हाल विधायक का : गुजरा हुआ जमाना आता नहीं दुबारा…
राजनीतिक विश्लेषक
9 अगस्त, 2021
पटना. विधायकजी को इससे पहले किसी ने दुखी अवस्था में नहीं देखा था. पहली बार राज्य मंत्रिमंडल के हालिया विस्तार के समय देखा. वह भी अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए. हालांकि, राजनीति में हर किसी की पीड़ा में अपनी पीड़ा जुड़ी होती है. विधायकजी की पीड़ा बाहर आयी. पीड़ा इस बात की थी कि कैबिनेट में सवर्ण विधायकों को उचित जगह नहीं मिली. विशेषकर उनकी बिरादरी की कुछ अधिक उपेक्षा हुई. जाहिर है, इसमें उनकी अपनी पीड़ा भी झलक रही थी. वाजिब भी है. पंद्रह साल से विधायक हैं. उम्र के हिसाब से भी साठा हो गये हैं. इस बार नहीं बने तो कब बनेंगे. मोदी राज में और खासकर उनकी पार्टी में बढ़ती उम्र के लोगों पर शामत आयी हुई है. उनकी मुखरता का कोई सुखद फल न निकलना था न निकला. खैर, यह अलग विषय है. विधायकजी भाजपा के मूलवासी नहीं हैं, प्रवासी हैं. माना जाता है कि उनकी जीत अपने दम पर होती है. अब उनकी पीड़ा की असली वजह समझिये. एक दौर था. उस समय सुशासन बाबू की राज्य में कैबिनेट नहीं बनी थी. वह किचेन कैबिनेट से काम चला रहे थे. उस समय के किचेन कैबिनेट में विधायकजी, जो उस समय विधायक नहीं थे, को महत्वपूर्ण दर्जा हासिल था. सुबह उठने से लेकर रात के सोने तक विधायकजी उनके साथ रहते थे. उस दौर के करीबी लोगों मेें सिर्फ विधायकजी के पास अपनी गाड़ी थी, जिसे वह खुद चलाते भी थे. सुशासन बाबू भी उस गाड़ी की सवारी करते थे. सुशासन बाबू की पैरवी पर ही वह विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए राजी हुए. इच्छा थी कि विधान परिषद के जरिए सदन में चले जायें. बेमन से चुनाव लड़े. जीते तो अभी तक सिलसिला कायम है. सुशासन बाबू के साथ रह कर जीते. उनके विरोध के बावजूद जीते. उस दिन अपनों के बीच सुशासन बाबू से अलगाव की पीड़ा सामूहिक तौर पर बता रहे थे-पहले हम किसी भी समय सुशासन बाबू के सरकारी आवास पर जा सकते थे. 2014 में यह सिलसिला खत्म होने लगा. जाने से पहले समय लेने की अनिवार्यता हो गयी. सोचा कि इतना चलेगा. उसके बाद का सीन दिल को झकझोरने लगा. इंतजार में बैठे हैं. अंदर से हंसी-ठहाके की आवाज आ रही है. बुलाया नहीं जा रहा है. एकबारगी सुशासन बाबू अपने कमरे से झा जी के साथ निकले. मकान की दूसरी मंजिल पर जाने के समय चलते-चलते पूछा-कोई बात है क्या? इस दिन को देखने के बाद ही विधायकजी ने तय कर लिया कि अब यहां दुबारा नहीं आना है. सचमुच, उस दिन उनका मन टूट गया था. आजतक टूटा ही हुआ है. वैसे, विधानसभा के चलने के दौरान सुशासन बाबू के चेम्बर में पलथी तो मारते हैं, सरकारी आवास की ओर कभी रुख नहीं करते हैं.