बिहार में शिक्षा : गुणवत्ता की नहीं कोई चिंता
राजकिशोर सिंह
28 सितम्बर 2023
Patna : किसी भी देश या राज्य का सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास मुख्य रूप से वहां की शिक्षा पर निर्भर करता है. शिक्षा नीति (Education Policy) सुस्पष्ट-सुदृढ़ और गुणवत्तापूर्ण नहीं होगी तो प्रतिभा कुंठित होकर रह जायेगी, हर तरह का विकास अवरुद्ध हो जायेगा. इस मामले में बिहार सौभाग्यशाली (Lucky) है कि इसका अतीत गौरवशाली रहा है. शिक्षा एवं शैक्षणिकता के मामले में निर्विवाद रूप से यह कभी शीर्ष पर था. प्रसिद्धि दूर-दूर तक थी. सिर्फ भारत में ही नहीं, विदेशों में भी. हालांकि, कालांतर में दोषपूर्ण शिक्षा नीति, प्रशासनिक उदासीनता, राजनीतिक नेतृत्व की अकर्मण्यता एवं अदूरदर्शिता के कारण यह प्रसिद्धि मिट गयी. आज की हकीकत बेहद निराशाजनक है. शिक्षा और शैक्षणिकता राष्ट्रीय परिदृश्य से करीब- करीब गायब है.
खोखली बुनियाद
अध्ययन-अध्यापन का स्तर देश के अन्य राज्यों की तुलना में काफी पिछड़ गया है. व्यवस्थाजन्य इस अधोगति का सर्वाधिक बुरा असर प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा पर पड़ा है. उच्च शिक्षा तो आकंठ अराजकता (Anarchy) में डूबी है ही. चिंता इस बात की है कि राजनीतिक नफा-नुकसान आधारित उच्च स्तरीय दखलंदाजी एवं मनमानी से शिक्षा की बुनियाद इतनी खोखली हो गयी है कि उस पर बुलंद इमारत कभी खड़ी हो ही नहीं सकती. बुनियाद का निरंतर कमजोर होना इस धारणा को मजबूत बनाता है कि हालात बदलने में राज्य सरकार की दिलचस्पी नहीं है. शिक्षा में गुणवत्ता की कोई चिंता नहीं है. शिक्षा का बजट तो वह बेहिसाब बढ़ा देती है, पर उसके सदुपयोग के प्रति गंभीर नहीं रहती है. परिणामतः स्कूल स्तर पर इसका कोई विशेष फायदा नहीं दिखता है.
सिर्फ सरकार ही दोषी नहीं
यह सब तो है, इस बदहाली-बदइंतजामी के लिए सिर्फ सरकार पर दोष नहीं थोपा जा सकता. प्रथम दायित्व (First Responsibility) सरकार का है, पर कमोबेश उतनी ही जिम्मेवारी छात्र-शिक्षक, अभिभावक और समाज के प्रबुद्ध वर्ग की भी है. क्या ऐसे तबके को अपनी जिम्मेवारी के प्रति कभी गंभीर देखा गया? इसकी ओर से शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए कभी कोई आवाज उठायी गयी? कोई आंदोलन चलाया गया? शिक्षकों के बड़े-बड़े आंदोलन हुए, छात्रों के भी. लेकिन, सबके सब स्वार्थ के लिए ही हुए. शिक्षा में सुधार के लिए कभी उनकी मुट्ठियां नहीं लहरायीं. अभिभावक तो संज्ञा शून्य हैं ही,समाज का प्रबुद्ध वर्ग भी प्रायः मौन हैं.
बांटते- बेचते हैं डिग्रियां
बच्चे मिट्टी के समान होते हैं. कुशल कुम्हार चाहे जिस रूप में उन्हें ढाल दें. वर्तमान में ऐसा प्रतीत होता है कि बिहार (Bihar) के कुम्हार रूपी शिक्षकों के हाथ की कुशलता व प्रवीणता विलुप्त हो गयी है. अयोग्यता-अक्षमता हावी हो गयी है. फलस्वरूप मिट्टी के टेढ़े-मेढ़े बर्तनों की तरह बच्चों का भविष्य ढल रहा है. यह स्थिति राज्य ही नहीं, राष्ट्र के लिए भी घातक है, जो न्यायमूर्त्ति जे एस वर्मा (Justice J. S. Verma) आयोग की रिपोर्ट से साबित होता है. रिपोर्ट कुछ वर्ष पूर्व की है. तब भी उसकी प्रासंगिकता बनी हुई है. रिपोर्ट में बताया गया है कि देश में 17 हजार से अधिक शिक्षण प्रशिक्षण संस्थान (Teaching Training Institute) हैं. उनमें 92 प्रतिशत निजी प्रबंधन में हैं. ऐसे संस्थान सिर्फ डिग्रियां बांटते-बेचते हैं, अच्छा प्रशिक्षण देने का कभी कोई प्रयास नहीं करते हैं. आज की तारीख में ऐसे संस्थानों की संख्या भले बढ़ गयी है, पर चरित्र वही है.
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अक्षम-अयोग्य शिक्षक
इस मामले में बिहार की स्थिति कुछ अधिक ही बदतर है. इस रूप में कि यहां के भविष्य को संवारने की जिम्मेवारी जिन पर है उनमें अधिकतर अक्षम व अयोग्य हैं. आधे से ज्यादा शिक्षक योग्य नहीं हैं. एक आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार माध्यमिक स्तर पर 45 प्रतिशत शिक्षक पेशागत दृष्टि से नाकाबिल हैं. उच्च माध्यमिक स्तर पर 60 प्रतिशत शिक्षक आरटीई के मानकों पर खरा नहीं उतरते हैं. यह लज्जाजनक स्थिति इस वजह से है कि पैरवी, पहुंच एवं पैसे के बल पर योग्य की बजाय अयोग्य लोग शिक्षण के क्षेत्र में घुस गये हैं, अब भी घुस ही रहे हैं. शिक्षा की गुणवत्ता पर उसका गहरा असर पड़ रहा है. इन दिनों विद्यालय में बड़ी संख्या में शिक्षकों की बहाली की प्रक्रिया चल रही है. गुणवत्ता को कितना महत्व मिलेगा, यह कहना कठिन है.
अनुपस्थित रहते शिक्षक
फिलहाल यह कहा जाये कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा (Quality Education) के मामले में नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की सरकार पूरी तरह विफल है, तो वह कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. बगैर पूर्व सूचना के शिक्षकों की गैरहाजिरी (Absenteeism) भी गंभीर समस्या है. औसतन हर रोज 28 प्रतिशत शिक्षक अनुपस्थित रहते हैं. शिक्षकों की बिना छुट्टी गैरहाजिरी का यह प्रतिशत राष्ट्रीय औसत या दूसरे राज्यों की तुलना में काफी अधिक है. वर्तमान में शिक्षा विभाग के ‘कड़क मिजाज’ के अपर मुख्य सचिव के के पाठक (K K Pathak) के ‘एकल सुधार अभियान’ के खौफ से उपस्थिति लगभग पटरी पर आ गयी है. पर, यहां यक्ष प्रश्न यह है कि के के पाठक के तबादले के बाद इस अभियान का क्या होगा? क्या यह फिर से बेपटरी नहीं हो जायेगी? इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि सार्थक और सफल परिवर्तन में सबसे महत्वपूर्ण योगदान अध्यापकों का होता है. प्राथमिक हो या माध्यमिक,शिक्षा के मामले में पूरे विश्व में फिनलैंड फिलवक्त सबसे आगे है. उसका मानना है कि शिक्षा में सुधार की कुंजी शिक्षण प्रशिक्षण में ही निहित है. उसके अनुरूप उसने काम भी किया है.परिणाम दुनिया के सामने है.
इस वजह से है सर्वोच्चता
उसकी यह सर्वोच्चता इस वजह से भी है कि वहां शिक्षकों से शिक्षण के अलावा कोई अन्य काम नहीं लिया जाता है. शिक्षक साल में छह सौ घंटा पढ़ाते हैं. बिहार में विविध कारणों से साल के छह माह स्कूलों में ताले लटके रहते हैं या फिर शिक्षकों से कुछ दूसरे गैर शैक्षणिक कार्य कराये जाते हैं. मसलन, मतदाता सूची पुनरीक्षण, जनगणना एवं दूसरे सर्वेक्षण आदि. धरातली सच यह भी है कि अधिकतर विद्यालयों में शिक्षकों का समय मध्याह्न भोजन बनवाने-खिलवाने में खप जाता है. ऐसे में पढ़ाई-लिखाई खाक होगी!
चित्र : सोशल मीडिया
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