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कई अड़चनें हैं ‘एक देश : एक चुनाव में’

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अविनाश चन्द्र मिश्र
03 अक्तूबर 2023

क देश : एक चुनाव.’ यानी लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ. भारत जैसे विशाल देश में लोकतांत्रिक मूल्यों (Democratic Values) की अक्षुण्णता की दृष्टि से यह विचार कितना व्यावहारिक और ग्राह्य है, विवेचना का एक अलग विषय है. पर, सैद्धांतिक (Theoretical) रूप से यह राष्ट्रहित में है, इस तथ्य को इसके पैरोकार ही नहीं, इस अवधारणा के आलोचक भी मानते व स्वीकार करते हैं. वैसे, यह कोई नयी व्यवस्था नहीं है. 1967 तक इस देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही हुए थे. 1968-69 में ‘समाजवादी संस्कार’ के नेताओं की ‘सत्ता की भूख’ ने इस परम्परा (Tradition) को खंडित कर दिया. हालांकि, कारण और भी थे. कुछ राज्यों की विधानसभाएं निर्धारित समय से पहले भंग हो गयी थीं. उन्हें अस्तित्व (Existence) में लाने के उद्देश्य से मध्यावधि चुनाव का सूत्रपात हुआ.

कांग्रेस का ऐतिहासिक विभाजन
कुछ समय बाद अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का ऐतिहासिक विभाजन हुआ. मोरारजी देसाई (Morarji Desai) के नेतृत्व वाली कांग्रेस केन्द्र की सत्ता से बाहर हो गयी. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) के सहयोग-समर्थन से इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार सत्ता में आ गयी. प्रधानमंत्री के रूप में अपनी सत्ता को स्थायित्व देने के लिए इंदिरा गांधी ने 1970-71 में मध्यावधि चुनाव को विस्तार दिया. समय से लगभग 14 माह पहले लोकसभा का चुनाव करवा दिया. फिर तो ‘एक देश: अनेक चुनाव’ का सिलसिला ही चल पड़ा. प्रायः हर साल किसी न किसी राज्य में चुनाव होने लगा. इस परिपाटी से अन्य समस्याएं तो खड़ी होती ही हैं, चुनावों पर बहुत बड़ी राशि खर्च होने से देश की अर्थव्यवस्था (Economy) पर भी गहरा असर पड़ता है.

गति मिलेगी विकास के कार्यों को
बार-बार आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू होने से नीतिगत निर्णय लेने में कठिनाई होती है. चुनाव के कार्यों से लगभग संपूर्ण प्रशासन-तंत्र के जुड़ जाने से विकास की योजनाएं प्रभावित होती हैं. इन सबको देखते हुए विधि आयोग (Law Commission) की 2018 की एक रिपोर्ट में कहा गया कि एक साथ चुनाव से सरकारी धन की बचत होगी, विकास के कार्यों को तेज गति मिलेगी. सत्ता संभालने के बाद से ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) ‘एक देश : एक चुनाव’ को भारत की जरूरत बताते हुए इसकी वकालत कर रहे हैं. राष्ट्र के नीति निर्धारकों ने भी चुनाव की अनवरतता से गहराती समस्याओं पर गंभीर चिंतन-मनन व अध्ययन किया है. निर्वाचन आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग और संविधान समीक्षा आयोग ने अलग-अलग गहन मंथन किया.


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राजनीतिक दलों का सत्ता-स्वार्थ
विधि आयोग ने राजनीतिक दलों, प्रशासनिक अधिकारियों व विशेषज्ञों की राय जानने के लिए कांफ्रेंस आयोजित किया, सहमति नहीं बन पायी. सहमति बन पाना उतना आसान भी नहीं है. इसके बावजूद केन्द्र सरकार (Central Government) गंभीर है. उसकी गंभीरता को इस रूप में आसानी से समझा जा सकता है कि इसे धरातल पर उतारने के लिए उसने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद (Ramnath Kovind) की अध्यक्षता में उच्चस्तरीय कमेटी का गठन किया है. कमेटी में केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह (Amit Shah) भी हैं. त्वरित कार्यवाही के तहत समिति की रिपोर्ट जल्द मिल जाती है तब भी उस पर सरलता से अमल शायद ही हो पायेगा. कारण कि वैधानिक जटिलताएं तो अपनी जगह हैं ही, राजनीतिक दलों का सत्ता-स्वार्थ भी बड़ी अड़चन है. संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली के संघीय ढांचे के चरमरा जाने से संबंधित कुछ आशंकाएं भी हैं.

ख्याल अच्छा है…
जहां तक वैधानिकता की बात है, तो एक साथ चुनाव (Election) के मामले में भारत का संविधान मौन ही नहीं है, उसमें ऐसे कई प्रावधान हैं जिनमें प्रतिकूलता दिखती है. इसके मद्देनजर ‘एक देश : एक चुनाव’ के लिए संविधान में संशोधन करना अनिवार्य हो जायेगा. नये राज्य के गठन व चुनाव, लोकसभा एवं विधानसभा को भंग करने, राष्ट्रपति शासन लागू करने आदि से संबद्ध प्रावधानों वाले संविधान (Constitution) के अनुच्छेद 83, 85, 172, 174 और 356 को बदलना होगा. जन प्रतिनिधि कानून 1951 की धारा 02 को संशोधित कर उसमें ‘एक साथ चुनाव’ की परिभाषा जोड़नी होगी. देश की राजनीति में अभी जिस ढंग की ‘गला काट प्रतिद्वंद्विता’ चल रही है उसमें इस सोच में कोई बड़ा खोट नहीं रहने के बाद भी इस पर सहमति कायम होना असंभव नहीं, तो कठिन जरूर है. ऐसे में फिलहाल मिर्जा गालिब का यह शेर को ही गुनगुनाया जा सकता है:
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल को खुश रखने को गालिब ये ख्याल अच्छा है…

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