इस कारण सुस्त शासन में बदल गया सुशासन!
विष्णुकांत मिश्र
09 सितम्बर 2023
Patna : प्रेम अकारण हो सकता है और जीवन भर रह सकता है. क्रोध और वितृष्णा अकारण नहीं होती और जीवन भर रहती है. अपनी उन गहरी जड़ों के साथ जो अंदर ही अंदर फैलती चली जाती हैं. यद्यपि सतही दोनों नहीं होते-न प्रेम, न वितृष्णा. लेकिन, उनके होने की वजहें भिन्न होती हैं. पटना और गया वाले मगध इलाके के दृढ़ प्रतिज्ञ और मेधावी नीतीश कुमार (Nitish Kumar) बिहार कालेज ऑफ इंजीनियरिंग, पटना में पढ़ाई कर रहे थे तभी उनके दिमाग की सांकलें खुलने लगी थीं. मैकेनिकल इंजीनियरिंग पढ़ते-पढ़ते झुकाव सोशल इंजीनियरिंग की ओर होने लगा था. तब तक वह अपने घर में और पड़ोसियों के लिए ‘मुन्ना’ ही थे, पर ‘सुशासन बाबू’ बनने में उन्हें अधिक समय नहीं लगा.
मौकापरस्ती व कृतघ्नता!
पत्रकार संकर्षण ठाकुर (Sankarshan Thakur) ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर लिखी अपनी किताब ‘सिंगल मैन’ में उनके इस कायांतरण को सहज-संभाव्य कहा है. जिसने अपना पाठ राज्य के बड़े नेताओं से पढ़ा हो, इसके अलावा और हो भी क्या सकता था. छवि ईमानदार और आदर्शवादी है, समाजवादी विरासत की थोड़ी बहुत नैतिकता भी है. बची-खुची यही नैतिक सत्ता ‘सुशासन’ का आधार थी, जो विश्लेषकों की नजर में ‘अकड़’ में परिवर्तित हो गयी. ‘सुशासन’ भी ‘सुस्त शासन’ में बदल गया. राजनीतिक एवं प्रशासनिक आचरणों के संदर्भ में तमाम खूबियों के बीच नीतीश कुमार पर आरोप जिद्दी और स्वार्थी होने के लगते रहे हैं. मौकापरस्ती और कृतघ्नता के भी. लोग उदाहरण (Example) की शुरुआत गायसल रेल हादसे से करते हैं.
धूल की तरह झाड़ दिया
गायसल रेल हादसे (Gayasal Train Accident) के बाद उन्होंने रेल मंत्री का पद छोड़ दिया था. लेकिन, गोधरा कांड (Godhra Incident) के बाद भी वह भाजपा नीत राजग की सरकार में बने रहे. दोनों दुर्घटनाएं उनके रेल मंत्री रहते हुई थीं. आठ बार बिहार के मुख्यमंत्री और केंद्र में रेल, कृषि एवं भूतल परिवहन मंत्री रहे नीतीश कुमार को अब भी यह सफाई देनी ही पड़ती है कि गोधरा के समय केंद्र में नरेंद्र मोदी की नहीं, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी, जो नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को ‘राजधर्म’ सिखा कर आये थे. लेकिन, भाजपा (BJP) के तमाम बड़े नेताओं को भोज पर आमंत्रित कर परोसी गयी थाली खींच लेने की बाबत उनकी कभी कोई सफाई नहीं आयी. अपमानित भाजपा ने राज्यहित में उस ‘अकड़’ को धूल की तरह झाड़ दिया. सार्वजनिक रूप से कहीं कोई चर्चा तक नहीं की.
धारण कर लेते ‘कंठी-कमंडल’
1995 की छह सीटों की छोटी-सी कामयाबी की हताशा में राजनीति छोड़ ‘कंठी-कमंडल’ धारण करने जा रहे नीतीश कुमार को प्रदेश स्तरीय नेतृत्व की विकल्पहीनता आधारित विवशता कहें या सदाशयता, कंधे का सहारा दे सत्ता के शिखर पर भाजपा ने ही पहुंचाया. दो दशक से ज्यादा समय तक उसी के सान्निध्य में सत्ता का सुख भोगते रहे. तटस्थ नजरिये में इस गठजोड़ में एक तरफ सत्ता का स्वार्थ था, तो दूसरी तरफ राज्य का हित. जदयू (JDU) नेतृत्व को कड़वा लग सकता है, पर इस हकीकत से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि उस दौर में दूसरी तरफ भी सत्ता की उत्कंठा रहती तो बिहार (Bihar) में पीढ़ी-दर-पीढ़ी ‘परिवार’ की ही सत्ता बनी रहती. ‘सुशासन’ किलकारियां नहीं भरता, गर्भ में ही मर जाता. प्रधानमंत्री पद का ख्वाब अंकुरित नहीं होता.
‘चाणक्य’ की ऐसी बुद्धि!
भाजपा की राज्य हित की इस सोच को उसकी कमजोरी मान उसे वक्त-बेवक्त अपमान का घूंट पिलाया जाता रहा. अब तो उसी ‘परिवार’ की ताजपोशी की तैयारी के बीच बजाप्ते ‘भाजपा मुक्त भारत’ अभियान ही चल रहा है. नीतीश कुमार और उनके रणनीतिकार सवाल उठा रहे हैं, ‘आजादी की लड़ाई में कहां थे?’ गजब बात है, थोड़ी-सी भी गैरत नहीं! दो दशक से ज्यादा समय तक गलबहियां लगाये रहे और स्वतंत्रता संग्राम (Freedom Struggle) में भाजपा (उस वक्त जनसंघ) की भूमिका को समझ नहीं पाये! ‘चाणक्य’ की ऐसी बुद्धि! 2013 में भाजपा से अलग हुए थे तब ‘संघ मुक्त भारत’ बना रहे थे. दम निकल गया तब 2017 में फिर उसी संघ के शरणागत हो गये. खैर, राजनीति के लिए ऐसी बेहयाई कोई बड़ी बात नहीं है. यह चलती रहती है. कोई भी राजनीतिक दल और राजनेता इस मामले में पाक-साफ रहने का दावा नहीं कर सकता.
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राजनीतिक अवसरवादिता
तब के राजनीतिक हालात में मुख्यमंत्री पद को खुद के लिए असाध्य मान ‘अंगूर खट्टा है’ के तर्ज पर कहा करते थे कि जिस कुर्सी पर राबड़ी देवी बैठ गयीं, उस पर वह क्या बैठेंगे! लेकिन, सन् 2000 में हालात थोड़ा बदले, विधानसभा में राजग (NDA) को बड़े दल की हैसियत मिली, लपक कर उसी कुर्सी पर बैठ गये. निर्णय राजग का अवश्य था, पर उन्हें तो अपने वचन पर कायम रहना चाहिये था. बहुमत का जुगाड़ नहीं हुआ. राबड़ी देवी (Rabri Devi) फिर से काबिज हो गयीं. उस कालखंड में नीतीश कुमार केन्द्र की राजनीति में सक्रिय थे. सन् 2000 में मुख्यमंत्री का पद पाने से वंचित रह गये तब राज्य की राजनीति में ही जमने की बात करने लगे. इस पर भी कायम नहीं रहे. केन्द्र में मंत्री बनने का मौका मिला, बिहार को भूल फिर वहीं रम गये.
बन गयी ‘पलटूराम’ की छवि
तकरीबन साढ़े पांच साल बाद नवम्बर 2005 में राजग (NDA) बहुमत में आया तो लोकसभा की सदस्यता त्याग बिहार में मुख्यमंत्री के पद पर आसीन हो गये. यह भी राजग का निर्णय था. तब भी उनके पूर्व के बयानों के परिप्रेक्ष्य में इसे भी मौकापरस्ती (Opportunism) के नजरिये से ही देखा गया. वैसे, वैचारिकता व नैतिकताविहीन राजनीति के लिए यह कोई खास मायने-मतलब नहीं रखता है. हर कोई ऊंचा मुकाम चाहता है. उस दृष्टि से भी इसे अनुचित नहीं कहा जा सकता. परन्तु, जिस तरह लगातार तीन बार-2013, 2017 और 2022 में- गठबंधन बदल चुनावी जनादेश (Electoral Mandate) का अपमान किया गया, उसे निकृष्ट राजनीतिक अवसरवाद ही कहा जायेगा. गठबंधन से अलग हो चुनाव में जाते तो वह आदर्श माना जाता. नीतीश कुमार और उनके समर्थकों की समझ जो हो, इसी अवसरवादिता ने उनकी विश्वसनीयता को ‘पलटूराम’ के रूप में परिभाषित कर दिया है.
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