने वाली कांग्रेस हाशिये की ओर सरक गयी. दबदबा तथाकथित समाजवादी पृष्ठभूमि के दलों का कायम हो गया. ‘सामाजिक न्याय’ वाले कालखंड में राजद (पूर्व में जनता दल) और बाद में जदयू का.

वैसा नहीं कर पायी भाजपा
भाजपा (BJP) का दुर्भाग्य ही रहा कि कांग्रेस से छिटके जनाधार को वह अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पायी, खुद से जोड़ नहीं पायी. फलतः स्वतंत्र जीत कभी नहीं हो पायी. 1977 में ‘संपूर्ण क्रांति (Sampoorna kranti)’ की कोख से निकली जनता पार्टी में भारतीय जनसंघ (वर्तमान में भाजपा) भी समाहित था. इस वजह से जनसंघ की पृष्ठभूमि वाले पूर्व मंत्री शंकर प्रसाद टेकरीवाल (Shankar Prasad Tekriwal) को कामयाबी मिल गयी.1990 में1977 की तरह के राजनीतिक प्रयोग के तहत अस्तित्व में आये जनता दल के निर्वाचित विधायकों में शंकर प्रसाद टेकरीवाल का नाम जुड़ जाने का आधार भी यही रहा. बाद के वर्षों में शंकर प्रसाद टेकरीवाल ‘संघी चोला’ उतार सामाजिक न्याय की राजनीति में रम गये.

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