बहुत कुछ कह रहा यह सन्नाटा
अविनाश चन्द्र मिश्र
09 नवम्बर 2023
समाजवाद की ‘खुरचन’ की राजनीति कर रहे लालू प्रसाद और नीतीश कुमार जातीय जनगणना के लिए लंबे समय से प्रयासरत थे. इस रणनीति के तहत गला फाड़ रहे थे कि इस रूप में ‘सामाजिक न्याय’ के दूसरे चरण के तौर पर उभरने वाला दौर ढह-ढनमना गये ‘पिछड़ावादी जनाधार’ को फिर से मजबूत बना देगा और सत्ता उनकी बनी रह जायेगी. मांग राष्ट्रीय स्तर पर जातीय जनगणना कराने की थी. केन्द्र सरकार के स्तर पर नहीं सुनी गयी तब राज्य सरकार के खजाने से पांच अरब रुपये खर्च कर बिहार में जातीय जनगणना (Caste Census) करायी गयी, आंकड़े जारी किये गये. संवैधानिक अड़चनों से बचने के लिए नाम ‘जाति आधारित गणना’ दिया गया. जातीय जनगणना अंग्रेजी हुकूमत में होती थी.
‘कबिलाई जिन्न’
स्वतंत्र भारत में इस कबिलाई परिपाटी को सिरे से खारिज दिया गया. 1951 की प्रथम जनगणना में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को छोड़ शेष के जातीय आंकड़े नहीं संग्रहित किये गये. इसे सामाजिक सुधार (Social Reform) के रूप में देखा गया. बाद के वर्षों में समाजवादी धारा के कुछ जातिवादी नेताओं ने राजनीतिक स्वार्थ के लिए जातीय जनगणना पर जोर दिया, मुट्ठियां लहरायी. देश की सत्ता राजनीति ने तवज्जो नहीं दी. बदले हालात में लालू प्रसाद (Lalu Prasad) की ताकत पर नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने जाति आधारित गणना के रूप में जाति के ‘कबिलाई जिन्न’ को बाहर निकाल दिया. विडम्बना देखिये, जिस कांग्रेस के पुरखों ने इस जिन्न को जमींदोज कर दिया था, उसी के वंशज राहुल गांधी उसे अपने कंधे पर रख घूम रहे हैं.
सत्ता की व्याकुलता
सत्ता के लिए व्याकुलता ऐसी कि बिहार की जातीय जनगणना रिपोर्ट पर आम अवाम की क्रिया-प्रतिक्रिया जानने-समझने की भी जरूरत महसूस नहीं की. ऐसा ही कुछ हुआ था सामाजिक न्याय की राजनीति के दौर में. सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) ने समर्थक सामाजिक समूहों की भावनाओं के विपरीत अंध पिछड़ावाद का समर्थन कर दिया था. परिणामस्वरूप कांग्रेस का मूल जनाधार खिसक गया. उसकी राजनीति का हश्र क्या हुआ, बताने की शायद जरूरत नहीं. जातीय जनगणना पर राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के रुख से वैसी ही आशंका झांक रही है. बचे-खुचे जनसमर्थन के सिमट जाने की आशंका.
मुगालते में हैं…
लालू प्रसाद और नीतीश कुमार इस मुगालते में हैं कि जातीय जनगणना के आंकड़े बिहार ही नहीं, देश की राजनीति की दिशा बदल देंगे. ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ की गूंज से पिछड़ावाद की ऐसी लहर पैदा होगी कि भाजपा और नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) की सत्ता उसमें विलीन हो जायेगी. वर्षों पूर्व दिवंगत बसपा सुप्रीमो कांशीराम द्वारा उछाले गये इस नारे में राहुल गांधी को क्रांति नजर आयी. बिना देर किये उन्होंने उसे लपक लिया. उनकी इस हड़बड़ाहट की परिणति क्या होगी क्या नहीं, यह भविष्य बतायेगा. फिलहाल सार्वजनिक हुए जातीय आंकड़ों पर बिहार (Bihar) में पसरे सियासी सन्नाटे से सब सन्न हैं. ऐसी ठंडी प्रतिक्रिया की उम्मीद किसी ने नहीं की थी. आशंका सामाजिक विद्वेष फैलने की थी. कहीं कुछ नहीं हुआ. न हर्ष न विषाद!
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आधिकारिक पुष्टि हो गयी
ऐसा इसलिए कि आर्थिक समृद्धि के वर्तमान दौर में सामाजिक संरचना, संस्कार और सरोकार सबकुछ बदल गये हैं. जहां तक जातिवार आंकड़ों की बात है, तो थोड़ा बहुत उलटफेर के अलावा यह पूर्व के अनुमान से अलग नहीं हैं. उल्लेख करने लायक तथ्य इतना भर है कि इन आंकड़ों से अत्यंत पिछड़ी जातियों, दलितों और अल्पसंख्यकों की हकमारी की आधिकारिक पुष्टि हो गयी है. हकमारी पर उठ रहे सवाल से लालू प्रसाद और नीतीश कुमार का दांव उल्टा पड़ता नजर आ रहा है. इस परिप्रेक्ष्य में यहां एक साथ दो लोकोक्तियों का उल्लेख समीचीन है – ‘काठ की हांडी दुबारा नहीं चढ़ती’ और ‘दूध का जला मट्ठा भी फूंक-फूंक कर पीता है’.
नीतीश कुमार का तर्क
बिहार में ‘सामाजिक न्याय’ के दौर में राजनीतिक सत्ता पिछड़ावाद के कदमों में समर्पित कर दिया गया था. उस समर्पण का सिला क्या मिला? मध्यवर्ती दबंग पिछड़ी जातियों के सिवा आम पिछड़ों को? राज्य में 33 वर्षों से ‘पिछड़ों की सत्ता’ है. इन वर्षों के दौरान अत्यंत पिछड़ों के समग्र आर्थिक विकास के लिए कभी कोई समन्वित प्रयास किया गया? उत्तर निराशाजनक है. यही निराशा जातीय आंकड़ों पर सियासी सन्नाटे की मुख्य वजह है. नीतीश कुमार का तर्क है कि जाति आधारित गणना पिछड़ गयी जातियों के विकास को ध्यान में रख करायी गयी है. ऐसी जातियों का जीवन स्तर सुधारा जायेगा. कैसे और कब, इस पर वह कुछ बोल नहीं रहे हैं.
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