राजपाट और कायस्थ : कसक साथ तो होगी…!
महेन्द्र दयाल श्रीवास्तव
30 अक्तूबर 2023
Patna : बिहार हमेशा से विचारों के केन्द्र में रहा है. लेकिन, नयी पीढ़ी के बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि बिहार राज्य बना कैसे और इसको बनाने में किन लोगों की अहम भूमिका रही. वे किस जाति व धर्म के थे. इसे विडम्बना ही कहेंगे कि जिस जाति व धर्म के लोगों के अथक प्रयास से बिहार अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आया, कालांतर में उन्हें सत्ता की राजनीति में हाशिये पर डाल दिया गया. इतिहास (History) में वर्णित है कि अलग बिहार (Bihar) प्रांत के लिए मुख्य मुहिम कायस्थ और मुस्लिम समाज के प्रबुद्धजनों ने चलायी थी. मुहिम से अन्य वर्गों के लोग भी जुड़े थे, परन्तु उनकी भूमिका सीमित थी. बाद के वर्षों में वैसे ही लोग सुनियोजित ढंग से सत्ता और सियासत पर काबिज हो गये.
करीने से लगा दिया किनारा
सर्वविदित है कि बिहार में कायस्थों की तुलना में मुस्लिम आबादी काफी अधिक है. वोट की राजनीति में खास महत्व रखती है. वोट के स्वार्थ को सत्ता के टुकड़ों से पोषित-संरक्षित कर इस आबादी को संतुष्ट (Satisfied) नहीं रखा गया तो निराश भी नहीं होने दिया गया. कायस्थों की बुद्धि की प्रखरता सत्ता का रुख न बदल दे, इस आशंका को स्थायी तौर पर दूर रखने के लिए उन्हें करीने से किनारे लगा दिया गया. हालांकि, इस समाज के लिए यह कोई पहला अनुभव नहीं है. बहुत कुछ ऐसा ही ब्रिटिश शासनकाल में भी होता था. उस शासनकाल में कुछ अवधि तक बिहार का प्रशासन कायस्थ बिरादरी के सिताब राय के हाथों में जरूर रहा, पर राजनीतिक व प्रशासनिक मामलों में आमतौर पर इसे महत्वहीन (Unimportant) ही रखा गया.
तब मिली थी अहमियत
कायस्थ समाज ने अपनी बुद्धि का अधिकतम इस्तेमाल सरकारी सेवाओं और वकालत में किया. इसके बरक्स स्वतंत्र भारत के शुरुआती दौर में अपेक्षा के अनुरूप अहमियत मिली. डा. सच्चिदानन्द सिन्हा को संविधान सभा (Constituent Assembly) का प्रथम अध्यक्ष बनाये जाने को इस दृष्टि से देखा जा सकता है. इसको भी कि 1950 में उनकी मृत्यु हो जाने के बाद यह दायित्व किसी अन्य समाज को नहीं, इसी बिरादरी के डा. राजेन्द्र प्रसाद (Dr. Rajendra Prasad) को मिला. उन्हें संविधान सभा का अध्यक्ष तो बनाया ही गया, वह भारत के प्रथम राष्ट्रपति भी बने और 14 मई 1962 तक देश के इस सर्वोच्च पद पर रहे. कायस्थ बिरादरी के लिए यह गौरव की बात रही.
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असर बिहार में भी दिखा
अल्पकाल के लिए ही सही, राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में कायम हुए कायस्थों के इस प्रभुत्व का असर बिहार में भी दिखा.1952 में स्वतंत्र भारत में जब विधानसभा (Assembly) का प्रथम चुनाव हुआ तो उसमें इस समाज के 40 विधायक निर्वाचित हुए. सिलसिला 1962 तक बना रहा. उसके बाद के चुनावों में संख्या धीरे-धीरे कम होती गयी. 2020 में यह तीन पर अटक गयी. पूर्व के कई चुनावों में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति थी. राज्यसभा के पूर्व सदस्य भाजपा नेता आर के सिन्हा की मानें, तो 1952 के प्रथम चुनाव के बाद 1957 और 1962 के चुनावों में भी इस समाज के 40 से 50 विधायक निर्वाचित हुए थे. उस कालखंड में विधानसभा के अध्यक्ष के अलावा तीन से चार कैबिनेट मंत्री कायस्थ बिरादरी से हुआ करते थे. राज्य सरकार के नीति-निर्धारण में इन मंत्रियों को काफी महत्व मिला करता था. लेकिन, आज इस जाति के लोगों की राजनीतिक स्थिति (Political Situation) बद से बदतर हो गयी है.
भाजपा देती है सम्मान
बौद्धिकता का महत्व समझने वाली भाजपा (BJP) भले इसे सम्मान की दृष्टि से देखती है, गाहे-बगाहे अवसर भी उपलब्ध कराती है. पर, जातिगत संख्या बल की राजनीति करने वाले दलों की नजर में इसकी कोई खास अहमियत नहीं है. सामान्य समझ में1967 के बाद से ही यह जाति अन्य जातियों की तुलना में राजनीति में प्रायः उपेक्षित है. बल्कि यूं कहें कि सुविचारित तरीके से उपेक्षित कर दी गयी है तो वह कोई अतिश्योक्ति (Exaggeration) नहीं होगी. इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इस जाति का संख्या बल कम भले है, पर दो दर्जन से अधिक विधानसभा क्षेत्रों के राजनीतिक समीकरण को बिगाड़ने-बनाने की हैसियत यह अब भी रखती है.
अब कुछ नहीं रह गया
बिहार में कायस्थ बिरादरी की गिनती सवर्ण समाज में होती है. सवर्णों की जातीय बर्चस्व की राजनीति में प्रारंभिक प्रभुत्व कायम करने के बावजूद यह समाज पिछड़ गया. इस समाज के लोगों ने कलम को ही सदा सर्वोपरि माना और लड़ाई-झगड़े से खुद को दूर रखा. नतीजतन इस जाति के लोग, जो कभी राजनीति के केन्द्र में रहते थे, कमजोर वोट बल की वजह से धीरे-धीरे हाशिये पर चले गये. इसमें सिर्फ बौद्धिकता के बल पर न टिकने की विवशता भी एक बड़ा कारण रहा. परिणाम यह हुआ कि गरिमामय अतीत (Glorious Past) को गुनगुनाने के अलावा अब और कुछ खास नहीं रह गया है.
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