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हाल ‘बंजर भूमि’ का : 73 वर्षों की मशक्कत के बाद दो सीटें!

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तेजस्वी ठाकुर
25 अगस्त 2023

Saharsa : भाजपा (BJP) के लिए 2005 का चुनाव ‘ऐतिहासिक’ रहा. आजादी के 58 वर्षों और 12 चुनावों के बाद कोशी अंचल में अपने बूते उसे प्रथम जीत नसीब हुई. सहरसा विधानसभा क्षेत्र (Saharsa Assembly Constituency) में संजीव कुमार झा ने उसे यह ‘उपलब्धि’ दिलायी. लेकिन, विडम्बना यह कि उस जीत के बाद भाजपा नेतृत्व ने फिर कभी उन्हें अवसर उपलब्ध नहीं कराया. कथित रूप से उनकी ‘सियासी जमीन’ पर आलोक रंजन(Alok Ranjan) ने ‘अतिक्रमण’ कर लिया, जो राजग की पिछली सरकार में कला एवं संस्कृति मंत्री थे. चूंकि इस ‘अतिक्रमण’ को भाजपा नेतृत्व की सहमति-स्वीकृति मिली हुई थी. इसलिए सवाल उठने-उठाने की कोई गुंजाइश नहीं बनी. राजनीति के विचारकों का मानना है कि 2014 के संसदीय चुनाव की प्रचंड ‘मोदी लहर’ 2015 के विधानसभा चुनाव में भी बड़ी कामयाबी दिला सकती थी. परन्तु, राजग (NDA) के रणनीतिकारों की चूक ने भाजपा की उम्मीदों पर पानी फेर दिया.

चौंक गयी राजनीति
कोशी अंचल (Koshi Zone) की अनेक सीटें अपेक्षाकृत अधिक कमजोर सहयोगी दलों में प्रसाद की तरह बांट दी गयीं. भाजपा के हिस्से में सात सीटें रहीं, कामयाबी सिर्फ एक पर मिली. वैसे, इस बेढंग बंटवारे का बड़ा कारण भाजपा का खुद का ढनमनाया जनाधार और आत्मविश्वास (Self-confidence) भी रहा. 2020 में जदयू (JDU) साथ में था. भाजपा के कोटे में सिर्फ दो सीटें गयीं. दोनों पर जीत मिली. यानी शतप्रतिशत सफलता.
पूर्व विधायक संजीव कुमार झा (Sanjeev Kumar Jha) अब इस धरा पर नहीं हैं. उनकी राजनीति की विरासत पत्नी बेन प्रिया संभाल रही हैं. वह सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता हैं. स्थानीय राजनीति की अच्छी समझ रखती हैं. सहरसा नगर निगम के महापौर (Mayor) का पद जीत कर उन्होंने राजनीति को तो चौंका ही दिया , कई की नींद भी हराम कर दी है, चैन छीन लिया है. 2025 के विधानसभा चुनाव में वह सहरसा से दावेदार बन जाये, तो अचरज की वह कोई बात नहीं होगी.

‘मोदी लहर’ का भी प्रभव नहीं
आजादी के 58 वर्षों के बाद पहली और उसके 15 वर्षों बाद दूसरी सफलता! यानी 73 वर्षों की मशक्कत के बाद दो सीटें! खैर, इतने वर्षों बाद ही सही, भाजपा एक से दो तो हुई! वैसे, 2020 में इसे एक साथ दो सीटें नसीब हुईं. इसके बावजूद यह सवाल अब भी बड़ा आकार लिये हुए है कि आखिर, यह अंचल उसके लिए ‘बंजर’ क्यों बना हुआ है? लोकसभा (Lok Sabha) और विधानसभा के चुनावों में अपेक्षित सफलता क्यों नहीं मिल पाती है? कोशी अंचल में दो संसदीय क्षेत्र हैं. भाजपा की जीत कभी कहीं नहीं हुई है. 2014 की ‘प्रचंड मोदी लहर’ में भी नहीं. 2019 में दोनों सीटें उसने सहयोगी जदयू को दे दिया. 2014 की विफलता के परिप्रेक्ष्य में सवाल उठना स्वाभाविक है कि पूर्व के बड़े दलीय नेताओं की बात अपनी जगह है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ‘करिश्माई नेतृत्व’ भी इस अंचल में प्रभावहीन क्यों रहा?


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यह है कारण
कोशी अंचल पिछड़ा-अतिपिछड़ा बहुल है. इस दृष्टि से भी नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) और अमित शाह (Amit Shah) संधारित ‘कमल’ का कुम्हलाये रहना जन सामान्य के लिए भी हैरत की बात रही. लेकिन, पार्टी नेतृत्व को शायद इससे कोई हैरानी नहीं हुई. इसलिए कि भाजपा के रणनीतिकारों ने कोशी अंचल के सामाजिक समीकरणों एवं राजनीतिक जरूरतों को दृष्टिगत रख कभी अपनी रणनीति बनायी ही नहीं.

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